हर ज़ख्म को सहेजा,
उम्मीद में कि कुछ भी,
आहों से फूट निकले
शायद कि गीत हो ।
बाज़ार में सडक पर
जो भी मिला विहँसकर
हमने उसे पुकारा,
शायद कि मीत हो ।
अपनों के रूठने पर ,
कुछ पथ में छूटने पर
मानी है हार , उसमें
शायद कि जीत हो ।
अन्तर खरोंच उमडी
जो आँसुओं की धारा
हमने कभी न रोकी
शायद कि प्रीति हो ।
अब टूटती है डोरी
बिखरी किताब कोरी
माना है ज़िन्दगी की
शायद ये रीति हो ।
(2006)
उम्मीद में कि कुछ भी,
आहों से फूट निकले
शायद कि गीत हो ।
बाज़ार में सडक पर
जो भी मिला विहँसकर
हमने उसे पुकारा,
शायद कि मीत हो ।
अपनों के रूठने पर ,
कुछ पथ में छूटने पर
मानी है हार , उसमें
शायद कि जीत हो ।
अन्तर खरोंच उमडी
जो आँसुओं की धारा
हमने कभी न रोकी
शायद कि प्रीति हो ।
अब टूटती है डोरी
बिखरी किताब कोरी
माना है ज़िन्दगी की
शायद ये रीति हो ।
(2006)
अब गीत बहुत कम पढ़ने को मिलते हैं। सुंदर गीत.. आपके अनुभवों की आंच भी है इसमें और जीवन का मर्म..
जवाब देंहटाएंइसी भ्रम में आदमी जिए चले जाता है..
जवाब देंहटाएंआशा, उम्मीद, अपेक्षाएँ यह सब अंतत: विषाद को जन्म देती हैं... मेरा व्यक्तिगत अनुभव यही रहा है कि ज़ख़्मों को गीत की आशा में सहेजा तो तकलीफ़ मिली, किसी ने हाथ भी न मिलाया जिससे तपाक से हँसकर गले मिला, कई लोगों से जानबूझकर हार मान ली कि यही जीत होगी, अंतस के रूदन को भी किसी गीत की प्रत्याशा में सहेजा - लेकिन सब व्यर्थ, सब दु:ख देने वाला. अंत में प्रभु की बात याद आई कि हमें सुख और दु:ख में समभाव बनाए रखना है. न दु:ख से विचलित होना, न सुख से आह्लादित.
जवाब देंहटाएंयह रचना भी बहुत गहरा प्रभाव छोड़ती है, दीदी! सरल शब्दों में गहरी बात कहती सी!!
वाह: लाजवाब रचना..आभार गिरिजा जी...
जवाब देंहटाएंशायद की कल्पना ही मन में आशा निराशा के भाव पल्लवित करती है ...
जवाब देंहटाएंबहुरत ही सुन्दर गीत ... मर्म को शूते हुए बंध ...
sundar...bahut hi sundar geet !!
जवाब देंहटाएंजीवन का सही नजारा प्रस्तुत किया है इस गीत के माध्यम से।
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