'समय के चित्रफलक पर ' श्री प्रकाश मिश्र जी का काव्य-संग्रह है । मेरा विश्वास है कि आप में से कई जानते भी हों कि ये स्व. श्री आनन्द मिश्र जी (चन्देरी का जौहर,और कलिंग आदि प्रबन्धकाव्यों के रचयिता ) के अनुज हैं और ग्वालियर के उन साहित्यकारों में से हैं जो देश भर में दूर-दूर तक अपनी कविताओं का परचम फहरा चुके हैं । यह बात अलग है ( अफसोसजनक भी )कि मैं उनसे दो वर्ष पहले ही मिली जब ध्रुवगाथा के लिये उनसे कुछ लिखवाना था । यों पहले भी एक-दो बार उनका काव्यपाठ सुना था पर केवल नाम से । तब उन्होंने भी मुझे अपना यह संग्रह दिया । इसे पढने से पहले मैं उन्हें केवल मंच का कवि समझती थी लेकिन पढकर जो कुछ पाया उसे आपके साथ बाँटना जरूरी लगा । यह उनकी कविता का पूरा मूल्यांकन तो नही है फिर भी इतना तो जरूर कि मैं उनकी कविता को काफी कुछ समझ पाई हूँ । ------------------------------------------------------------" चट्टान फोड कर उगे ,अंकुर की कथा लिख
अन्धों को दिखा रास्ता, गूँगों की व्यथा लिख.....
रोटी की तरह आग में सिकने के लिये लिख
बिकने के वास्ते नही ,लिखने के लिये लिख"......
ये पंक्तियाँ श्री प्रकाश मिश्र जी के काव्य-संग्रह 'समय के चित्र-फलक पर' (पृष्ठ 5 ) से ही उतारी गईं हैं । किसी प्रसिद्ध साहित्यकार ने उन्हें 'आदमकद 'कवि कहा है । उनके उच्च व विस्तृत भाव-लोक को देख कर मुझे भी यह शब्द पूर्ण उपयुक्त प्रतीत होता है । उन्होंने प्रभूत मात्रा में नही लिखा लेकिन जितना लिखा है ,कद को ऊँचाई देने के लिये पर्याप्त है ।
जब कविता( बिकने का प्रलोभन त्याग कर ) सिर्फ लिखने के लिए लिखी जाती है , और पूरी तरह जीते हुए लिखी जाती है तब वह नदी की तरह बहती है । अंकुर की तरह फूटती है और उजाले की तरह फैलती है । कविता केवल अपनी बात कहती है । बात, जो अन्तर--मंथन से बाहर निकलती है क्योंकि उसका निकलना अनिवार्य होजाता है । ऐसी कविता अपने आपको सुनाने के लिये रची जाती है किसी को लुभाने के लिये नही । वह प्रक्रिया तो कविता पढ-सुनकर स्वतः ही होजाती है
आदरणीय श्री प्रकाश मिश्र जी की कविताएं सुनते व पढते हुए ऐसा ही अनुभव होता है । वे कविता को कण-कण जीते हुए खुद को ही सुनाने के लिये लिखते हैं । उनके शब्द साँसों से निकलते हुए और चट्टान फोड कर निकले हुए अंकुर से प्रतीत होते हैं । उनकी कविताएं जैसे धरती में दूर तक जडें फैलाए हुए मजबूत दरख्त हैं । दरख्त ,जो धरती की नम उर्वरता और सृजनात्मकता के प्रतीक होते हैं ।
कोई रचनाकार जब पूरे परिवेश को साथ लेकर चलता है ,अतीत के स्पर्श की अनुभूतियाँ समेटे वर्त्तमान की धरती पर खडा, भविष्य को आँक लेता है तब वह समय के चित्र-फलक पर एक कालजयी चित्रांकन करता है । मिश्र जी की कविताओं में ऐसा ही कुछ देखने मिलता ङै । उनकी अनुभूतियों में 'दिनकर' ,बच्चन, भवानीप्रसाद मिश्र , इकबाल आदि का आकाश है तो कबीर और निराला की ठोस धरती भी है । उनकी कविता का मूल स्वर प्रगतिवादी है । आराम और सुविधाएं उन्हें रास नही आतीं । ठहरी हुई व्यवस्था के वे विरोधी हैं । उनकी कविता प्रकृति के सौन्दर्य पर निहाल होने की बजाय रेशा-रेशा हुई रामदीन की माँ के श्वेत केशों में आत्मीयता के साथ रच-बस जाती है---
दिन भर भरे रजाई गद्दे ,डोरे टाँक रही है
कर्मठ हाथों से भविष्य के सपने आँक रही है
सारा जीवन चुभती हुई सुई रामदीन की माँ....।" ( पृ.52)
और गंगाराम की दशा से करुणा विगलित होजाती है---
"अ आ इ ई के जमघट में खुशियाँ बाँटरहे हैं ,
बीडी पीते हुए जाग कर ,रातें काट रहे हैं
शाला के सनमुख बेचें गुब्बारे गंगाराम
भटक रहे हैं गली-गली बनजारे गंगाराम ।" (पृ53)
ऐसी ही अनेक कविताओं से सम्पन्न है-- काव्य-संग्रह समय के चित्र फलक पर । ' दरख्त ' 'तबला बजा रहे हैं', 'कहीं तुम', 'संवेदना-बोध', 'मेघ-प्रतीक्षा ',अजगर' रामदीन की माँ ,आदि अधिकांश कविताएं प्रगतिवादी धरती की संवेदना से ही उगी और फैली-फलीं हैं, यही नही उनकी गजलें भी उर्दू की पारम्परिक सीमाओं के पार जाकर दुष्यन्त कुमार और अदमगोंडवी की दिशा में ही अपनी राह बनाती हैं । दृढ विश्वास के साथ । कुछ उदाहरण देखें---
"नदियों के होंठ सूखे हैं,समन्दर नहीं रहे
बँगले हैं, कोठियाँ हैं मगर घर नही रहे ।
..................
लोगों ने शीशदान दिये मुल्क के लिये
अब टोपियाँ बहुत हैं मगर सर नही रहे ।"( पृ.31)
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"कितनी कटी हराम में ,कितनी हलाल है
ये जिन्दगी भी जैसे गणित का सवाल है ।
लिक्खेगा झूठ देगा सदाकत का फैसला
जादू है उसके शब्द कलम भी कमाल है ।
.........
जो गिर गया था रेल से अनजान ही तो था
मैं बहुत दूर था ,मुझे इसका मलाल है ।"...( पृ34)
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"लडाई में कहीं भी कार्ड क्रैडिट के नही चलते
यहाँ केवल भुजाएं और सीना काम आता है ।
तुम्हारी मंजिलें हैं सिर्फ मेहनत ,वक्त की कीमत
अगर छत पर पहुँचना हो तो जीना काम आता है ।"( पृ 36)
मिश्र जी की गजल भी महलों से निकल गाँवों की धूल में मचलती है । फुटपाथ पर सोए बचपन को देख पिघलती है । जब कवि ने लिखा कि ---"टूट कर गिर गया है संभालो उसे ,वो अभी आदमी है बचालो उसे " या ---"भटका देंगी तुम्हें किताबें ,पढने में मत वक्त गँवाओ
बात मत करो बुद्धि वाली भेडों की रेवड होजाओ । "....,वे बुद्धिवादिता का ढिंढोरा पीटने की बजाय इन्सानियत के पक्ष में प्रखरता से खडे दिखाई देते हैं ।
"..............
ये सावन का महीना भी गरीबों को मुसीबत है
बुझे चूल्हे से खिडकी और छप्पर बात करते हैं ...
लहू अय्याशियों के वास्ते चूसा गया जिनका
परिंदे खोगए ,टूटे हुए पर बात करते हैं ।
अदब वाली सभाओं का असल में कायदा ये है
नदी खामोश रहती है समन्दर बात करते हैं ।"
मिश्र जी संघर्ष के कवि हैं ,आराम के नही । अभावों और विसंगतियों के कवि हैं ,प्रेम के नही । उन्हें रोना नही ,मुसीबतों को लताडना पसन्द है । उमडते बादलों को देख उन्हें किसी रूपसी का वियोग या प्रेमी का उद्दीपन नही ,सूखा पीडित कर्जदार किसान की राहत दिखाई देती है । इनकी प्रकृति भी (आलम्बन रूप में ही) प्रगतिवादी बाना पहने हुए है । कहीं उसका उद्दीपक रूप है भी तो वह क्षोभ और विद्रोह को उभारने के लिये है । अन्तर की आग का शमन करने में बारिश की बूँदें अक्षम हैं । खाली पेट चाँद-सितारों की चर्चा व्यर्थ है । बादल नेताओं की तरह झूठे और मक्कार हैं प्यासे खेतों को खाली आश्वासन देते हैं । जब मिश्र जी की संवेदना धूप के पक्ष में होती है ---"छाया के सेठ हैं निठुर कैसे ,मुट्ठी भर अन्न के लिये कहाँ-कहाँ लडती है धूप.." तब--निराला जी की 'कुकरमुत्ता' याद आती है । उपमानों का सर्वांग उलट-फेर । गुप्त जी ने प्रकृति को इसी सन्दर्भ में 'अति-आत्मीया' कहा है । हृदय जब रोष व असन्तोष से भरा हो तो कहाँ रमणीयता और कहाँ मादकता । चट्टानों में लहूलुहान होते अहसासों को उपमान कैसे मोहक लगेंगे भला । बादल के ये बिम्ब इस बात के जीवन्त गवाह हैं---
"उमड-घुमड मस्ती में झूमें ,
नीलगगन की सडकों पर घूमें
कुछ पल भटके उच्छ्रंखल युवाओं से
बरस जाते दर्द की दवाओं से
बहुचर्चित चरित्रों जैसे ,
आधुनिक कला के चित्रों जैसे "...(60)
"नक्सलवादी धूप" को कैसे उपमान दिये हैं कवि ने देखिये---
वर्तमान युवा असन्तोष सा
दहकने लगा सारा आँगन
दल बदलू नेता जैसा है
छाया का अस्थिर भाषण ....। "(70)
मिश्र जी का काव्य-फलक निश्चित ही बहुत विस्तृत है । उसमें जीवन-जगत की तमाम विसंगतियाँ ,अभाव ,क्लान्ति साथ ही उनके प्रति फटकार भी समाई हुई है । वे आदमी के 'कोल्हू का बैल' बन जाने का तीव्र विरोध करते हैं । वे मरे हुए सपनों का उत्सव नही मनाते । उन्हें फूल बन कर महकने की बजाए अतिचारियों के लिये शूल बनना पसन्द है । सच तो यह है कि उनकी कविता वह कविता है जो "खण्डहरों से निकल कर" आई है । जिसे लिखने के लिये "दिल का लहू दरकार "होता है ।
"हमारी आँख के आँसू तुम्हारी आँख से बरसें,
अगर मिल जाए ये दौलत तो फिर खोई नही जाती "--श्री मिश्र जी की रचनाएं उन्ही से सुन कर यही दौलत मिल जाती है । वे चौंका देने जैसा कुछ लिख कर चर्चित होने की आकांक्षा नही रखते ।
श्री प्रकाश मिश्र जी को सुनने का सुअवसर मुझे एक-दो बार मिला तब निश्चित ही उनकी ओजमय प्रस्तुति ,मेघ-गर्जन सी बुलन्द आवाज और झरने की तरह आन्दोलित और प्रवाहित होती कविता मुझे सबसे अलग लगी थी । प्रायः ऐसा देखा गया है कि प्रस्तुति ही सामान्य कविता को विशिष्ट और विशिष्ट कविता को सामान्य भी बना देती है । लेकिन एक सार्थक, सहज लेकिन गंभीर रचना को उतनी ही प्रभावोत्पादकता के साथ सुनाना श्री मिश्र जी को सबसे अलग बनाता है । वे जब कविता सुनाते हैं तब लगता है कि कविता गले से नही बल्कि कहीं बहुत गहरे अन्तर को खरोंचती हुई ,तंत्रिकाओं को उद्वेलित करती हुई निकल रही है । वे कहते हैं कि "कविता को खुद बोलना चाहिये ।"....तो उनकी कविता बोल ही नही रही है चीख रही है ..। ऐसी चीख जो केवल हृदय को सुनाई दे । और एक जोश ,एक संवेदना और एक तप्ति ( कुछ सार्थक सुन पाने की ) में निमग्न करदे । अभिव्यक्ति की व्यग्रता मिश्र जी में अभी भी स्पष्ट देखी जासकती है । यही है उनके काव्य की प्रासंगिकता और सार्थकता का प्रमाण ।
जब मैंने उनका यह काव्य-संग्रह पढा और अपनी रचनाओं के सन्दर्भ में चार-छह बार उनके घर जाने का सौभाग्य मिला तब मेरे सामने और भी नए क्षितिज खुले । सबसे महत्त्वपूर्ण यह कि श्री मिश्र जी को कवि के रूप में और एक व्यक्ति के रूप में जानना अलग नही है । उनकी बातों में ,विचार एवं व्यवहार में बिल्कुल वही सच्चाई है जो उनकी रचनाओं में दिखती है । पहले ही कहा जा चुका है कि वे कविताएं अपने आपको सुनाने के लिये लिखते है यही कारण हैं कि अपनी रचनाओं को सहेजने की सजगता व तत्परता नही रही । अचानक तुडे-मुडे कागज पर लिखी ,किसी पुरानी किताब में दबी मिली कोई रचना उन्हें चौंका देती है----"अरे इसकी तो मुझे याद ही नही थी।"
संभव है कि इस तरह कई रचनाएं अँधेरे में खो चुकीं हों । मुझे विस्मय हुआ कि उनकी बहुचर्चित और लोकप्रिय कविताएं ---ताजमहल, बम्बई के लावारिस बच्चे , जी हाँ हुजूर, प्लेटफार्म आदि इस संग्रह में हैं ही नही । बल्कि वे कहीं भी लिपिबद्ध नही हैं । श्रोताओं के आग्रह पर वे मंच से इतनी बार सुनाई गईं हैं कि कंठस्थ होगईं हैं । मैंने उन्हें लिपिबद्ध कराने का आग्रह किया ।
मेरा सौभाग्य है कि पितृतुल्य आदरणीय श्री मिश्र जी के पास बैठ कर मैं उनसे कई सुन्दर और प्रेरक प्रसंग सुन सकी हूँ । उनको पढना और सुनना वास्तव में सच्ची कविता और सच्चे रचनाकार से मिलना है ।
भावों का दहकता काव्य..परिचय का आभार।
जवाब देंहटाएंवाह आपके माध्यम से मिश्र जी को जानकर बेहद सुखद अनुभूति हुयी और उनकी लेखनी तो सच मे जादूभरी है और सोच का फ़लक बेहद व्यापक …………आभार
जवाब देंहटाएंरोटी की तरह आग में सिकने के लिये लिख
जवाब देंहटाएंबिकने के वास्ते नही ,लिखने के लिये लिख"...
जबरदस्त ... पबुत ही प्रभावी कलम है ... शोला उगलती ... आपने जो भी छंद लिखे हैं यहाँ एक अलग तरह की अनुभूतो देते हैं ... नमन है मेरा मिश्र जी को ...
बहुत ही सुन्दर समीक्षा
जवाब देंहटाएंनदियों के होंठ सूखे हैं,समन्दर नहीं रहे
बँगले हैं, कोठियाँ हैं मगर घर नही रहे
सच में दिल तक उतरती है आदरणीय श्री मिश्र जी की रचनाएं
उनको सादर नमन
आपका बहुत बहुत आभार
सादर !
bahut badhiya
जवाब देंहटाएंलोगों ने शीशदान दिये मुल्क के लिये
जवाब देंहटाएंअब टोपियाँ बहुत हैं मगर सर नही रहे ।"..........श्री प्रकाश जी मिश्र के बाबत आपकी बेजोड़ समीक्षा से जो कुछ जानने को मिला, पढ़ते हुए लगा कि हम कितने बेवकूफ हैं जो ऐसे लोगों को ठीक से नहीं जानते। अत्यन्त प्रभावोत्पादक समीक्षा कविता संग्रह की।
श्री प्रकाश जी को मैंने भी काव्य गोष्ठियों में सुना है... उच्च कोटि के कवि हैं श्री प्रकाश जी....
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर!!
जवाब देंहटाएंश्री प्रकाश मिश्र जी से परिचय करवाने का बहुत बहुत धन्यवाद आपका!!बहुत पसंद आई उनके काव्य संग्रह पर आपका लिखा ये लेख!
आदरेया श्रीप्रकाश जी के परिचय पर आधारित आपका यह लेख 'निर्झर टाइम्स' पर 'रचनाशीलता की पहुंच कहाँ तक?' में लिंक किया गया है।
जवाब देंहटाएंआपकी अमूल्य प्रतिक्रिया http:/nirjar-times.blogspot.com पर सादर आमंत्रित है।
सादर
प्रकाश जी की हकीकत से रूबरू रचनाएँ,पहली बार आपके माध्यम से उनको जानकर और चंद पंक्तियाँ पढ़कर बहुत अच्छी अनुभूति हुयी |
जवाब देंहटाएं“सफल होना कोई बडो का खेल नही बाबू मोशाय ! यह बच्चों का खेल हैं”!{सचित्र}
“जिंदगी {आपसे कुछ कह रही हैं ....}