आप सबको होली की बहुत--बहुत बधाई ।
इस बार हमारे शहर में तो होली बडी फीकी-फीकी सी रही । न रंग--गुलाल से सजे बाजार, न उमंग भरे छींटे न ही मस्ती भरी बौछारें । सुबह-सुबह रोज नीम की सूनी होती टहनियों में ही बैठ कर कोयल भले ही कुहू-कुहू की टेर लगाती रही कि होली आने वाली है और कहीं भूले-भटके से रह गये कचनार की गुलाबी-जामनी फूलों लदीं टहनियाँ भले ही मन में एक अनकही सी वेदना के साथ-साथ उमंगों की हिलोरें जगाने के जी-तोड प्रयास करती रही , स्कूल में विद्यार्थी भले ही बॅालपेन से अपने साथियों की शर्ट पर लकीरें खींच कर मासूम से विवाद सामने लाते हुए याद दिलाते रहे कि होली आ ही गई है ।
लेकिन होली आई कहाँ ..।
रिश्तों में दिनोंदिन आती दूरियों , मोल-तोल और व्यापार-बुद्धि के चलते जीवन के रंग तो वैसे ही फीके होरहे हैं ,उस पर आजकल शहर के सौंन्दर्यीकरण के लिये , सडकों के चौडीकरण के लिये निर्ममता से मकान गिराए जारहे हैं ,दुकानें तोडी जारहीं हैं । सरकारी आदेश है कि सन् 1940 के नक्शे के आधार पर बने मकानों को ही वैध मान कर अतिक्रमण को हटाया जाय और सडकों का चौडीकरण किया जाय । गनीमत है कि मकानों को ही अवैध माना गया है जनसंख्या को नही वरना क्या होता । लोगों ने अतिक्रमण हटाने के नाम पर हाय-तोबा मचाई पर न्यायालय का सख्त आदेश के चलते अब लोग खुद ही अपने मकानों को तोड रहे हैं । वरना थ्रीडी मशीन किसी आतंकी हमलावर की तरह पल भर में इमारतों को धराशायी करने तैयार बैठी है । इस तोड-फोड में सडक ही नही , गली-मोहल्ला ही नही , या कि घर-आँगन ही नही, तन मन भी जैसे मलबे से पट गए हैं सारे रंग धूसर से हो गए हैं । होली मनाने की औपचारिकता के लिये जहाँ भी चार लोग जुड रहे हैं लौट--फिर कर तोड-फोड के मुद्दे पर आजाते हैं कि जब मकान बन रहे थे तब क्या निगम वाले सो रहे थे । कि आदमी कैसे--कैसे अपने लिये घर बनाता है । गरीब आदमी का तो मरना हो ही गया पर धन्धा चौपट होने से व्यापारियों का भी कम नुक्सान नही हुआ । देखना इस बार यह सरकार तो गिरेगी । मुख्य-मार्ग वाले घरों में गृहणियाँ गुझिया-मठरी बनाने की बजाय घर में बैठने की जगह बनाने की उलझन में उलझी रहीं । हर कोई कबीर के दोहे -माली आवत देख कर... में ,काल हमारी बार, की आशंका से त्रस्त हैं । जिस तरह लोगों ने इस बार होली मनाई है, मैंने भी बडी कोशिशों के बाद कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं बिखरे मकानों की तरह ही । पढ कर आप यदि मुझे कोसने लगें ,जैसे लोग नगर-निगम वालों को कोस रहे हैं, तो कोई अचम्भा नही ।
(1)
हे प्रिय ,
जिस तरह अतिक्रमण का आरोप लगा कर
जब देखो , तुम तोडते रहते हो
निर्ममता से हमारा मन
उसी तरह आजकल थ्रीडी मशीन ,
ताबडतोड तोडे जारही है
सडक वाले भवन ।
तुम्हारी तरह ही
वह नही सुनती किसी का हाहाकार
पल भर में ध्वस्त करती दरो-दीवार
उडाती गर्द-गुबार ।
जापान में तो मकान भूकम्प ने गिराए
सुनामी ने बहाए ।
बेवशी थी उस कहर को सहना ।
पर यहाँ तो मुश्किल हुआ रहना
अपने ही हाथों ,अपने घर
खुद ही गिराए जारहे हैं
शहर को सुन्दर बनाने के
सपने दिखाए जारहे हैं ।
बताओ तो कि ,
पलकों के नीचे बसतीं रहीं बस्तियाँ
तब कहाँ थीं ये हस्तियाँ ।
मैं तो हूँ तोड-फोड से त्रस्त
सामान समेटने में व्यस्त
तुम्हारे इस तर्क को समझने में
मुझे अभी लगेगा वक्त
कि जरूरी होता है ,विध्वंस
नये निर्माण के लिये..।
(2)
चारों ओर लगी है आग
कैसी होली , कैसा फाग ।
रिश्तों में जंजीर नही है
काँटा तो है पीर नही है
जहाँ भी देखो, जिसे भी देखो
हंगामा और भागमभाग ।
कैसी होली कैसा फाग ।
अतिक्रमण की भेंट चढे हैं
टूटे बिखरे भवन पडे हैं
किसना का मकान कहाँ है
बिसना की दुकान कहाँ है
ईंट-पत्थरों की ढेरी में
रंग भरे अरमान कहाँ हैं ।
रस्ते में कचनार खडा था ।
गुलमोहर का पेड अडा था
पिछले साल आम की टहनी
गुच्छ-गुच्छे बौर जडा था ।
काट गिराए सडक बनाने ।
कोलतार बेधडक बिछाने ।
चेहरे की रंगत सब देखें ,
देखे कोई न दिल के दाग
कैसी होली कैसा फाग ।
आस नही विश्वास नही है
फिर भी कहें विकास यही है ।
टुकडा भर ही हिस्से में है
कहने को आकाश वही है ।
मोल-तोल और लेन-देन में
हुआ बेसुरा राग-विहाग
कैसी होली कैसा फाग ।
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नहुत मार्मिक दृश्य अंकित कर दिया है ....आम जनता को परेशान कर सरकार क्या पाएगी नहीं मालूम ...
जवाब देंहटाएंदोनो रचनाये दिल के ज़ख्मो को उधेड रही हैं……………सच कहा आपने अब ये सरकार नही रहनी चाहिये ना जाने विकास के नाम पर और कितनी कुर्बानियां ले लेगी।
जवाब देंहटाएंहो सकता है कि अभी कुछ कष्ट झेलने पड़ रहे हों पर एक बार यह मलबा साफ हो जायेगा तो चौड़ी-चौड़ी सड़कों पर अगले बरस लोग खूब होली खेल सकेंगे कुछ त्याग के बाद ही फल मिलता है !
जवाब देंहटाएंकमाल की अभिव्यक्ति है।
जवाब देंहटाएंइस तोड़-फोड़ विभाग की कार्रवाई पर इतनी सशक्त, सरस और गेय रचना मैंने कभी नहीं पढी थी।
लेख काव्यमय तो है ही।
शुक्रिया ,मनोज जी ,संगीता जी वन्दना जी व अनीता जी । यह सही है कि कुछ कष्ट व त्याग के बाद ही फल मिलता है ।लोग इसे समझ भी रहे हैं । और ईंटों के ढेर में ही बैठ कर जलेबी समोसे बनाना ,पटिया पर ही नमकीन-बिस्किट या रंग-गुलाल सजाकर बेचना उनकी गहन आशावादिता को दर्शाता है फिर भी हालात से तो अनजान भी नही रहा जासकता न ।
जवाब देंहटाएंसंवेदनाओं को आप गहराई से महसूस करती हैं।
जवाब देंहटाएंदोनों गीत बहुत बढ़िया हैं।
दूसरा गीत ज्यादा अच्छा लगा-
रस्ते में कचनार खडा था ।
गुलमोहर का पेड अडा था
पिछले साल आम की टहनी
गुच्छ-गुच्छे बौर जडा था ।
चेहरे की रंगत सब देखें
देखे कोई न दिल के दाग
कैसी होली कैसा फाग ।
"मोल-तोल और लेन-देन में
जवाब देंहटाएंहुआ बेसुरा राग-विहाग
कैसी होली कैसा फाग ।"
बहुत गहरे और मार्मिक भाव व्यक्त किये हैं गिरिजा जी आपने । सरकारी नीतियां कब कैसा कहर ढाएं । केवल अतिक्रमण हटाएं वहां तक तो ठीक है पर अपनी ही नीतियों को बदलकर परेशान करना तो गलत है । यदि १९४० के बाद के निर्माण आज वैध नहीं हैं तो ७० साल तक क्या कर रहे थे । या तो बहुत ढील देते हैं या अति कठोर । नियमित नियंत्रण रखा जाए तो इस तरह की नौबत न आए ।
संवेदनशील रचना..बधाई.
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक अभिब्यक्ति|धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंआपकी अभिव्यक्ति अपना सन्देश देने में सफल रही है....
जवाब देंहटाएंहार्दिक शुभकामनायें आपको !