नेह
या अपनत्व की , जब बात आई है ,
हाय
अपनी चेतना हमने सुलाई है .
अन्यथा
टुकड़ों बिखर जाता हृदय गलकर .
क्योंकि
तट विश्वास के रह खूब मल-मलकर
कालिमा
संदेह की हमने छुटाई है
नेह
या अपनत्व की जब बात आई है
.
स्रोत
सूखे जा रहे , निर्झर बहेंगे क्या !
कर
लिया अवरुद्ध वाणी को , कहेंगे क्या !
सच कहा जब जब, करारी मात खाई है .
नेह
या अपनत्व की जब बात आई है .
आँधियों
में भी जलाए हैं दिए हमने .
दोष
किसको दें तिमिर का , अब लगा लगने .
ढल
गया सूरज तभी यह रात आई है .
नेह
या अपनत्व की जब बात आई है .
होगए
हैं शब्द घर से बेदखल तबसे .
अतिक्रमण
संवेदनाओं पर हुआ जबसे .
जो
लिखी दिल पर इबारत ही मिटाई है .
नेह
या अपनत्व की जब बात आई है .
हाय
अपनी चेतना हमने सुलाई है .
(सन १९९० में रचित . नेह या अपनत्व की ' के स्थान पर पहले 'प्यार की ,विश्वास की जब ..' था . परिवर्तन से कोई निखार आया तो नहीं लगता बल्कि एक व्यवधान सा ही उत्पन्न हुआ है .)
आँधियों में भी जलाए हैं दिए हमने .
जवाब देंहटाएंदोष किसको दें तिमिर का , अब लगा लगने .
ढल गया सूरज तभी यह रात आई है .
नेह या अपनत्व की जब बात आई है ...
हर छंद दिल में उतर जाता है ... आशा, विश्वास जब डगमगाता है ... अपने अन्दर झाँकने पर भी डर लगता है ... पर सच तो ये भी है की हर रात के बाद ही सुबह आई है ...
बहुत सुन्दर भाव।
जवाब देंहटाएं' कालिमा संदेह की हमने छुटाई है
जवाब देंहटाएंनेह या अपनत्व की जब बात आई है '
ये भी ठीक ,
'सच कहा जब जब, करारी मात खाई है
जो लिखी दिल पर इबारत ही मिटाई है .'
देख लेना ,धुँधले अक्षर रह तो नहीं गए ..?
कुछ चीजें कभी भी लिखी जाएं, हमेशा प्रासंगिक रहती हैं। आपका यह गीत भी उन्हीं में से एक है। बेहद सुंदर और दिल को छूता गीत।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर और लाजवाब रचना प्रस्तुत की है आपने।
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह बेहतरीन!!
जवाब देंहटाएंढल गया सूरज तभी यह रात आई है .
जवाब देंहटाएंनेह या अपनत्व की जब बात आई है ...
..... हर छंद में बहुत सुन्दर भाव।