लेकिन वे दिन गए जब सावन का नाम लेते ही बादल , वर्षा ,बिजली ,हरियाली मोर पपीहा आदि सब आँखों में सजीव होउठते थे । अब सावन तो आगया है । पर गलियों में धूल ही नही उड़ रही , कान-कनपटियों को थपेड़े मारती लू भी चल रही है । सुबह आठ बजे ही धूप इस तरह तपाती है तो दोपहर की तपन कैसी होगी । शाम छह बजे तक धूप जैसे कोड़े बरसाती रहती है ।
यह कविता सन् 1984 में लिखी थी इसलिये इसमें नयापन तो नही है पर प्रासंगिक है । आज यहाँ ( ग्वालियर मुरैना क्षेत्र में ) यही हाल है ।
भेज रही है चिट्ठियाँ
यह कविता सन् 1984 में लिखी थी इसलिये इसमें नयापन तो नही है पर प्रासंगिक है । आज यहाँ ( ग्वालियर मुरैना क्षेत्र में ) यही हाल है ।
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(1)
लगभग निर्वस्त्र सा
निरभ्र आसमान
उम्मीदों को चिढ़ाता
दिन में दर्पण दिखा दिखाकर
आँखें चुँधियाता
गर्म साँसों से
तम मन झुलसाता
रात में निर्लज्जता से
तारों के रोम दिखाता
आषाढ़-सावन के खुले मैदान में
सरेआम हरियाली की चूनर खींच रहा है
विवश त्रस्त धरती पांचाली
पुकारती है 'घनश्याम' को ।
(2)
सूरज के आतंक से त्रस्त
सहमी सिकुड़ी नदी तलैयाँ
लेकिन बादलों का रवैया
आलसी पुलिस की तरह
आते हैं आते हैं--कहकर
सिर्फ बहलाते हैं
(3)
शैशव में ही सूखाग्रस्त
दुर्बल बच्चे सी फसलें
बीमार ,मुरझायी खड़ी हैं ।
कुपोषण से घबराई
उपचार के लिये
जैसे फर्श पर ही
पड़ी है ।
पर बादलों का व्यवहार ,
किसी चलताऊ दवाखाने का उपचार ।
बहुत बढ़िया और सामायिक रचना...
जवाब देंहटाएंसादर
अनु
कौन कहता है कि ये कविताएँ 1984 में रची गयी हैं...
जवाब देंहटाएंओ आषाढ के पहले बादल से लेकर अब तो सावन भी शुरू हो गया, मगर धूप विदा होने का नाम नहीं ले रही.
नग्न आसमान, धरती का चीर-हरण और "घन"-श्याम का न आना "वाह" कहने को उकसाता है... फिल्मी पुलिस की तरह देर से आने वाली बरसात पर मुस्कुराहट फैल जाती है होठों पर... और कुपोषण की शिकार फसलों का शब्दचित्र "उफ्फ" कहने को मजबूर करता है...
!!
कुल मिलाकर भले ही कविताओं के अंतस में बरसात के विलम्ब का दर्द झलकता है - कविताओं को पढकर आहा से लेकर आह तक के भावों से भर जाता है मन!!
बिंब-प्रतिबिंब भाव, प्रकृति और मानवी व्यवहार का - नैसर्गिक ऋतु-क्रम भी इंसान की तरह टालमटोल पर तुले - चित्रात्मक कल्पना ने पूरी रसात्मकता के साथ दोनों को एक धरातल पर स्थापित कर दिया -सुन्दर !
जवाब देंहटाएंनये नये बिम्बों से सजी यथार्थवादी रचनाएँ !
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन आज की बुलेटिन, थम गया हुल्लड़ का हुल्लड़ - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंअनोखे बिम्ब ... हकीकत को लिखने के लिए बिलकुल नए बिम्ब ...
जवाब देंहटाएंहर साल अब तो सावन का मौसम ऐसे ही तरसाता है ..
सुन्दर।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर शब्दचित्र गिरिजाजी...
जवाब देंहटाएंप्रकृति और समाज को जोडने वाले बिम्ब वालीये कविताएं बहुतही अच्छी लगीं।
जवाब देंहटाएंप्रकृति और समाज दोनं को जोडती ये कविताएं अनोखी और सुंदर हैं.
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