यह सच है कि जहाँ बचपन व्यतीत होता है वहाँ से एक अटूट लगाव होता है लेकिन उस घर में मेरा बचपन नही बीता । छोटे भाई ने आने में ऐसी जल्दबाजी दिखाई कि मुझे माँ की गोद और अपना जन्मगृह छोड़कर नानी की शरण लेनी पड़ी । इस तरह बचपन ननिहाल बड़बारी ,बानमोर रामपुर आदि कई गाँवों में टुकड़ा-टुकड़ा गुजरा। ये सभी स्थान मेरी यादों में तो हैं लेकिन उस घर की याद व अनुभूतियाँ कभी अलग होती ही नही हैं।
मिट्टी के कच्चे घरोंदों वाले उस घर में हालांकि खास सुविधाएं नही हैं । कभी प्रतिष्ठा का पर्याय रहा वह घर ,अब जर्जर खपरैल , टुकडा-टुकडा गिरती दीवारों और विपन्नता का प्रतीक बन गया है लेकिन उसमें एक जादू है जो आज भी बरकरार है और जो मुझे खींचता है . यही नहीं खुश रहने की एक जो अभावों और समस्याओं के बीच भी सबको हँसने और उन्मुक्त रहने की दुर्लभ प्रवृत्ति भी बनाए हुए है . मैंने देखा है कि जब सब लोग मिलते हैं तो सिर्फ उन्मुक्त होकर ठहाके लगाते हैं , गीत गाते हैं . मैं मानती हूँ कि अगर आपको खुलकर हँसना आता है तो चिन्ताएं आपसे दूर खड़ी ताकती रहेंगी . निश्चिन्त रहने का यह गुण दुर्लभ है और यह सम्पन्नता से उत्पन्न नहीं होता .
मैं अपने पैतृक गाँव मामचौन (मुरैना) की बात कर रही हूँ, जहाँ मेरा जन्म हुआ। जन्म के एक-डेढ़ साल और छठवीं-सातवीं के दो वर्षों के अलावा मुझे वहाँ रहने का अवसर नही मिला। अभी पाँच वर्ष बाद गई ( रात तो लगभग बीस साल बाद बिताई) तो देखा घर की हालत और भी बदतर होगई है।
छोटे ताऊजी दो माह पहले 11 मई के दिन सबको अलविदा कह ही गए।
आँगन और दीवारें आँसू बहाती हुई सी प्रतीत हुईं ,लेकिन मूँज की रस्सी से बुनी हुई खटिया और बडी जिया ( मौसी ,ताई भी )के हाथों की बनाई दरी पर लेटते हुए समय के इस अन्तराल की जरा सी भी अनुभूति नही हुई . लगा जैसे कि मैं सदा से ही वहाँ रही हूँ हर मौसम और ऋतु को जीते हुए ।
विगत बीस सालों में हुए परिवर्तन बात करें तो काफी कुछ बदल गया है। अब गाँव तक पक्की सड़क है । दो तीन बसें चलती हैं। मुझे बचपन के दिनों की याद है जब आवागमन का कोई साधन नही था ,तब हम लोग नहर के किनारे ( चम्बल निचली मुख्य नहर ) पैदल ही आते जाते थे। (ननिहाल से मेरा पैतृक गाँव लगभग नौ-दस किमी है।) नहर पर बने पुलों को गिनते हुए कि यह पहाड़गढ़ वाला पुल है फिर धूरकूड़ा का पुल ,अब सगौरिया का पुल आगया आगे कोंड़ा और फिर मामचौन। चलते-चलते हम बच्चे भगवान से किसी वाहन के आने की प्रार्थना करते थे और कभी संयोग से कोई बैलगाड़ी या जीप निकलती और उसका दयालु चालक हमारे कुम्हलाए चेहरे देख बिठा लेता तो हमें ईश्वर के होने का पक्का विश्वास होजाता था ।
अब बस से बीस-पच्चीस मिनट में ही गाँव में पहुँच जाते हैं। सचमुच आवागमन के साधनों का विकास क्षेत्र के विकास की पहली आवश्यकता होती है।
हमारे घर के आसपास लगभग सभी मकान पक्के और सर्वसुविधायुक्त बन चुके हैं । खरंजा ( गली का फर्श ) तह पर तह इतनी बार बन चुका है कि गली हमारे घर की देहरी से कुछ ही नीची रह गई है । मुझे याद है कि गली से घर की बाहरी देहरी और चबूतरा इतना ऊँचा था कि उस पर बच्चे नही चढ़ पाते थे। गली से पौर के दरवाजे तक तक पाँच-छह सीढ़ियाँ थीं । विकास की यही गति रही तो एक दिन गली घर से ऊँची हो जाएगी।
लेकिन विकास की दौड़ में , स्वार्थ व धनलिप्सा बढ़ने के चलते कुछ बदलाव बहुत ही अखरने वाले भी हैं । जो सबसे बुरी बात लगी वह थी पेड़ों की कमी । सबसे अधिक अखरती है इमली के दो बड़े पेड़ों की कटाई की जो गाँव की पहचान दूर से ही कराते थे। मुझे याद है इमली के पेड़ों की घनी छाँव तले माध्यमिक विद्यालय चलता था जिसमें मैं भी दो वर्ष पढ़ी थी । सावन के महीने में इमली की मजबूत शाखाओं में कितने ही झूले डाले जाते थे । सारा वातावरण सुरीली मल्हारों से गूँज उठा था । मेरी दादी बहुत अच्छा गातीं थीं । हर ठिक-त्यौहार के गीत उन्हें आते थे । पर थीं बड़ी अभिमानिनी। बड़ी मनुहारों के बाद ही वे कोई गीत सुनातीं थीं वह भी अधूरा । उन्होंने किसी को अपने गीत नही दिये । मेरी माँ ने जरूर कुछ गीत सीख लिये थे जिनमें से सावन के गीतों को मैंने अपने तीन आलेखो में लिया है । अफसोस कि मैं उनसे कुछ और गीत संचित करूँ मेरी माँ की याददाश्त लगभग चली गई है।
मेरे दादाजी श्री निरंजनलाल श्रीवास्तव बहुत ही सरल सज्जन ,एक रियासत में कर्मचारी थे। हमारे पूर्वज कभी जमींदार हुआ करते थे। माँ बताती हैं कि दादाजी के किसी रिश्तेदार की कुप्रवृत्तियों के कारण सारी उनकी सम्पत्ति कुर्क होगई और बाद में मेरी दादी ने खुद अपने हाथों से यह घर बनाया कच्ची दीवारों वाला लेकिन बेहद कलात्मक और सुरुचिपूर्ण। कच्ची दीवारें भी इतनी सुडौल व सपाट कि सीमेंट के प्लास्टर का भान करातीं थीं । लाल मिट्टी से लिपे हुए आँगन में जब दादी या मौसी खडिया के घोल से चौक पूरती थीं तो आँगन में जैसे चाँद-सितारे उतर आते थे । जो भी देखता देखता ही रह जाता था। बड़े ताऊजी ने दादी की विरासत पाई थी । उनके जीवित रहने तक घर में अनौखी सजावट रहती थी । रसोईघर की दीवार पर महालक्ष्मी जी का चित्र ,मिट्टी के खूबसूरत कँगूरों और बेलबूटों वाला तुलसीघर ,अनाज रखने की मिट्टी की कोठियाँ जो एक तरफ से अनाज भरने के काम आतीं तो दूसरी तरफ सुन्दर अलमारी का काम देतीं थी। हमारा घर त्यौहारों , सांस्कृतिक कार्यक्रमों और बाहर से आए विशिष्टजनों के लिये शानदार मेजबान होता था।
अब घर का वह रूप नही रहा । न ही कोई वैसा परिश्रमी और कलाकार । न वह शान ,जो दादी और ताऊजी के समय रहा करती थी । दीवारें और आँगन ऊबड़-खाबड़ है। बड़े होकर उड़ गए पंछियों के बाद खाली रह गए घोंसले जैसा ही सूनापन उन घरोंदों में है। यह सूनापन वहाँ रहने वाले स्वजनों--भैया भाभी आदि--के भीतर भर रहे सूनेपन व निष्क्रियता का ही प्रतीक है, लेकिन मुझे भुरभुराकर गिरती दीवारों से , जर्जर खपरैलों से आज भी उतना ही लगाव है . एक असीम तृप्ति मिलती है उस आँगन में .
मैंने छोटे ताऊजी का बँगला देखा , उनका चित्र लिया जो अभी-अभी उनके जाने के बाद बनवाया गया है। अपने जन्म वाला 'किवारी वाला घर' देखा। कुछ देर दादी वाली कोठरी में बैठी।
घर के पिछवाड़े बेर के पेड़ के नीचे छितराई सी छाँव में राहत का कोरा सा अनुभव करती उदास गाय देखी ।
जर्जर दीवारों में लिखे विगत के शानदार गीत पढ़े। ताऊजी के चित्र व मूर्तियों को जो अब नही हैं ,यादों में उतारा .
और जलती दोपहर में आँगन के नीम की छाँव में पडी खटिया पर बैठे-बैठे एक असंभव की चाह जागी-- काश वे दिन लौट आते ।
और रात में तारों से भरे आसमान का वैभव देखा ,मन और आँखों में भरा आसमान में इतने तारे शहर में तो कभी नहीं दिखते . वर्षों बाद गीदड़ों की आवाज सुनकर बड़ा अच्छा लगा . शहर में पले बढ़े बच्चों के लिये यह जानवर और उसकी आवाज केवल कहानियों में मिलेगी .
वह घर आज भी मुझे अपनी ओर खींचता है . तभी तो सुबह वहाँ से चलते हुए मुझे कुछ अन्दर से कुछ निकलकर वही छूटता हुआ महसूस हुआ और मेरी आँखें अनायास ही भर आईं ।
मिट्टी के कच्चे घरोंदों वाले उस घर में हालांकि खास सुविधाएं नही हैं । कभी प्रतिष्ठा का पर्याय रहा वह घर ,अब जर्जर खपरैल , टुकडा-टुकडा गिरती दीवारों और विपन्नता का प्रतीक बन गया है लेकिन उसमें एक जादू है जो आज भी बरकरार है और जो मुझे खींचता है . यही नहीं खुश रहने की एक जो अभावों और समस्याओं के बीच भी सबको हँसने और उन्मुक्त रहने की दुर्लभ प्रवृत्ति भी बनाए हुए है . मैंने देखा है कि जब सब लोग मिलते हैं तो सिर्फ उन्मुक्त होकर ठहाके लगाते हैं , गीत गाते हैं . मैं मानती हूँ कि अगर आपको खुलकर हँसना आता है तो चिन्ताएं आपसे दूर खड़ी ताकती रहेंगी . निश्चिन्त रहने का यह गुण दुर्लभ है और यह सम्पन्नता से उत्पन्न नहीं होता .
मैं अपने पैतृक गाँव मामचौन (मुरैना) की बात कर रही हूँ, जहाँ मेरा जन्म हुआ। जन्म के एक-डेढ़ साल और छठवीं-सातवीं के दो वर्षों के अलावा मुझे वहाँ रहने का अवसर नही मिला। अभी पाँच वर्ष बाद गई ( रात तो लगभग बीस साल बाद बिताई) तो देखा घर की हालत और भी बदतर होगई है।
छोटे ताऊजी दो माह पहले 11 मई के दिन सबको अलविदा कह ही गए।
आँगन और दीवारें आँसू बहाती हुई सी प्रतीत हुईं ,लेकिन मूँज की रस्सी से बुनी हुई खटिया और बडी जिया ( मौसी ,ताई भी )के हाथों की बनाई दरी पर लेटते हुए समय के इस अन्तराल की जरा सी भी अनुभूति नही हुई . लगा जैसे कि मैं सदा से ही वहाँ रही हूँ हर मौसम और ऋतु को जीते हुए ।
विगत बीस सालों में हुए परिवर्तन बात करें तो काफी कुछ बदल गया है। अब गाँव तक पक्की सड़क है । दो तीन बसें चलती हैं। मुझे बचपन के दिनों की याद है जब आवागमन का कोई साधन नही था ,तब हम लोग नहर के किनारे ( चम्बल निचली मुख्य नहर ) पैदल ही आते जाते थे। (ननिहाल से मेरा पैतृक गाँव लगभग नौ-दस किमी है।) नहर पर बने पुलों को गिनते हुए कि यह पहाड़गढ़ वाला पुल है फिर धूरकूड़ा का पुल ,अब सगौरिया का पुल आगया आगे कोंड़ा और फिर मामचौन। चलते-चलते हम बच्चे भगवान से किसी वाहन के आने की प्रार्थना करते थे और कभी संयोग से कोई बैलगाड़ी या जीप निकलती और उसका दयालु चालक हमारे कुम्हलाए चेहरे देख बिठा लेता तो हमें ईश्वर के होने का पक्का विश्वास होजाता था ।
रसोईघर में चूल्हे की ओट के लिये बनाई दीवार |
हमारे घर के आसपास लगभग सभी मकान पक्के और सर्वसुविधायुक्त बन चुके हैं । खरंजा ( गली का फर्श ) तह पर तह इतनी बार बन चुका है कि गली हमारे घर की देहरी से कुछ ही नीची रह गई है । मुझे याद है कि गली से घर की बाहरी देहरी और चबूतरा इतना ऊँचा था कि उस पर बच्चे नही चढ़ पाते थे। गली से पौर के दरवाजे तक तक पाँच-छह सीढ़ियाँ थीं । विकास की यही गति रही तो एक दिन गली घर से ऊँची हो जाएगी।
अनाज की कोठी का दूसरा हिस्सा जिसका अब रूप बिगड़ गया है । |
मौसी ( बड़ी जिया) के हाथ की पुरानी साड़ियों से बुनी गई दरी । |
इस घर में मेरा जन्म हुआ |
बड़ी जिया जो मेरी मौसी भी हैं और ताई भी। |
अब घर का वह रूप नही रहा । न ही कोई वैसा परिश्रमी और कलाकार । न वह शान ,जो दादी और ताऊजी के समय रहा करती थी । दीवारें और आँगन ऊबड़-खाबड़ है। बड़े होकर उड़ गए पंछियों के बाद खाली रह गए घोंसले जैसा ही सूनापन उन घरोंदों में है। यह सूनापन वहाँ रहने वाले स्वजनों--भैया भाभी आदि--के भीतर भर रहे सूनेपन व निष्क्रियता का ही प्रतीक है, लेकिन मुझे भुरभुराकर गिरती दीवारों से , जर्जर खपरैलों से आज भी उतना ही लगाव है . एक असीम तृप्ति मिलती है उस आँगन में .
मैंने छोटे ताऊजी का बँगला देखा , उनका चित्र लिया जो अभी-अभी उनके जाने के बाद बनवाया गया है। अपने जन्म वाला 'किवारी वाला घर' देखा। कुछ देर दादी वाली कोठरी में बैठी।
घर के पिछवाड़े बेर के पेड़ के नीचे छितराई सी छाँव में राहत का कोरा सा अनुभव करती उदास गाय देखी ।
जर्जर दीवारों में लिखे विगत के शानदार गीत पढ़े। ताऊजी के चित्र व मूर्तियों को जो अब नही हैं ,यादों में उतारा .
और जलती दोपहर में आँगन के नीम की छाँव में पडी खटिया पर बैठे-बैठे एक असंभव की चाह जागी-- काश वे दिन लौट आते ।
और रात में तारों से भरे आसमान का वैभव देखा ,मन और आँखों में भरा आसमान में इतने तारे शहर में तो कभी नहीं दिखते . वर्षों बाद गीदड़ों की आवाज सुनकर बड़ा अच्छा लगा . शहर में पले बढ़े बच्चों के लिये यह जानवर और उसकी आवाज केवल कहानियों में मिलेगी .
वह घर आज भी मुझे अपनी ओर खींचता है . तभी तो सुबह वहाँ से चलते हुए मुझे कुछ अन्दर से कुछ निकलकर वही छूटता हुआ महसूस हुआ और मेरी आँखें अनायास ही भर आईं ।
दीदी! संस्मरण लिखना उन गुज़रे हुये लम्हों को फिर से जीने के जैसा होता है. मनोरंजक हों तो दुबारा मज़ा दे जाती हैं और भारी हों तो एक लम्बे समय तक दिल को भारी कर जाती हैं. राही मासूम साहब ने कहा है कि यादें बादलों की तरह हल्की फुल्की चीज़ नहीं कि आहिस्ता से गुज़र जाएँ, यादें एक पूरा ज़माना होती हैं और ज़माना कभी हल्का नहीं होता!
जवाब देंहटाएंआपने एक पूरे ज़माने को उस एक रात में फिर से जिया जो भले ही आपको बीस बरस बाद नसीब हुआ हो, सदियों का इतिहास समेटे है. विश्वास नहीं करेंगी आप, मैं जब भी अपनी यादों में "अपना घर" याद करता हूँ, तो मुझे अपना पुराना कच्चा खपरैल घर याद आता है. अपने ब्लॉग पर उन्हीं यादों को कई बार समेटने की कोशिश की मैंने.
मौसी/ताई जी की शक्ल आप से बहुत मिलती है!
कभी प्रतिष्ठा का पर्याय रहा वह घर ,उसमें निवास करने वालों के आलस्य ,स्वार्थ और तेरे मेरे की नीतियों के कारण अब जर्जर खपरैल , टुकडा-टुकडा गिरती दीवारों और विपन्नता का प्रतीक बन गया है लेकिन उसमें एक जादू आज भी बरकरार है जो मुझे खींचता है।..........................यह वाक्य संयुक्त परिवार परिपाटी टूटने की सामूहिक गहरी टीस को उभारता है। एक बेहद मार्मिक, संस्मरणीय, संस्पर्शीय और भावनात्मक संस्मरण।
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन आज की बुलेटिन, गुरु गुरु ही होता है... ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंजी भर सा आया इस पोस्ट को पढ़ कर....
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है जैसे जैसे उम्र बढ़ती है हम अपनी जड़ों की ओर झुकने लगते हैं...कुछ छूटा हुआ सा समेट लेने को मन मचल जाता है...
मन पीछे लौटना चाहता है...
सादर
अनु
सुंदर पोस्ट ।
जवाब देंहटाएंये तो ऐसी यादें हैं जो अंजाने में ही यादों को जीवन्त रखती हैं ....
जवाब देंहटाएंविगत की कितनी ही बातें चलचित्र की तरह पटल पर उभर आयीं आपकी पोस्ट पढ़ते हुए ... मन वापस ले गया उन गलियारों में जहां बचपन बीता ...
जवाब देंहटाएंआपने अपने विगत को इन शब्दों में जी लिया है जैसे ... बहुत ही जीवंत चित्रण .. मन को छूता हुआ संस्मरण ...
खट्टी-मीठी यादें
जवाब देंहटाएंआपकी सुंदर पोस्ट पढकर मुझे भी अपना जन्मस्थान व वह घर याद गया.. सचमुच गली घर से ऊंची हो गयी है, अब वहाँ पहले जैसा कुछ भी नहीं रहा है फिर भी कुछ है जो आज भी सपनों में स्वयं को उस गली से गुजरते देखती हूँ. सभी चित्र भी बहुत सुंदर हैं.
जवाब देंहटाएंमैंने आज तक ग्रामीण जीवन को हमेशा किताबों में ही पढ़ा कभी जिया नहीं है। आज आपका यह संस्मरण पढ़कर लगा जैसे आपकी लिखी हर एक बात आँखों में किसी चलचित्र की भांति चल रही है। वाकई यह एक बेहद मार्मिक, संस्मरणीय,और भावनात्मक संस्मरण है।
जवाब देंहटाएंहमने अपने समय में इस जीवन को देखा और जिया है .मालवा की साँझी,जातरा,गनगौर अपने उत्सवी वातारण सहित ,खुली धरती,चमकता आकाश ,पिकनिक का आमंत्रण देते वन (पलाश के पत्ते दोना-पत्तल ) और घरों में अनेक कलाकौशल -अब तो टी.वी.आदि बदले परिवेश और अकारण व्यस्तता ने उस सब के लिए ही नहीं छोड़ा .पर वे दिन बड़े मनोहर थे.दसवीं कक्षा तक ग्रामजीवन से जुड़ाव रहा था . आपने भी कौन सा समय सामने ला कर खड़ा कर दिया !
जवाब देंहटाएंऐसी मीठी यादें जो मन और आंखों को भिगो देती हैं हमें भी अपने गाँव की याद हैं...बस एक हूक सी उठती है मन में सब याद करके...बहुत यादें मन में भर गईं आपका ये संस्मरण पढ़कर.
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