मंगलवार, 24 जून 2014

शायद...

हर ज़ख्म को सहेजा,
उम्मीद में कि कुछ भी,
आहों से फूट निकले 
शायद कि गीत हो ।

बाज़ार में सडक पर 

जो भी मिला विहँसकर 
हमने उसे पुकारा,
शायद कि मीत हो ।

अपनों के रूठने पर ,

कुछ पथ में छूटने पर
मानी है हार , उसमें 
शायद कि जीत हो ।

अन्तर खरोंच उमडी 

जो आँसुओं की धारा 
हमने कभी न रोकी 
शायद कि प्रीति हो ।

अब टूटती है डोरी 

बिखरी किताब कोरी 
माना है ज़िन्दगी की 
शायद ये रीति हो ।
(2006)

मंगलवार, 17 जून 2014

वनवास हुए हम

आखिरी पल में जीने की आस हुए हम ।
धुँधलाए नयनों की प्यास हुए हम ।

सौतेली माँ सी रही जिन्दगी 
इसलिये उम्रभर का वनवास हुए हम ।

हमें महकने खिलने की चाहत तो थी 
मगर रेशा-रेशा कपास हुए हम ।

रही लहलहाने की फितरत कहाँ 
पठारों पे सूखी सी घास हुए हम ।

गुजर जाएंगे गुल खिलाए बिना 
बियाबान मरु का मधुमास हुए हम ।

न देखा न जाना पर माना उन्हें 
कहा सबने अन्धा विश्वास हुए हम ।

बरसने लगें कब किसे है खबर 
उमडते पावस का आकाश हुए हम  ।
(1997)

रविवार, 1 जून 2014

कितने पास, कितने दूर !



"आप कहाँ से हैं ?"
परिचय के बिना पास बैठा व्यक्ति भी कितना दूर होता है ,पार्क में बैठी उस अधेड़ उम्र की महिला ने उस दिन यही महसूस किया जब पास ही बेंच पर बैठी युवती ने उसकी ओर एक बार भी नही देखा जबकि कस्बाई परिवेश से आई वह महिला युवती से परिचय के लिये काफी उत्सुक थी। एक तो उसके लिये यह शहर नया ही था । फिर साथ बैठे दो व्यक्ति एक दूसरे से बात न करें ,खासतौर पर जबकि वे महिलाएं हों , यह स्वीकार कर लेने वाली बात नही है ।
 लेकिन युवती का ध्यान सिर्फ अपने मोबाइल फोन पर था और आधुनिक शिष्टाचार की दृष्टि से  उस अपरिचित महिला का इस तरह बात करना अनावश्यक ही नही अशिष्ट भी कहा जासकता था । जींस-टाप पहने वह युवती जो 'वॉक' के बाद कुछ देर के लिये बेंच पर बैठ गई थी, काफी खूबसूरत थी। उतनी ही निरपेक्ष भी । लेकिन महिला का मन नही माना और पूछ ही लिया –
आप यहीँ की हैं या फिर ...। वैसे कहाँ से हैं ?”
"यूपी से ।"--युवती ने संक्षिप्त उत्तर देते हुए कन्धों पर झूलते बालों को समेटकर जूड़ा बनाया और अगले ही पल उँगलियाँ मोबाइल पर सरकने लगीं । वह एक अनजान और पुराने विचारों की लगने वाली महिला से बात करने जरा भी उत्सुक नही थी । लेकिन उस सवाल का कारण जानने की इच्छावश पूछा----" क्यों ?"  
"नही ऐसे ही पूछा है ।--महिला एक पल के लिये झिझकी । यूपी भर कह देने से क्या पता चलता है । परिचय हो तो फिर इतना अधूरा सा क्यों हो?
"यूपी में कौनसी जगह...?"
"आगरा "---युवती ने बेमन ही झटके के साथ जबाब दिया जैसे वह उसका आखिरी संवाद हो। 
महिला को लगा जैसे यह सूचना कोई बहुत दूर से दे रहा हो लेकिन कुछ देर बाद जब युवती ने पलट कर पूछा--"और आप ?" तो महिला को वह आवाज पास आती हुई प्रतीत हुई । उत्साहित होकर बोली- 
"मैं शिवपुरी से यहाँ बेटी के पास आई हूँ।" और फिर विस्तार से बताने लगी--"बेटी इंजीनियर है । अभी तीन-चार महीने पहले ही नौकरी लगी है ।यही एक बेटी है । बडे शहर में पहली बार आई है । चिन्ता तो होती है न । आप भी सर्विस करती होंगी ?"
"नही मेरे हसबैंड । वे भी इंजीनियर हैं ।"
"हसबैंड ? यानी यह शादीशुदा है?"---महिला चकित हुई---"आजकल पहनावे और रंग-ढंग से पता ही नही चलता कि कोई महिला लड़की है या औरत । विवाहिता है या कुँवारी । न बिन्दी न चूड़ी । न बिछुआ । बहुत हुआ तो माथे के ऊपर बालों में लाल लकीर खींचली बस । सब समय का असर है ।"   
" कौनसी कम्पनी में हैं आपके मिस्टर ?"
"विप्रो में ।"
"अरे ,विप्रो में तो मेरी ममेरी बहिन का बेटा भी है।
"होगा..। यहाँ बाहर से ज्यादातर इंजीनियर ही आते हैं।"
"बहुत बड़ा शहर है ।"--महिला अपने आप से कहने लगी---"पता नही कहाँ रहता होगा । जीजी से पता ले आती तो उससे भी मिल लेती ।"
युवती ने बात को जैसे सुना ही नही । पर महिला ने बोलना जारी रखा।
"आप यहाँ कहाँ रहती हैं ?"
"आज़ाद नगर में ।"
"अरे मेरी बेटी भी तो आज़ाद नगर में ही है । आप यहीं रहतीं हैं तो आपने अल्पना अपार्टमेंट तो देखा होगा ।"
"हाँ  ?"--अब युवती कुछ जाग्रत हुई ।---"मैं भी वहीं रहती हूँ ?"
"अर्..रे वाह , फिर तो हम पडोसनें हुईं ।"--महिला एकदम चमत्कृत सी होगई--  
" पर आपको वहाँ कभी देखा नही ।"
"हाँ वो...एक तो दूसरी लिफ्ट से आना-जाना होता है फिर....।" युवती अब भी बातों में विशेष रुचि लेती नही लग रही थी ।
"फिर ! दरवाजे भी हमेशा बन्द रहते हैं। "--महिला ने हँसकर बात पूरी की। इसके बाद दोनों साथ-साथ आईं । युवती ने महिला को शिष्टाचारवश एक कप चाय पीने का निमन्त्रण दिया तो महिला बिना किसी औपचारिकता के सम्मोहित सी उसके पीछे चली गई । कालबेल दबाने के बाद दरवाजा खोलकर जो युवक सामने आया तो सचमुच एक चमत्कार सा हुआ । वह कुछ पहचानने की कोशिश करने के बाद चकित हुआ बोला--
"अरे ,मौसी आप यहाँ कैसे ?"
" ये लो ..बगल में छोरा ,नगर में ढिंढोरा ..।---उस महिला ने युवती की ओर आश्चर्य और खुशी के अतिरेक के साथ देखा और चहककर कहा---बेटी ,यही तो अभिषेक है। कुसमजीजी का बेटा ।"--
अगले पल वह महिला के पैरों में झुक गया । युवती भी ।
"यहाँ रीतिका आगई है न । कुसमजीजी से तेरा पता और नम्बर लेना भूल गई बेटा । पर तू इतने पास होगा यह तो कमाल होगया । बडी आसानी से मुझे बहू भी मिल गई ।"


महिला खुशी से विह्वल होकर कहती रही---" लेकिन अगर पार्क में मैं बातचीत की कोशिश न करती तो इतने पास रहकर भी शायद तुम लोग दूर ही रहते । नही ?"