बुधवार, 19 मार्च 2014

गुजरी तारीख

कब तक बाट निहारते भटकेगा अविराम !
रे मनवा अब लौट चल, घिर आयी है शाम ।

क्यों लहरों को कोसता ,यह तूफानी मौन !

नाम लिखा कर रेत पर अमिट हुआ है कौन !

अनजाने भेजा गया बिना पते का पत्र

अनबूझा यों उड रहा यत्र-तत्र-सर्वत्र ।

सीखा कभी न तैरना गहरा पारावार

दो अक्षर की नाव पर हम उतरे मँझधार ।

बुला रहा कोई कहीं ,था कोरा अन्दाज 

पर्वत लौटाते रहे ,मेरी ही आवाज ।

अनजाना यह शहर है भीड भरा बाजार

कोई अपना सा हमें मिल जाता एक बार ।

टहनी-टहनी फूटती है पल्लव सी पीर

रोम-रोम चुभने लगा बनकर शूल समीर ।

पर्वत रहते बेअसर क्या वर्षा तूफान

क्या धरती की वेदना , क्या सागर का मान ।

रटीरटायी सी कोई एक उबाऊ सीख

रहे कैलेन्डर में सदा हम गुजरी तारीख ।

 बूटे-बूटे में लिखा है यह किसका नाम

चप्पे-चप्पे में घुला रंग वही अभिराम ।

13 टिप्‍पणियां:


  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन ट्विटर और फेसबुक पर चुनावी प्रचार - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. बुला रहा कोई कहीं ,था कोरा अन्दाज
    पर्वत लौटाते रहे ,मेरी ही आवाज ..
    हर छंद भाव प्रधान है ... इसने खास प्रभावित किया ... इस उलट फेर में कहन कि अभिव्यक्ति का भरपूर आनद है ...

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  3. आज तो आपने दर्शन शास्त्र की क्लास लगा दी है दीदी! किस दोहे के बारे में कहूँ और क्या कहूँ..
    जहाँ स्वयम का पता पाया वो दोहा है:

    अनजाने भेजा गया बिना पते का पत्र
    अनबूझा यों उड रहा यत्र-तत्र-सर्वत्र ।

    बस कब पते पर पहुँचूँगा या पहुँचूँगा भी या नहीं, क्या पता! एक पंक्ति में कहूँ तो मन को शांति पहुँचाते और चिंतन को उकसाते हुए दोहे!!

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  4. यथार्थ का प्रतिचित्र। समुचित-सुन्‍दर-आकर्षक भावाभिव्‍यक्ति के साथ।

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    1. वरिष्‍ठ कथाकार बल्‍लभ डोभाल जी को आपका गीत पढ़ाया। कह रहे थे बहुत अच्‍छा है। मैंने सोचा आपको अवगत करा दूं।

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    2. शुक्रिया विकेश । आपका अपनत्व है यह और मेरी रचनाओं के प्रति विश्वास ।

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  5. किसकी तारीफ़ करूँ और कौन सा छोड़ूँ -तय करना मुश्किल .पर यो दोहा तो
    मन में प्रतिध्वनित हो रहा है -
    बुला रहा कोई कहीं ,था कोरा अन्दाज
    पर्वत लौटाते रहे ,मेरी ही आवाज ।

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  6. बुला रहा कोई कहीं ,था कोरा अन्दाज
    पर्वत लौटाते रहे ,मेरी ही आवाज ।
    laazwaab ,man ko bha gayi ,barbar padhne ko jee kar raha hai .

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