गुरुवार, 18 अगस्त 2016

कैसे भूलूँ और कैसे याद करूँ ..

अब से पहले हम बहनें या तो माँ के पास अपने गाँव चली जातीं थीं या मैं गाँव को यादों में ही जी लिया करती थी . गाँव, जहाँ सावन का अर्थ ही रक्षाबन्धन होता था या रक्षा-बन्धन का मतलब सावन का पूरा महीना होता था और सावन का मतलब उमड़-घुमड़ते बादल , बादलों को देख पंख पसारे नाचते मोर , हरे भरे खेत, मैदान, कूल-किनारे ,रिमझिम रिमझिम वर्षा से गदबदाती धरती , कीचड़ की किचपिच.. जरा तेज बारिश हुई कि किनारों तक उमड़ उठती छोटी सी सोननदी , नीम शीशम इमली की शाखों में पड़े झूले ,मल्हारें ,कोयल पपीहे की पुकार और भी कितना कुछ जो रोम रोम को सावन बना देता था .
मन में गाँव की यही तस्वीर बसी है . कुछ धूमिल हो भी गई है तब भी इस शहर से तो ,जहाँ आत्मीय रिश्तों के बीच भी ऑफिस है , लम्बा ट्रैफिक है , दूरियाँ है ,जगह की भी और मन की भी ,वह तस्वीर लाख गुना बेहतर है . 
मुझे याद है कि राखी पर भाई बहिन को मिलने से न झमाझम बारिश रोक पाती थी  न कोई दूसरा व्यवधान .तब अपना निजी साधन खरीदना इतना सुलभ नही हुआ था फिर भी ठसाठस भरी बसों में किसी तरह जगह बनाकर , बस न मिलें तो ट्रैक्टर-ट्रक में ही सही ,बहनें पीहर आतीं थीं अपने माँजाये को राखी बाँधने . आशीष के रूप में भुजरिया देने . और भाई भी सारे काम छोड़कर सारा समय बहन भान्जों के लिये बचाकर रखते थे .ये सारी बातें और स्मृतियाँ मेरे मन आँगन में फुहारों की तरह बरसती थीं . 
अब इतनी दूर बैठी हूँ वहाँ जाना तो बहुत दूर की बात है लेकिन अब तो याद करने की भी हिम्मत नहीं . कैसे करूँ याद और किसके लिये करूँ .
वहाँ अब कौन है जो मुझे लेने सड़क तक आएगा और मीठी सी मुस्कान बिखेरते हुए हुलस कर कहेगा –"अरे मेरी बेटी आगई."..अब कहाँ है वह वात्सल्यभरा अंचल जो कोमलता के साथ आच्छादित हो जाता था मेरे तन-मन पर . 
जिया !मेरी माँ ! व्यर्थ हैं वे गलियाँ तुम्हारे बिना .  
दरवाजा जो कभी बन्द नही होता था .
सावन के महीने में मन हुलसकर तुम्हारी गोद में जा छुपने को आतुर होजाता था . "आ हा मेरी लाड़ली आई है ."–कहती हुई तुम हनुमान जी के मन्दिर या सड़क तक मुझे लेने आजातीं थीं और मेरे बस से उतरने से पहले ही बैग मेरे हाथ से ले लेतीं थीं . गाँव में मेरा या हममें से किसी बाई-बहिन का पहुँचना तुम्हारे लिये उत्सव जैसा होता था . तब न तो नदी पार जाकर खेतों से ताजी सब्जी लाने में तुम्हारे पाँव दुखते थे और न यहाँ वहाँ से चीजें जुटाते तुम्हारा मन भरता था . उस आँगन में एक जादू था कि मैं अधेड़ उम्र की औरत भी बिल्कुल छोटी सी बच्ची बन तुम्हारे ममत्त्व से महकते आँचल की सुगन्ध में डूब जाती थी . 
जिया मेरी माँ जिनके बिना अब सब कुछ सूना लगता है 
कहाँ है वह मीठी सी मुस्कान , स्नेहभरा आमन्त्रण जो किसी को भी आदर और स्नेह से भर देता था और जिसके कारण घर का दरवाजा कभी बन्द नहीं होता था .आने जाने वालों का ताँता लगा रहता था . "भुआ राम राम." और "बहन जी नमस्कार , कब आईं ?" जैसे संवाद दिनभर चलते ही रहते थे गाँवभर की मौसी ,जीजी ,और तमाम सहेलियाँ गैलरी में बैठी ठहाके लगातीं अपने रोचक किस्से सुनाती रहतीं थीं .और तुम हँसी-खुशी की उस अविरल धारा में डूबती उतराती रहतीं थीं ,तुम्हारे साथ मैं भी .
कहाँ मिलेगी अब वह तृप्ति जो तारों की छाँव में खटिया पर लेटे मन जाने कितनी बातें करते हुए मिलती थी . अब तुम नही हो माँ तो शेष नही है कुछ भी . न स्नेह न उल्लास ... 
अब सावन में काली घटाएं आसमान को भले ही सुर्मई दुशाला उढ़ाती रहें . मेघ-मालाएं आकर धरती माँ से गले मिलती रहें . नदी के किनारे कास और सरपत लहलहाते रहें .आम जामुन के पेड़ों में मोर--पपीहा बोलते रहें ,मुझे क्या! 
मुझे तो इतना मलूम है कि अब नीम इमली की शाखें मेरे मन की तरह सूनी पड़ी होंगी और अमराई बिना मल्हारों के गूँगी—बहरी और बेजान होगी .अब उजियाली रातों में नीम की डाली पर कोई ननद भावज झूला नहीं झूलती होगी . न ही चार-छह औरतें मल्हारें गा गाकर रात में मिठास भरती होगी .,.मेहँदी के कंच हरियल पत्तों को घोंट-पीस कर मेहँदी रचाने की फुरसत अब किसी को नही होगी और नही इस बार बौछारों ने आँगन भिगोया होगा . तुलसी का बिरवा जरूर सूख सिसक रहा होगा . चूल्हें में ठंडी राख भरी होगी . अब कोई भावज पल्लू से देहरी छूकर  पालागन करने नहीं आई होगी . राखी पर पीहर आई बहन बेटियाँ सहेलियाँ सूना द्वार देख देखकर आँसू पौंछती हुई लौटगई होंगी . तुम्हारे बिना कहाँ कैसी खुशियाँ !कैसा सावन ! कैसी उमंग और किस बात का उल्लास !

अब इस सावन का मैं भी क्या करूँ.. कैसे पाँव धरूँ उस सूनी देहरी पर ,आँगन ,रसोई और गैलरी में जहाँ कण कण में तुम्हारी यादों के तीखे शूल बिछे हैं . माँ तुम्हारे बिना मैं एक अँधेरी सूनी राह पर खड़ी हूँ अकेली ही आँसुओं में डूबी अपने दर्द के साथ ..
काकाजी की सूनी कचहरी

घर आँगन छत देहरी सूनी,
सूना है मन तुम बिन माँ !
तुम्ही नहीं तो 
क्या घर आँगन !
कैसी वर्षा , कैसा सावन !
बादल भर भर बरस रहे हैं 
फिर भी धूल उड़ी है आँगन.
कौन पुकारे साँझ सकारे
उजियारे को ,
तुम बिन माँ !

तुम नदिया सी बहते बहते
छोड़ गईं सब कूल किनारे .
हर पल जेठ दुपहरी सा है ,
पाखी उड़ गई पाँख पसारे .
पात लुटा बैठा है बरगद  ,
छाँव कहाँ है तुम बिन माँ .


था अपार विस्तार तुम्हारा ,
छोटी सी मेरी बाँहें .
समा सकीं ना , 
सिर्फ बचीं हैं ,
मेरे अंचल में आहें .
आज खड़ी हूँ पार उतरने ,
टूट गया पुल तुम बिन माँ !



8 टिप्‍पणियां:

  1. गिरिजा जी सच में यह टीस कितनी बड़ी होती है। इसे अनुभव करनेवाले के अलावा कोई नहीं समझ सकता। वाकई वे दिन, वह जीवन और वह संबंधों का आधार कितना विशाल था मानव केे जीवन में। उस वात्‍सल्‍य और अपनत्‍वपूर्ण जीवन परिवेश में व्‍यक्ति को कभी यह महसूस नहीं होता था कि दुख-दर्द क्‍या हैं या जीवन के बाद अवसान भी कोई स्थिति है। हमारा यानि कि उस समय को जी चुके लोगों का जीवन उस परिवेश और परिस्थितियों में कितनी सहजता से सदगत होता था। सावन क्‍या हर ॠतु उस ग्रामीण परिवेश में मनुष्‍य के ह्रदय से जुड़ी हुई प्रतीत होती थी। वाकई उन यादों के अब शूल ही चुभेंगे। उनसे अब तृृप्‍त नहीं होया जा सकता। आपका यह संस्‍मरण अपने आप में बहुत कुछ समेटे हुए है।

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    1. मां पर लिखी यह कविता कितनी निराली है। जब आप मां को ऐसे स्‍मृत कर रही हैं, तो फि‍र मां आप से दूूर कैसे हो सकती हैं। विश्‍वास मानिए वे आत्मिक रूप से आप के साथ हैं।

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  2. ओह गिरिजा,क्या-क्या याद दिला दिया - सूनापन और बढ़ा दिया .

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  3. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "साक्षी ने दिया रक्षाबंधन का उपहार “ , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  4. गाँव, सावन, माँ और रक्षा बंधन सभी में कैसा अटूट संबंध है जिसे आपके संस्मरण में दिल को छू लेने वाली अनुभूतियों के साथ पिरोया है. माँ की पुण्य स्मृति को सादर नमन..

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  5. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (20-08-2016) को "आदत में अब चाय समायी" (चर्चा अंक-2440) पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  6. दीदी!मेरे लिये तो पूरा सावन ही हस्पताल के परिसर में ही बीता. बहन ने लगभग दस सालों बाद अपने हाथों से मेरी हथेली पे राखी बांधी. और एक लंबी बीमारी तथा माँ के हस्पताल में भारती रहने के कारण, सब कुछ फीका फीका सा ही रहा.
    आपकी स्मृतियों को जब जब महसूसा है, तब तब एक कचोट सी ही उठती रही है मन में. सब कुछ समाप्त होता जा रहा है. हमारे बच्चों को भी उन परम्पराओं का बोध नहीं. बेटियाँ ब्याही हों या बिनब्याही - अपबे बरस भेज भैया को बाबुल - का अर्थ कहाँ से समझ पाएंगीं.
    जीया के लिये, आपकी कविता बस दिल में सहेजने लायक है दीदी! मन भर आया!

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  7. एक टीस सी भर गयी मन में इस रचना को पढने के बाद .. सच में राखी एक त्यौहार भाई बहन से बहुत आगे है .. इसी बहाने घर आँगन और परिवार से मिलने की उमंग ... माँ के आँचल की महक को पुनः संजो लेने की कल्पना .. स्मृतियों के कितने ही द्वार पुनः खोल जाते हैं ये त्यौहार ...
    आपकी कविता दिल के बहुत बहुत करीब रहेगी जाने कब तक ...

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