गुरुवार, 28 मई 2020

सजा


यह कहानी उस समय लिखी गई थी जब दिल्ली से पहली बात सैकड़ों मजदूरों ने अपने घरों की ओर पैदल ही पलायन किया था . उसमें एक लड़का अकेला ही अपने गाँव जा रहा था , घर नहीं पहुँच पाया और रास्ते में ही उसकी मृत्यु होगई . बाद में तो हजारों मजदूर पलायन करते लगातार देखे सुने जा रहे हैं और मजदूरों की मौतों की दुखद घटनाएं लगातार हो रही हैं . पर यह कोरोना और लॉकडाउन के कारण शहर से पलायन करने वाले मजदूर की मृत्यु पहला मामला था . समाचार सुनकर यह सोचने विवश हुई कि शहर जाना केवल मजबूरी ही नहीं हैं ,शिक्षा और शहर की चमकदमक के आकर्षण से हुई गाँवों के प्रति विरक्ति भी लोगों को खास तौर पर नए लड़कों को पलायन के लिये प्रेरित कर रही है .  यह लघुकथा उन्हीं युवाओं पर केन्द्रित है .
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सजा
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बिसना की आँखों में अचानक अँधेरा छागया . दो दिन से अन्न का दाना भी मुँह में नहीं गया था . पैर काँप रहे थे ,आँतें सिकुड़ गईँ थीं . पग पग चलना दूभर हो रहा था . दिल्ली से देवगढ़ लगभग तीन सौ किलो मीटर की यात्रा ..संगी साथियों की बातों में आकर करन भी पैदल ही चल पड़ा था .
यह तो सबको पहले ही पता चल गया था कि देश दुनिया में करोना नाम की एक बहुत खतरनाक बीमारी फैल गई है ,जिसका कोई इलाज नहीं है .हजारों लोग मर रहे हैं ..लेकिन जब यह सुना कि बीमारी की रोकथाम के लिये लॉकडाउन कर दिया है तो मजदूरों में ,जो दूर दूर के गाँवों से शहर में जीविका के लिये आए थे ,हड़कम्प मच गया . लॉकडाउन माने सब कुछ बन्द बाजार , दुकानें बसें रेल सब कुछ . केवल घरों में रहें .
फैक्ट्रियाँ बन्द होगईं . बिल्डिंगों का काम भी रुक गया है . सारे कामकाज बन्द . मुश्किलें और परेशानियाँ सभी को हैं पर बिसना जैसे सैकड़ों हजारों मजदूरों पर तो जैसे मुसीबत टूट पड़ी है .काम नहीं, तो पैसा नही . पैसा नही तो खाएंगे क्या . न रहने का सही ठौर-ठिकाना न खाने पीने का .... अपने गाँव से काम की तलाश में शहर आए हैं , सरकार कह रही है कि जो जहाँ है वहीं रहे . पर कैसे रहें कहाँ रहें . एक कमरे में आठ आठ लड़के रहते हैं , उसमें भी मकान मालिक रहने देगा कि नहीं क्या पता . तमाम शकाएं मुँह खोले सामने थीं ..मालिक ने काम बन्द करते समय ,तनखा जितनी बनती ,उतनी भी तो नहीं दी . कैसे गुजारा होगा .?
धूल फाँकेंगे और क्या...--–सुरेन्द्र ने कहा .
धूल ही फाँकनी है तो अपने घर फाँकेंगे . मैं तो आज रात में निकलता हूँ .—रामदीन बोला .
बात तो ठीक है पर घर जाएंगे कैसे ?” –बिसना ने पूछा . जबाब सुरेन्द्र ने दिया .
अपने पैरों से और क्या ?..यहाँ अकेले भूखों मरने से अच्छा है अपनों के बीच मरें गिरें ,जैसे भी रहें ....
इतनी दूर !...बिसना को कुछ हैरानी हुई जिसे रामदीन दूर किया —अरे यार किसान का बेटा होकर डर रहा है !”
और सैकड़ों मजदूरों की तरह बिसना और उसके साथी भी अदृश्य भाग्य के भरोसे पैदल ही अपने घरों की ओर चल पड़े थे . सोचा कि हाई वे पर ट्रक टेम्पो कुछ न कुछ साधन तो मिल ही जाएगा .कई लोगों को मिला भी , नहीं मिला वे भी पैदल ही अपने अपने रास्ते चल पड़े थे . कौन कैसे घर पहुँचा ..पहुँचा भी या नही , बिसना को कुछ मालूम नहीं . उसके साथ केवल रामदीन रह गया था .पानी एक पैकेट बिस्कुट के सहारे और कभी न कभी कोई साधन मिल जाएगा इसी उम्मीद में चलते रहे . दिर रात चलते लगभग आधी से ज्यादा दूरी तो तय करली थी . जहाँ रात हो जाती या थक जाते वहाँ चादर बिछाकर सोजाते थे . कुछ मील बाद रामदीन भी अपने गाँव के रास्ते चला गया . बिसना का गाँव अभी भी बहुत दूर था . वह कल्पना में अपने घर माँ ..बापू ,घरवाली ..सबको देखता हुआ खुद को हिम्मत देता हुआ चलता रहा . आखिर एक जगह जाकर उसकी हिम्मत जबाब दे गई .वह निढाल होकर सड़क के किनारे एक पेड़ के नीचे जमीन पर ही पसर गया . दूर दूर तक चिड़िया भी नहीं दिखती थी . मौत को इतने करीब उसने कभी नहीं देखा था . प्यास के मारे गला सूख गया था .
जरूर यह उसकी सजा है . अपना गाँव अपने खेतों से दूर भागने की सजा –-निश्चेष्ट पड़े बिसना के दिमाग में विचार घूम रहे थे  .हम लोग आखिर शहर क्यों भागते हैं .
बापू ने बाबा की तेरहवीं बौहरे से कर्जा लेकर की थी . काहे कि बिरादरी के दूसरे लोगों ने पूरे गाँव को चूल्ह का नौता दिया था ..हम कैसे पीछे रहते ..फिर उसका और छोटी का ब्याह भी एक खेत गिरवी रखकर किया .पर कर्जा में गिरवी रखे खेत को छुड़ाने रुपए किस पेड़ से झरने वाले हैं, यह किसी ने सोचा ही नहीं . गाँव में दाल रोटी की कमी नहीं है पर उधार चुकाने के लिये तो सुनिश्चित आय का साधन देखना ही था . यों देखो तो गाँव में भी कामों की कमी नहीं है पर उतना दिमाग कौन लगाए . वह बिसना जैसे नए लड़कों को खेती का काम बहुत कठिन पिछड़ा और उबाऊ लगता है . धूप में कौन माटी गोड़े ...कितनी मेहनत और इन्तज़ार के बाद  फसल घर में आती है . दूसरों का काम करने मिले तो उसमें इज्जत घटती है . मास्टरनी अम्मा के लड़के ने बापू से कहा था कि बिसना की बाई (माँ) अगर माँ की देखभाल और घर के काम सम्हाल ले तो वह निश्चिन्त हो जाएगा ..महीने के पन्द्रह सौ रुपए देंगे .इसके अलावा भी सहायता कर देंगे .
गाँव में पन्द्रह सौ रुपए शहर के पाँच हजार के बराबर होते हैं पर बापू ने घर आकर खूब भड़ास निकाली --- हम इतने गए गुजरे नहीं कि दूसरों का चौका-बासन करें ?”
बापू मैं शहर चला जाऊँ  ?  वहाँ काम मिल जाता है .कुछ तो कमाकर लाऊँगा ही.”- बिसना से घर की हालत छुपी न थी .पर मन में शहर में रहने की ललक भी थी ., शहर में काम करो ,तुरन्त नगद रुपए लो और मौज करो ..
ठीक है –बापू ने कहा . सोचा कि गाँव के कितने ही लड़के बंगलोर ,जैपुर ,सूरत और ऐमदाबाद में काम करते हैं .और महीना के रुपए भेजते हैं . कुछ कर्जा तो उतरेगा . बाहर काम करने का एक लाभ यह भी है कि चाहे बेलदारी करो . झूठी प्लेट धोओ , गाड़ियाँ साफ करो , झाड़ू-पौंछा करो कपड़े धोओ ,कोई नहीं देखता . बापू ने अपनी हैसियत से कारज किये होते , कर्जा न लिया होता तो उसे ऐसे नहीं भटकना पड़ता . दाल रोटी की तो गाँव में भी कमी नही है . .उतना खर्चा भी नहीं होता . शहर में बाजार है , चमक-दमक है , पैसा है , पैसे से हर सुविधा खरीदी जा सकती है पर पेट भरने के लिये तो सभी गाँवों पर ही निर्भर है . गेहूँ दाल सब्जी ,तेल ...सब ...फिर भी हम शहर की ओर दौड़ पड़ते हैं और ज्यादा कंगाली झेलते हैं ..—सड़क के किनारे पड़ बिसना सोचते सोचते बड़बड़ाने सगा – ....बापू मैं अब कभी शहर नही जाऊँगा . हाँ ..चाहे खेतों में मजदूरी करूँगा.. ,बकरियाँ पालूँगा...दुकान खोल लूँगा.. ..बापू हम कम में गुजारा कर लेंगे ...पर चैन से तो रहेंगे .....और दीना ..मेरे यार .. तू सुन रहा है ना ...तू भी अब शहर मत जाना ...कोई मत जाना ...
बिसना अकेला धूल में पड़ा बड़बड़ा रहा था . उस पर गहरी तन्द्रा सी छा रही थी . आँखें नहीं खुल रही थीं .हाथ पाँव निश्चेष्ट हुए जा रहे थे .., सूरज डूबने के साथ साँसें भी जैसे डूबती जा रही थीं ...

10 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीया दीदी, कई लोगों की तो मजबूरी होती है शहर आने की परंतु बहुत सारे लोग ऐसे भी हैं जो दूसरों के उकसाने पर गाँव में मिल रही दाल रोटी को छोड़कर मौज मस्ती वाली जिंदगी जीने की ललक में खिंचे चले आते हैं शहरों की ओर....फिर खेती का काम तो असीम धैर्य और अथक मेहनत माँगता है तिस पर भी अच्छी फसल की कोई गारंटी नहीं। गाँवों से लोगों के शहर की तरफ पलायन का कारण सिर्फ भूख नहीं था, शहरों की चकाचौंध भी थी। अब पछता रहे हैं पर मौका लगते ही फिर लौटेंगे....
    बहुत अच्छी कहानी, पलायन के कारणों पर समीक्षात्मक चिंतन को बाध्य करती हुई।

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    1. सही कहा मीना जी .यह गाँव में मेरा देखा हुआ है .. आपने कहानी को ध्यान से पढ़ा .बहुत अच्छा लगा .

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार(३०-०५-२०२०) को 'आँचल की खुशबू' (चर्चा अंक-३७१७) पर भी होगी
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
    महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    **
    अनीता सैनी

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  3. कितना मार्मिक चित्रण और गाँव का विवरण एकदम सटीक।कितना अच्छा लिखा दीदी❤

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