रविवार, 15 अप्रैल 2012

यह पगडण्डियों का जमाना है


"यार तुम्हारा पाठ्यक्रम अक्टूबर-नवम्बर तक कैसे पूरा हो जाता है "?
"पढाने से और कैसे ! मैं कोई पीरियड मिस नही करता । मेहनत करता हूँ मेहनत । समझे ।"
"तुम्हारा मतलब है कि मैं मेहनत नही करता ।"
"करते हो, लेकिन व्यर्थ एकदम बेकार ..।"
"वो कैसे ?" बताओ न यार । मुझे तो लगता है कि मैं सार्थक ही पढाता हूँ ।"
"क्या सार्थक पढाते हो ? जो पाठ्यक्रम में नही है उस पर अपना व विद्यार्थियों का समय खराब करते हो । नही ?"
"जैसे...?
"जैसे कि पाठ पठाते समय तुम शब्दार्थ, व्याख्या ,सन्धि ,समास,उपसर्ग ,प्रत्यय या कि बिन्दी व मात्राओं का सही प्रयोग बताने में लग जाते हो । या कि दो-दो दिन एक ही पाठ के पीछे पडे रहते हो । क्या जरूरत है बताने की कि रस निष्पत्ति क्या होती है ? कि उपमा व उत्प्रेक्षा में क्या अन्तर होता है । इतना समय नही होता मेरे भाई हमारे पास । गहराई में घुस जाओगे तो पाठ्यक्रम पूरा होगा कैसे ?"
"वह सब प्रसंगवश ही तो बताता हूँ । वैसे भी सन्धि-समास आदि तो हिन्दी के साथ चलते हैं इसलिये पाठ्यक्रम का ही हिस्सा हैं । तुम्ही बताओ अगर तुम्हें पता चले कि ग्यारहवीं का छात्र दिन को दीन लिख रहा है, गलत पढ रहा है याकि दीर्घ सन्धि तक नही जानता तो उसे नही बताओगे  ?"
"बिल्कुल नही । क्योंकि ऐसा करने का कोई लाभ नही है ."
"क्या हर काम केवल अपने लाभ के लिये करते हैं ? क्या जरूरी नही कि छात्र विषय को पूरी तरह आत्मसात् करले और इसमें हम उसकी मदद करें । छात्रों को कुछ सिखा सकें क्या यह भी लाभ नही है ?"
"तुम मदद करके लाभ ले रहे हो ना ? ...पर प्राचार्य की निगाह में तुम एक सुस्त व गैरजिम्मेदार शिक्षक हो । जो समय पर पाठ्यक्रम तक पूरा नही कर पाता । मेहनत भी करो और नाम भी न हो ऐसा काम किस मतलब का ।सोचो कि तुम्हें कभी बोर्ड की कक्षा क्यों नही दी जाती ? सो भैये ,जब चार कदम चलने से ही बात बनती है तो बीस कदम चलने की क्या जरूरत है । वैसे भी हमारे लिये पाठ्यक्रम और उसे पढाने का समय ,तय है । पर पाठ्यक्रम पूरा करने से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है परीक्षा परिणाम । शिक्षक व छात्र दोनों की योग्यता परीक्षा परिणाम से ही आँकी जाती है । सबका ध्यान केवल परीक्षा-परिणाम पर रहता है । और उसे पाने के लिये इतने विस्तार से जाना आवश्यक भी नही है ।बस कुछ इम्पार्टेंट प्रश्न रटवा दो । तमाम प्रकाशक इतनी सीरीज व गाइडें निकाल कर हमारी मदद कर ही रहे हैं। गाइड पकडाओ और फटाफट कोर्स पूरा करो । सब लोग ऐसा ही कर रहे हैं और देखलो उनका रिजल्ट । तुमसे बेहतर ही होता है । तो फिर क्या अटकी पडी है इतनी मगजपच्ची करने की ।"
"वो कैसे बेहतर होता है क्या तुम नही जानते ।"
"अब तुम इन कुतर्कों में ही पडे रहो । कोई तुम्हें ताज नही पहना रहा ! क्या तुमने परसाई जी के एक व्यंग्य में नही पढा कि ----अब..राजमार्गों पर तो झाडियाँ उग आईं हैं । उन पर कोई नही चलता । लोगों ने पगडण्डियों को ही राजमार्ग बना लिया है ..राजमार्ग के दरवाजे पर लोहे के भारी किवाड लगे हैं । जो उन्हें खोलना चाहते हैं....उनके कपालों से खून बह रहा .है....। तुम्हें खून बहाने का शौक है तो खूब बहाओ नही तो पतली गली से निकल जाओ दोस्त । मजे में रहोगे ।"


6 टिप्‍पणियां:

  1. शिक्षा पाठ्यक्रम से इतर भी होती है...एक अच्छे शिक्षक को उसकी पूरी समझ भी होती है।

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  2. शैक्षिक मूल्यों का पतन इसी तरह होता है ... सार्थक प्रस्तुति

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  3. शिक्षा के गिरते स्तर और उस पावन कर्त्तव्य की व्यावसायिकता पर करारा व्यंग्य है यह.. बहुत सुन्दर.. आज समंदर की लहरों पर तैरते हुए दूरियां नापना ही ज्ञान की कसौटी बन गया है.. गहरे डूबकर रत्न निकालने वालों को दुनिया मूर्ख कहती है!!

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  4. आज की शिक्षा प्रणाली पर तीखा व्यंग्य !

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  5. बहुत पैना, धारदार व्यंग्य... आज के हालात में ऐसे ही सशक्त लेखन की जरुरत है..... शायद कुछ जाग्रति आये...
    सादर
    मंजु

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