चौराहे पर भीड़ लगी है ,
कुछ ना कुछ तो बात हुई है .
कैसे ये खिड़कियाँ खुली हैं ,
कुछ ना कुछ तो बात हुई है .
सूखा कहीं तबाही भीषण ,
ऐसी तो बरसात हुई है .
उगता सूरज कैसे लिखदूँ ,
दिन में ही जब रात हुई है .
निकली कहाँ ,कहाँ गुम होगई ,
एक नदी जज़बात हुई है .
अपनापन 'अनमोल' होगया ,
मँहगी हर सौगात हुई है .
हार जीत का खेल बनी अब
राजनीति बदजात हुई है .
जो समझा था, धोखा छल
था
सच्चाई अब ज्ञात हुई है .
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (02-05-2016) को "हक़ मांग मजूरा" (चर्चा अंक-2330) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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श्रमिक दिवस की
शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद शास्त्री जी .
जवाब देंहटाएंअच्छी लगी, ये ग़ज़ल ।
जवाब देंहटाएंनिकली कहाँ ,कहाँ गुम होगई ,
जवाब देंहटाएंएक नदी जज़बात हुई है ...
वाह बहुत ही खूबसूरत संवेदनशील शेर है ... पूरी ग़ज़ल कमाल की बनी है ...
गिरिजा कुलश्रेष्ठ
जवाब देंहटाएंआपकी ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी, ऐसे ही लिखते रहिये.
सूखा कहीं तबाही भीषण ,
ऐसी तो बरसात हुई है .
उगता सूरज कैसे लिखदूँ ,
दिन में ही जब रात हुई है .
ये पंक्ति सबसे ज्यादा अच्छी लगी.
मेरी लिखी हुई कुछ शायरी http://www.rdshayri.com/
'जो समझा था, धोखा छल था
जवाब देंहटाएंसच्चाई अब ज्ञात हुई है .'
सच पर इतने आवरण डाल दिये जाते हैं कि एक-एक कर खुलने के क्रम में ही बहुत-कुछ बिगड़ने का क्रम शुरू हो जाता है .
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