सोमवार, 4 मई 2020

हीरो किसके लिये गा रहा था ?


 राजकपूर मेरे प्रिय अभिनेता रहे हैं . 2 जून को उनकी पुण्यतिथि पर मुझे कई साल पहले लिखा यह संस्मरण याद आया . जिसे यहाँ दिया है . उम्मीद है कि आपको अच्छा लगेगा .
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यह बात सन् 1970 के अप्रैल की है .मैंने छठवीं कक्षा पास की थी . परीक्षा के बाद पढ़ाई का बोझ सिर से उतर चुका था . दरअसल ये वो दिन थे जब हम लोग गाँव के बाहर की दुनिया से लगभग अपरिचित ही थे . जो कुछ ज्ञान हासिल था वह हमारे मँझले भैया किशोर से मिला था .वे हम सबमें खासे बुद्धिमान और ज्ञानवान् माने जाते थे .किसी भी फिल्मी गीत पर पैरोडी बना सकते थे .वे जब चाहे बिना रुके कोई भी मनगढ़न्त कहानी सुना सकते थे. उन्होंने ही हमें बताया था कि रेडियो के अन्दर बहुत छोटे अँगूठे जितने आदमी औरत रहते हैं जो गाना गाते हैं .

खैर ,उन्ही दिनों की बात है .हम सब लोग एक शादी में शामिल होने सबलगढ़ गए .
सबलगढ़ मुरैना जिले की एक तहसील है जो आज भले ही एक  बेतरतीब भीड़ और धूल से भरा बहुत ही धूमिल सा कस्बा है लेकिन हमारी नजर में उन दिनों सबलगढ़ बहुत ही सुन्दर और कौतूहलभरा एक बड़ा शहर था . मैं पहली बार गाँव से बाहर किसी ऐसी जगह जा रही थी जहाँ सड़कें थीं , बड़ी बड़ी बसें थीं . बाजार था ,तमाम तरह की रंगबिरंगी दुकानें थीं , पक्के मकान थे ...एक तो शादी समारोह ही उल्लास की अच्छी खासी वज़ह होते हैं .उसपर किशोर भैया ने मुझे चुपचाप पहले ही बता दिया था कि सबलगढ़ जाकर बड़े भैया के साथ वे फिल्म देखने जाने वाले हैं . फिल्म शब्द हमारे लिये बड़ा स्वप्निल सा था क्योंकि रेडियो में जितने भी गीत बजते थे ,उनके प्रसारण से पहले बताया जाता था कि यह गीत अमुक फिल्म से लिया है . असल में फिल्म क्या होती है यह हमें ,कम से कम मुझे नहीं मालूम था .
"बड़े भैया मैं भी फिलिम देखने चलूँगी ."
"लड़कियाँ फिल्म नहीं देखतीं .और तू अभी छोटी भी है ."बड़े भैया ने कुछ कठोर लहजे में कहा .
"उसका मन है तो ले जाओ .हल्की-फुल्की साफ-सुथरी फिल्म है ." --ताऊजी ने कहा तो भैया मन नहीं कर सके .
इस तरह वहाँ की आज भी एकमात्र 'लक्ष्मी' टॉकीज में हम फिल्म देखने पहुँचे . फिल्म थी 'दीवाना' ,जिसका बड़ा सा पोस्टर टाकीज बाहर लगा था .टिकिट लेकर अन्दर हाल में गए तो मुझे बड़ी हैरानी हुई . हाल में बड़ा अँधेरा था. न सीट दिखे न रास्ता . अँधेरे में फिल्म भला क्या दिखेगी .एक आदमी ने हमें टार्च के सहारे सीट पर बिठाया .कुछ ही देर बाद सामने दीवार पर लगा सफेद पर्दा जाग उठा . कुछ नाम दिख रहे थे साथ ही एक धुन बज रही थी जिसके शुरु होते ही हमारा ज्ञान बलात् ही फूट पड़ा जो रेडियो पर रोज सुने गीतों से पाया था --" अरे यह तो 'दीवाना मुझको लोग कहें ..' की ट्यून है ." मैंऔर देवेन्द्र अचानक उछल पड़े
"चुपचाप देखो ..अपने ज्ञान को अभी अपने पास ही रखो ."-बड़े भैया ने टोका . थोड़ी ही देर में वह सफेद पर्दा जादुई तरीके से एक सुन्दर गाँव में बदल गया . हम हैरान थे . हमारे सामने ऐसी दुनिया थी जो हमने कभी कहीं नहीं देखी थी . चलते फिरते गोरे चिट्टे लोग..सुने सुनाए गीत ..
 एक औरत जो दीवाना की माँ थी , एक बहुत गोरी सुन्दर राजकुमारी और हाँ दीवाना ,बहुत सुन्दर  सिर पर कलगी वाली टोपी और खाकी वर्दी पहने था . भैया ने उसे देखते ही कहा था --.
"यह फिल्म का हीरो है ."--किशोर भैया ने बताया था .
"तुम्हें कैसे पता ?"
"अबे, जो फिल्म में सबसे सुन्दर होता है वहीं हीरो होता है . इसकी हीरोइन होगी वह भी बहुत सुन्दर होगी देखना ."
हीरोइन कौन ?”
"एक सुन्दर लड़की होती है जो अन्त में हीरो से मिल जाती है ."--किसोर भैया ने कहा --"अब कोई सवाल मत करना . लोग हमें गँवार समझेंगे ." 
हम चुप होकर फिल्म देखने लगे . हीरोइन यानी राजकुमारी आई .फिल्म में एक बैलगाड़ी भी थी . यह भी याद रहा कि राजकुमारी ने हरी मिर्च के साथ रोटी खाई और वह पानी में कूद गई .उस समय सूरज डूब रहा था कि उग रहा था पता नहीं . दीवाना ने जो बहुत सारे गीत गाए वे सब हमने रेडियों में सुन रखे थे सो देखने में बड़ा आनन्द आया . पर मन में तमाम सवाल  उथल-पुथल मचाए हुए थे , जो आज भी मन को गुदगुदा जाते हैं . जैसे कि हमारी पीछे वाली सीट पर बैठे लड़के को कैसे पता चला कि फिल्म में एक बूढ़ी औरत क्या कहने वाली है .क्योंकि लड़के ने जैसे ही कहा --हाय अल्ला , बूढ़ी माँ ने भी कहा –"हाय अल्ला ." 
उस लड़के को कैसे पता चला कि अब दीवाना पकड़ा जाएगा और जेल होगी .राजकुमारी ने जब मिर्च खाई और मुँह जलने पर पानी पानी चिल्लाने लगी तो पास बैठे लड़के ने कहा --"अरे जल्दी पानी में कूद जा." और आश्चर्य कि वह पानी में कूद भी गई .
उसने कैसे जान लिया कि वह चश्मे वाला आदमी ही हीरो का पिता है ? 
ये लोग कहाँ रहते हैं , क्या खाते हैं जो इतने गोरे और सुन्दर  हैं ?...और सबसे बड़ा अचरज यह कि दीवाना मुझे कैसे जानता है ? पहले तो मैंने उसे कभी नहीं देखा पर वह मुझे देखकर ही गा रहा था . "हमारी भी जय जय तुम्हारी भी जय जय...." मुस्करा भी रहा था कितनी प्यारी थी उसकी मुस्कान  ..

फिल्म का आदि अन्त कुछ समझ नही आया .न कहानी का सिर पैर समझ आया . पर कुछ सीन अभी तक दिमाग में बसे हैं ,पीतमपुर स्टेशन , नोटों भरा सूटकेस ,गुलाब का फूल , जेल ,कुछ गीत ,कुछ सूरतें और कुछ बातें याद रह गईं . वे सब हमारे साथ ही घर आगई और आंगन रसोई बैठक सब जगह फैल गई हवा की तरह . और हफ्तों महीनों तक हमारे इर्द-गिर्द घूमती रहीं . हमारा ज्यादा समय फिल्म की बातें करने में गुजरता था . किशोर भैया फिल्म के दृश्य और गीत-संगीत पर मुग्ध थे .वे अक्सर उस फिल्म के गीत गाते रहते . देवेन्द्र भैया उसके डायलॉग तोड़ मोड़कर बोलते रहते—जय जय... वायरलेस....ढाई लाख,..सूटकेस..लाल गुलाब ..कुतबमीनार ....
पर मैं मुग्ध थी दीवाना पर . मेरे मन को हर वक्त यही सवाल कुरेदे जा रहा था कि हीरो ने गाते गाते मुझे इतने अपनेपन से क्यों देखा .देखा ही नही मुस्कराया भी . क्या वह मुझे जानता था ? क्यों मुझे ही देखकर गा रहा था -– "आना ही होगा तुझे आना ही होगा... कोई किसी को इस तरह क्यों बुलाएगा ..मैं तो राजकुमारी जैसी नहीं हूँ पर तभी मुझे याद आया .मैंने कहीं सुन रखा था कि पसन्द आने के लिये सुन्दर होना जरूरी नहीं . इसलिये यकीन भी होगया कि जरूर दीवाना मेरे लिये गा रहा था . जब कोई किसी को बहुत अच्छा लगता है तभी तो उसके लिये इस तरह गाता है ...ऐसा यकीन कितना मोहक और रोमांचक होता है .”-मैं अबोध सी लड़की अपनी नजर में अचानक बड़ी और खूबसूरत होगई .
और हाल यह हुआ कि एक दस साल चार महीने की लड़की के दिल दिमाग में हर पल बस एक ही नाम था दीवाना .एक ही सूरत थी दीवाना  . एक ही गीत --आना ही होगा तुझे ...
बहुत ही खास और रोमांचक बात को अकेले पचाना बड़ा कठिन होता है . मुझसे भी नहीं पचाई जा रही थी . सो मैंने सारे सवाल देवेन्द्र भैया के सामने रखे . वह मेरा हमउम्र है . 
"हें !! .. सरासर झूठ.दीवाना तुझे देखकर गा रहा था यह हो ही नही सकता ."
"क्यों नहीं हो सकता ?"
"क्योंकि वह मुझे देख गा रहा था . एक दिन पिताजी ने नहीं बताया था एक आदमी एक बार में एक ही तरफ देख सकता है ? तू मुझे देख और साथ ही उस इमली के पेड़ को देख ...देख सकती है ? .तो पक्का दीवाना तुझे नहीं मुझे देख रहा था  ."
इस बात पर हम उलझ पड़े .
हमारा झगड़ा जब ताऊजी तक पहुँचा तो सुनकर पहले तो वे खूब हँसे .फिर उन्होंने  बताया कि जब कोई कैमरे की ओर देखकर बोलता या गाता है तब हममें से सभी को वह अपनी ओर ही देखता नजर आता है . दीवाना असल में कैमरे को देख रहा था .. फिर फिल्मों में लोग नहीं ,उनके चित्र होते हैं .यह तकनीक का कमाल है कि चित्र भी जीते जागते इन्सान की तरह हर तरह का कार्य करते दिखते हैं ..
इस और भी नई जानकारी ने पुरानी जानकारी साफ करदी .तब कहीं मैं उस स्वप्नलोक से बाहर निकली . बाद में जब 'गुड्डी' देखी तब मुझे खूब हंसी आई 'दीवाना' की याद करके .
लेकिन राजकपूर ( राज )आज भी मेरे प्रिय अभिनेता हैं . 'दीवाना' का तो अब ध्यान नहीं पर 'आवारा', 'अनाड़ी' , 'छलिया', 'श्री चार सौ बीस' , 'तीसरी कसम' ,'जागते रहो' , 'चोरी चोरी' ,'जिस देश में गंगा बहती है' मेरा नाम जोकर खानदोस्त आदि फिल्में जब भी देखने मिलतीं हैं मैं जरूर देखती हूँ . 

7 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (06-05-2020) को   "शराब पीयेगा तो ही जीयेगा इंडिया"   (चर्चा अंक-3893)    पर भी होगी। -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    -- 
    आप सब लोग अपने और अपनों के लिए घर में ही रहें।  
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 

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  2. वाह ! अति रोचक संस्मरण

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  3. गजब ‼️ मोहक ।
    मासुमियत से भरा सुंदर संस्मरण।

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  4. बहुत सुंदर संस्मरण दीदी। मुझे भी याद है कि बचपन में मैं शोले फिल्म देखकर आई थी तो सपने में मुझे डाकू ही डाकू नजर आते थे कई दिनों तक और मैं चौंककर जाग जाती और रोने लगती....फिर कब उस सपने से पीछा छूटा, याद नहीं !

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  5. कायस्थ और कलम चोली दामन का साथ इसे चरितार्थ किया है प्रिय बहिन गिरिजा ने इनके गद्य पद्य गिरिजा कुलश्रेष्ठ के नाम से प्रकाशित होते हैं बचपन की यादें जो जीवन का विशेष समय उनका सजीव चित्रण अविस्मर्णीय है

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