" कल से दूध 50 रुपए लीटर मिलेगा ।"---दूध वाले ने कल ही सुना दिया ताकि आम आदमी तय कर सके कि चाय को चुल्लूभर दूध दिखाने की भी उसकी औकात है या नही ।
इतनी औकात तो अब बेशक है । गरीबी रेखा के बहुत नीचे वाले लोगों को जरूर थोडी मुश्किल है लेकिन सौ या दो सौ मिली लीटर दूध तो वे भी ले ही लेते हैं ।
सरकारी मूल्य पचास रुपए प्रति लीटर होगया है तो भैंस पालने वालों ने भी पचास कर दिया । एकदम पाँच रुपए की बढत । इसमें कोई आश्चर्य या खेद की बात नही ।
दरअसल मूल्य माँग और पूर्ति के आधार पर तय होता है । पनीर, चीज़ और दूध के अन्य उत्पादों का व्यापक उपयोग न केवल दूध के दामों को उच्च से उच्चतर ले जा रहा है बल्कि गंभीर भ्रष्टाचार को बढावा भी दे रहा है । कच्ची सडक और इमारत बनाकर या बच्चों के दलिया और ब्रेड को बाजार में बेचकर रुपया खाने से भी कहीं अधिक गंभीर ।
अब मुद्दा केवल आर्थिक स्तर का नही रह गया है ।
यहाँ मुद्दा वस्तु की शुद्धता और ग्राहक के साथ हो रहे धोखे का है । नैतिक मूल्य एवं मानवीय संवेदनाओं की हत्या भी एक दूसरा पहलू है ।
अब एक बडा प्रश्न यह है कि पूरी कीमत चुकाने में समर्थ होने के बावज़ूद क्या ग्राहक को चुल्लूभर दूध भी अब उपयोग में लाना चाहिये या दूध व दूध से बनी चीजों को हमेशा के लिये त्याग देना चाहिये । स्वस्थ-अस्वस्थ ,बच्चे ,बूढे ,महिलाएं...सभी के लिये दूध उत्तम पथ्य है लेकिन कौनसा दूध ? नकली और जहरीला दूध ?
यूरिया ,वाशिंग पाउडर , रिफाइन्ड व अन्य रासायनिकों के साथ बनाया गया कृत्रिम दूध ,पनीर, मावा धडल्ले से खपाया जा रहा है---इसे अखबार और समाचार चैनल प्रायः रोज ही परोसते रहते हैं । साथ ही उसे पकडने के समाचार भी लेकिन कभी उन लोगों की गिरफ्तारी का समाचार नही पढा गया । क्यों अखबारों की चीख-पुकार के बावजूद कोई कार्यवाही नही होती ?
आम आदमी समस्याएं को पढता है पर उसके समाधान का सुखद समाचार उसकी किस्मत में है ही नही । पैसा कमाने का जुनून इस तरह हावी होगया है कि उचित-अनुचित का भेद ही मिट गया है । अब 'मुहब्बत और जंग' नही , पैसा कमाने के लिये सब कुछ जायज़ है । यह प्रवृत्ति भी क्या हत्या या आतंकवादी गतिविधि जैसी ही भयानक नही है ?
क्या विश्वास और ईमान की हत्या करने वाले लोगों का अपराध किसी हत्यारे के अपराध से कम है ? मेरे विचार से तो उससे भी अधिक भयानक और वीभत्स है । पर उनके लिये सजा क्यों नही ? क्यों उनका अपराध सिर्फ पैसा कमाने के लिये पकडा जाता है ?
अब एक और कठोर सत्य----
गाँव में आय का कोई निश्चित साधन न होने के कारण या कि जो है उससे ज्यादा कमाने के उद्देश्य से लोग शहर में आकर दूध का धन्धा अपना रहे हैं । हालाँकि गाँवों में जहाँ पशुपालन काफी आसान है ,वही शहर में बहुत ही मँहगा और मुश्किलों भरा है । इसमें कोई सन्देह नही कि दूधवाले जिस कठोर परिश्रम ,गोबर गन्दगी को सहकर लोगों के बर्तन में दूध पहुँचाते हैं , वह निश्चित ही काफी कठिन व असुविधाजनक है । उनके प्रयासों से ही कुछ रुपए देकर ग्राहक शुद्ध दूध ले पाते हैं और साथ ही कृत्रिम दूध के जहर से बचे रहते हैं लेकिन इस शुद्ध दूध के पीछे भी एक भयानक काला सच है जिसे प्रायः नही देखा जाता ।
वैसे तो पशुओं या दूसरे प्राणियों के अधिकार व जीवन को छीनकर ही मानव जीवन आबाद है । रोज लाखों-करोडों मासूम ज़िन्दगियाँ मानव का आहार बनतीं हैं । सुबह कई बस्तियों में नालियों में पानी की जगह खून बहता है । सरेआम दुकानों में खाल उतरे जानवर लटके रहते हैं ।
यही नही उनके अधिकार भी मानवीय आवश्यकताओं की भेंट चढते हैं । चाहे वह माँस ,शहद या दूध हो ।
सच तो यही है कि भैंस या किसी भी माँ का दूध सिर्फ उसके बच्चे के लिये ही होता है । मधुमक्खियाँ भी शहद अपने बच्चों के लिये ही जुटातीं हैं हमारे लिये नही ,लेकिन व्यवसाय व मानवीय उपयोगिता के चलते इस तथ्य को कुछ अनदेखा करना तो स्वाभाविक भी है और व्यावहारिक भी । लेकिन जिस निर्ममता के साथ बाजारवादी मानसिकता सामने आ रही है वह मानवता पर एक गहरा प्रश्न छोडती है कि यह व्यावसायिकता आखिर किस हद तक जाएगी ।
सब जानते हैं कि बच्चे को पिलाने के लिये ही माँ का दूध उमडता है । इसलिये गाय-भैंस आदि का दूध निकालने से पहले उसके बच्चे को छोड दिया जाता है और जैसे ही दूध की धार तेज होती है बच्चे को हटा लिया जाता है और दूध बर्तन में दुह लिया जाता है ।
गाँवों में जहाँ अभी बाजार इतनी हृदयहीनता के साथ नही फैला है ,लोग बच्चे को शुरु में दूध पीने से एकदम नही हटाते और बाद में भी छोडे हुए दूध को पीने के लिये बच्चे को छोड देते हैं । हालाँकि अब डेयरी-सिस्टम के कारण लोग उतने उदार नही रहे लेकिन शहर में दूध का व्यवसाय जिस अमानवीयता के साथ चल रहा है देखकर दूध के उपयोग पर ही खेद होने लगा है ।
होता यह है कि अगर भैंस ने पडा ( नर-शिशु ) को जन्म दिया है तो वह कुछ ही दिन माँ का दूध चख पाता है । फिर उसे भूखा रखा जाता है ताकि वह जल्दी ही दुनिया से विदा ले ले और मालिक का दाने-चारे का खर्च बच जाए । अब बिना बच्चे के दूध कैसे निकले इसके लिये एक उपाय है इंजेक्शन द्वारा भैंस की नसों में एक दवा पहुँचाई जाती है ,जो नसों में उत्तेजना पैदा करती है और भैंस का दूध अनायास ही उमड आता है । कृषक इसका उपयोग फल व सब्जियों की जल्दी और ज्यादा बढत के लिये उपयोग में लाते हैं । उन सब्जियों की तरह ही यह दूध भी काफी हानिकारक होता है ।
चूँकि जानकार लोग इंजेक्शन वाले दूध को लेने से इनकार करने लगे हैं इसलिये कुछ भैंसवाले एक और अमानवीय तरीका अपनाते हैं । मृत पडा ( बच्चे ) का सिर काटकर उसकी माँ के सामने रख देते हैं ताकि वह अपने बच्चे का मुख देखकर दूध दे सके । यह एक हृदय-विदारक सच है । एक माँ के साथ किया गया क्रूर छल । ऐसे दूध वालों के पास कई तर्क हैं जिनमें सबसे प्रमुख है कि वे कोई धोखा नही कर रहे । ग्राहकों को कम से कम नकली और हानिकारक दूध तो नही दे रहे । केवल मिट्टी हुए शरीर का ही तो उपयोग कर रहे हैं ।
इस उत्तर के बाद ग्राहक को निरुत्तर होना ही है । संवेदनाओं को कहीं दफ़न कर अब जब ,"अपना काम बनता तो भाड में जाए जनता " वाली मानसिकता फल-फूल रही है तब दोष किसे दिया जाय ,क्रेता या विक्रेता को या फिर पूरे समाज को।
मार्मिक और यथार्थ प्रस्तुति ....केलिए गावं में रह कर मैं अपनी गाय का दूध पिटे हुए....इन सब से बचा रह पाता हूँ...
जवाब देंहटाएंबहुत भयानक सच हैं .अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए कितना गिर गया है इन्सान -दोषी हम सब हैं इस पाप के भागीदार हैं ,
जवाब देंहटाएंदूध की आवश्यकता सबको है, पालने का श्रम कोई नहीं करता है, शहर में तो संभव ही नहीं है। इसको बड़े प्रकल्प में लेना पड़ेगा तभी हल निकलेगा।
जवाब देंहटाएंदीदी! मैं तो अभी गुजरात में हूँ. यह प्रदेश और इस प्रदेश का आणन्द अंचल अपनी श्वेत क्रांति के लिये जाना जाता है. दुग्ध सहकारिता के साथ 'अमूल' को एक दुग्ध/दुग्ध उत्पादों के पर्याय के रूप में जाना जाने लगा. इसके साथ ही प्रत्येक प्रदेश में यह योजना लागू हुई. ऐसे में दूध का अर्थ वह पेय पदार्थ हुआ जो पॉलिथीन की थैलियों में दुकानों पर मिलता है, न कि गो माता के थन से बाल्टियों द्वारा हमारी पतीलियों में आता है.
जवाब देंहटाएंहमारे घर गायों की वंशानुगत परम्परा रही, जब तक दादा जी रहे. नर संतान को खेती के काम में लगाया जाता रहा और मादा संतान घर पर. किंतु आपने जिस विभीषिका का दृश्य प्रस्तुत किया है वह भयंकर है. दुख इस बात का है कि यह समस्या हमारे पर्व-त्यौहार से पूर्व उजागर होती है और दूध के पतीले में आए उबाल की तरह तुरत शांत भी हो जाती है. भ्रष्टाचार धमनियों में दौड़ रहा है और दूध सी सफेदी किसी राजनेता में नहीं जो देश के डायलिसिस के लिए तैयार हो.
मैं तो दूध बिल्कुल पसन्द नहीं करता, उल्टी होने लगती है. और अब तो डॉक्टर ने वैसे भी दूध और दुग्ध उत्पादों से परहेज के लिये कह रखा है.
दीदी, बहुत ही सार्थक आलेख!!
मार्मिक ... ये तो अमानवीय है ...
जवाब देंहटाएंकितनी विडम्बना है ... ऐसे तो मन में ये भाव आने लगता है की क्या ऐसा दूध पीने का क्या ओचित्य ...
दोष है पिछले साठ सालों के शासन का। इस दौरान प्रशासनिक स्तर पर फैली निर्दयता का। व्हाइट कॉलर जॉब की संस्कृति ने जीवन का कबाड़ा कर दिया है। खाने-पीने को तो हम लोगों को प्रकृति पर ही निर्भर रहना है। यह भूल बहुत भारी पड़ चुकी है और अब आनेवाले समय में मानवीय जीवन इसके नीचे दब कर दम तोड़नेवाला है। ................................आपने अत्यन्त महत्वपूर्ण बात पर ध्यान आकृष्ट किया है।
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जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन ब्लॉग-बुलेटिन - आधा फागुन आधा मार्च मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
सत्य को उजागर करती हुई अति मार्मिक रचना ।
जवाब देंहटाएंमानव की लिप्सा का कोई अंत नहीं...पर उसे इसका पता नहीं कुदरत उसे दंड दे रही है
जवाब देंहटाएंधवल धार का सच, शुरुआत से पढते समय अंदाज लगा नहीं सका कि रचना इतनी गहराई लिए हुए है। दूध के साथ-साथ आदमी का सच भी उजागर कर दिया है। भला कहाँ ले जा रही है ये हमारी व्यव्स्था। सब इतने मजबूर पहले न थे। सच पूछो तो मुझे एकदम झूठ लगता है कि आदमी आज सर्वशक्तिशाली हो गया है, वास्तव मैं तो आज वो कोम्प्रोमाईज़ का पुतला भर बन के रह गया है, हर बात के पीछे बहुत कुछ दांव पर लग जाता है। बहुत सशक्त रचना, सोचने को मजबूर करती है।
जवाब देंहटाएंपता नहीं इस सब का दोषी कौन है। पर ऐसे अमानवीय कृत को पढ़कर तो अब सच में दूध का सेवन करने से पहले सौ बार यह बात दिमाग में आयेगी। किन्तु कहीं न कहीं इस सारे फसाद की जड़ यह शहरी करण ही है न ज्यादा पैसा कमाने की चाह में लोग गाँव छोड़कर शहर आते ना यह सब होता।
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