शिक्षक-दिवस पर विशेष
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बात सन् 1973 के दिसम्बर माह की है जब मैं पहाड़गढ़ पढ़ने जाती थी . उस समय दसवीं कक्षा में थी और अर्द्धवार्षिक परीक्षाएं शुरु होगईं थीं. वैसे तो मैं पढ़ने के लिये गाँव से ही जाती थी पर परीक्षा और कुछ कड़कती ठंड के कारण काकाजी ने अपने एक सुपरिचित शिक्षक के मकान में किराए पर एक कमरा ले लिया था .जहाँ मैं और मेरा छोटा भाई रह रहे थे , ग्यारहवीं में पढ़ रही एकमात्र लड़की उर्मिला मकान मालिक की भतीजी और परिवार के ही कुछ लड़के भी थे .
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बात सन् 1973 के दिसम्बर माह की है जब मैं पहाड़गढ़ पढ़ने जाती थी . उस समय दसवीं कक्षा में थी और अर्द्धवार्षिक परीक्षाएं शुरु होगईं थीं. वैसे तो मैं पढ़ने के लिये गाँव से ही जाती थी पर परीक्षा और कुछ कड़कती ठंड के कारण काकाजी ने अपने एक सुपरिचित शिक्षक के मकान में किराए पर एक कमरा ले लिया था .जहाँ मैं और मेरा छोटा भाई रह रहे थे , ग्यारहवीं में पढ़ रही एकमात्र लड़की उर्मिला मकान मालिक की भतीजी और परिवार के ही कुछ लड़के भी थे .
वे रोज नकल करके खूब
कॉपियाँ भरने की डींगें हाँका करते थे . और मुझे सत्यवादी हरिश्चन्द्र की नानी
कहकर चिढ़ाया करते थे . इसका कारण था कि मैं उनकी नकल वाली बात का विरोध करती रहती
थी . काकाजी ने शुरु से ही हमें नकल से दस कोस दूर रहने की सीख दी थी . मुझे खूब
याद है जब मैं उनके साथ बड़बारी में थी तब पाँचवी बोर्ड की परीक्षा में एक शिक्षक ने
अपने साथी शिक्षक ( मेरे पिताजी )की बेटी होने के कारण एक उत्तर बताना चाहा तो
पिताजी ने उसे लगभग डाँटते हुए कहा था--- “सिकरवार मेरी बेटी अगर फेल भी होती है
तो होजाने दो पर उसे बताने की जरूरत नहीं . वह जो भी लिखती है उसे खुद लिखने दो .”
बचपन में सीखी बात दिल-दिमाग
में जैसे चिपककर रह जाती है . मैंने खुद कभी नकल का सहारा नहीं लिया न ही अपने
बच्चों को लेने दिया . आज भी जबकि परीक्षाओं में नकल के इतिहास बनते हैं , मैं छात्रों
को नकल के भरोसे न रहने की सलाह देती रहती हूँ . खैर...
जिस दिन नागरिक शास्त्र का पेपर था मेरे एक दो पाठ तैयार नहीं थे . यह विषय मुझे
बड़ा उबाऊ लगता था ( आज भी ) .शायद इसलिये कि पढ़ाने वाले सर कभी समझाकर पढ़ाते नहीं
थे . विषय कोई कठिन नहीं होता अगर उसे सही तरीके से पढ़ाया जाय . नागरिकशास्त्र
में मुझे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री का चुनाव और मौलिक अधिकारों में संवैधानिक
उपचारों का अधिकार बन्दी-प्रत्यक्षीकरण, परमादेश वगैरा जरा भी समझ में नहीं आते थे
.प्रजातंत्र की परिभाषा भी केवल लिंकन वाली याद थी .पर ‘जनता द्वारा ,जनता के लिये जनता का शासन’ क्या पहेली है समझ में नहीं आता था . मेरी कमजोरी उन साथियों को मालूम थी सो पेपर के
एक दिन पहले ही मेरे सामने उन्होंने विस्तार से नकल--महात्म्य पढां . कई तर्क दिये
कि—
“तू दिन रात
रटती रहती है तब भी उतने नम्बर नहीं ला पाती जितने हम लोग एक रात की मेहनत में ले
आते हैं .”
कि “जब बिना
मेहनत के ठीक ठाक नम्बर मिल जाते हैं तो फिर रटने में आँखें फोड़ने से क्या फायदा ?”
“चल हम यह नहीं कहते कि नकल के भरोसे रहो , पर जहाँ एक दो
नम्बर से ही ‘परसेंटेज डाउन’ हो रहा हो वहाँ थोड़ी बहुत नकल तो चलती है .”
“और सच्ची बताना क्या तुझे अच्छा लगेगा जब कम पढ़ने वाले नकल
करके तुझसे ज्यादा नम्बर मार लेंगे . सर लोग तुझे कैसे होशियार बताते रहते हैं ....
भैया हम तो तेरे भले की कह रहे हैं .मान या न मान तेरी मर्जी .”
कहते हैं कि बार बार बोला गया झूठ भी सच्चा प्रतीत होने लगता है . मुझे भी
लगा कि संवैधानिक उपचारों की एक चिट बनाकर रखलूँ . जब ये सब लोग हमेशा नकल करते हैं
तो मेरा एक बार करना बहुत गलत तो नहीं होगा . सो चूड़ीदार पायजामा की कमर मोड़कर एक
चिट रख ही ली .और इस बात से अनजान कि यह बात न केवल प्रकाश वगैरा को मालूम है
बल्कि उन्होंने कक्षा के एक शरारती लड़के को बता भी दी है . मैं आराम से अपनी
डेस्क पर बैठ गई . उस दिन हमारे कमरे में मूँदड़ा सर की ड्यूटी थी . यहाँ यह बताना
प्रासंगिक होगा कि स्कूल में दो लोग श्री डी एस मिश्रा और श्री ओपी मूँदड़ा बहुत
ही शानदार तरीके से स्कूल आते थे . साफ-सुथरे शानदार कपड़े , चमचमाते जूते ,..उनके
आते ही क्लासरूम महक से भर जाता था . उतने ही शानदार तरीके से पढ़ाते भी थे .मिश्रा
जी हिन्दी के और मूँदड़ा जी इतिहास के लेक्चरर थे . पर मूँदड़ा जी अपेक्षाकृत छात्रों
के अधिक निकट थे . वे छात्रों से हँसी-मजाक और हल्की-फुल्की छेड़छाड़ भी करते रहते थे
और जब पढ़ाते तो इस तरह जैसे दादी नानी कहानियाँ सुनाया करती हैं . चाहे वह फ्रांस
की क्रान्ति हो , इंगलैण्ड का उद्भव या नेपोलियन का पराभव... वे क्लास में घूम घूम
कर मौखिक सुनाते थे .हम सब दम साधे सुनते रहते थे . मैं उनसे बहुत प्रभावित थी .
वास्तव में वे क्लास में यह कहकर अक्सर मेरा हौसला भी बढ़ाया करते थे कि देखो छोटी
सी लड़की अकेली इतनी दूर पैदल चलकर गाँव से पढ़ने आती है और पढ़ाई पर पूरा ध्यान
देती है ,यह कितनी अच्छी बात है .
उस दिन में अजीब सा अनुभव कर रही थी . पहली बार चोरी या कत्ल करने वाले की तरह . उस पर जब कॉपी पेपर लेकर कक्ष में मूँदड़ा सर आए तो मेरी घबराहट और बढ़ गई . लगा जैसे वे ऐक्स-रे की तरह कपड़े में छुपी चिट को भी देखलेंगे . वैसे भी जो सर कक्षा में पढ़ाते हुए बड़े सहज रहते थे वे परीक्षा में ड्यूटी देते समय अपने चेहरे पर हैरान कर देने वाली खास किस्म की कठोरता और अजनबियत चिपका लेते थे कि कुछ पूछते हुए भी डर लगे . फिर वे सर थे मूँदड़ा जी जिनके प्रति आदर और भय का मिश्रित भाव था . सर ने पेपर बाँट दिये तो थोड़ी बहुत चल रही खुसर-फुसर भी बन्द होगई . केवल सर के जूतों की चाप सुनी जा रही थी . पेपर देखकर मेरी घबराहट तो कम होगई . पेपर सरल था . चिट वाला प्रश्न उसमें था ही नहीं पर होता तो भी मैं चिट निकालने की सोच भी नहीं सकती थी पर पायजामा में रखी चिट लाल चींटी की तरह काट रही थी . और तभी यह हुआ कि उस शरारती लड़के ने बड़ी धृष्टता के साथ गाइड का एक पेज सामने फैला लिया .वह क्लास में मुझसे कड़ी स्पर्धा ( द्वेष भी कह सकते हैं ) रखता था और किसी न किसी तरह मुझे पीछे छोड़ने की फिराक में भी रहता था .कुछ दिन पहले सर ने मेरे कारण ही उसको डाँटा भी था .
उस दिन में अजीब सा अनुभव कर रही थी . पहली बार चोरी या कत्ल करने वाले की तरह . उस पर जब कॉपी पेपर लेकर कक्ष में मूँदड़ा सर आए तो मेरी घबराहट और बढ़ गई . लगा जैसे वे ऐक्स-रे की तरह कपड़े में छुपी चिट को भी देखलेंगे . वैसे भी जो सर कक्षा में पढ़ाते हुए बड़े सहज रहते थे वे परीक्षा में ड्यूटी देते समय अपने चेहरे पर हैरान कर देने वाली खास किस्म की कठोरता और अजनबियत चिपका लेते थे कि कुछ पूछते हुए भी डर लगे . फिर वे सर थे मूँदड़ा जी जिनके प्रति आदर और भय का मिश्रित भाव था . सर ने पेपर बाँट दिये तो थोड़ी बहुत चल रही खुसर-फुसर भी बन्द होगई . केवल सर के जूतों की चाप सुनी जा रही थी . पेपर देखकर मेरी घबराहट तो कम होगई . पेपर सरल था . चिट वाला प्रश्न उसमें था ही नहीं पर होता तो भी मैं चिट निकालने की सोच भी नहीं सकती थी पर पायजामा में रखी चिट लाल चींटी की तरह काट रही थी . और तभी यह हुआ कि उस शरारती लड़के ने बड़ी धृष्टता के साथ गाइड का एक पेज सामने फैला लिया .वह क्लास में मुझसे कड़ी स्पर्धा ( द्वेष भी कह सकते हैं ) रखता था और किसी न किसी तरह मुझे पीछे छोड़ने की फिराक में भी रहता था .कुछ दिन पहले सर ने मेरे कारण ही उसको डाँटा भी था .
इस तरह सरेआम सामने नकल रखी देख मूँदड़ा सर को हैरानी भी हुई और क्रोध भी
आया .
“क्यों
बे !...क्या है यह ?”
“नकल है सर .”—वह ढिठाई के साथ बोला .
“अयं !...ऐसी
हिम्मत ! कमाल है . लगता है आगे पढ़ना
नहीं है तुझे .”
“मैं ही क्यों सर आगे वाले लोग भी तो लाए हैं नकल .”
“ आगे तो किसी के पास नहीं है .
“तलाशी लेकर देखलो सर , नहीं निकले तो फिर आपके जूते और
मेरा सिर .”--उसने कहा तो मेरे नीचे की
जमीन जैसे धँसकने लगी .
“किसकी बात कर रहा है , सामन्त की ?”
“नहीं सर और आगे .”
“रमेश ?”
“और आगे .”
उसके आगे कहने के साथ ही सर मेरे पास आकर रुक गए . मेरी साँसें थम सी गईं .
अगर सर पूछते तो मैं निश्चित ही स्वीकार कर लेती क्योंकि मुझे झूठ बोलना नहीं आता
. कभी कोशिश की भी है तो पकड़ी गई हूँ . सर ने एक बार मुझे ध्यान से देखा और फिर
पीछे उस लड़के के पास जाकर कड़ककर बोले—स्डैण्ड अप
“क्यों सर ? मैंने क्या किया ? बस
नकल ही तो बताई है .”
“गलत बताई है क्योंकि वह लड़की नकल नहीं ला सकती .”
“आपको इतना भरोसा है ?”
“भरोसा है . वह नकल के भरोसे रहने वालों में नहीं है . और
बेटा यह काम तेरा नहीं है . चुपचाप पेपर करो नहीं तो कॉपी देकर अपने घर जाओ .”
मैं ग्लानि से भर उठी . और कई दिनों तक खुद से आँखें चुराती रही . वह मेरा
पहला और अन्तिम प्रयास था . गाँव में लगभग बीस साल सर्विस करने के बाद जब मैंने
1997 में ग्वालियर स्थानान्तरण के लिये आवेदन किया तब भाग्य से उपसंचालक पद पर
श्री मूँदड़ा जी थे . वे मुझे तुरन्त पहचान गए और मेरे बिना कुछ कहे मेरा
स्थानान्तरण कर दिया . आज वे नहीं हैं पर उनके विश्वास ने मुझे एक सही दिशा दी . जो
लोग सिर्फ कमियाँ या बुराइयाँ ढूँढ़ते रहते हैं वे उनके बारे में कई तरह की बातें
करते हैं . लेकिन मेरे हृदय में आज भी वे मेरे श्रद्धेय आदर्श गुरु हैं .
दीदी! सचमुच एक प्रेरक प्रसंग है यह. अगर मैं होता तो इस "कहानी" (घटना नहीं लिख रहा) का अंत इस प्रकार होता कि
जवाब देंहटाएं"गाँव में लगभग बीस साल सर्विस करने के बाद जब मैंने 1997 में ग्वालियर स्थानान्तरण के लिये आवेदन किया तब भाग्य से उपसंचालक पद पर श्री मूँदड़ा जी थे . वे मुझे तुरन्त पहचान गए और मेरे बिना कुछ कहे मेरा स्थानान्तरण कर दिया." मुझे यह समझ नहीं आया कि क्या उन्होंने मुझे पहचाना है या मुझे ऐअया लग रहा है. क्योंकि मूंदडा सर आज भी उतने ही गंभीर थे.
मैंने हिम्मत करके उनसे पूछ ही लिया, "सर! क्या आपने मुझे पहचाना? एक बार एक लडके ने मुझपर नक़ल का आरोप लगाया था और आपने बिना मेरी तलाशी लिये केवल विश्वास के आधार पर मुझे छोड़ दिया था."
"मुझे याद है आज भी! और उस दिन मैं जानता था तुम्हारे पास नक़ल की पर्ची है! लेकिन जो ईमानदार छात्र होते हैं, उनके लिये भूल का बोध जो चमत्कार कर सकता है, वह कोई सज़ा नहीं कर सकती!... और देखो मेरा विश्वास गलत नहीं था!"
आज वे नहीं हैं, लेकिन उनका स्मरण और उनके कहे वे शब्द मुझे आज भी उनका संदेशवाहक बनाए हैं!
मगर मैं जानता हूँ कि सचाई कभी ग्लैमरस नहीं होती झूठ की तरह, इसलिए झूठ के आकर्षण को जो पार कर गया, वही सिर ऊंचा करके जीता है.
शिक्षक दिवस के अवसर पर एक नमनीय संस्मरण!!
अद्भुत .वास्तव में एक निष्कर्ष या उद्देश्य देकर कहानी के स्तर तक तो इस घटना (घटना ही है क्योंकि वह एक प्रसंग का सपाट वर्णन है ) को आपने पहुँचाया है . कहानी और घटना में यही तो फर्क होता है .अब कोशिश करूँगी कि इसे एक प्रेरक कहानी बना सकूँ .
हटाएंवाह,संस्कारजन्य सत्यशीलता और अनुचित से सावधान रहने की आदत कैसी होती है मैं समझ सकती हूँ ,और तब की गिरिजा की स्थिति भी.पर बिहारी ब्लागर की सूझ भी सज़ेदार है .एक घटना को अपनी उद्भावना से जोड़ कर कथा बना देने की कला .संभाव्य कल्पना ,किसी सत्य-कथा को कैसे अधिक रमणीय और प्रभावी बना देती है इसका प्रत्यक्ष निरूपण -यही तो कला है .
जवाब देंहटाएंसच कहा आपने .
हटाएंसच कहा आपने .
हटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 08-09-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2459 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
बहुत प्रेरक घटना या कहानी..शिक्षक दिवस पर प्रशंसनीय पोस्ट..मेरे साथ भी दसवीं में दो घटनाएँ हुईं, जो आज आपकी पोस्ट पढ़कर स्मृति में आ गयीं हैं. पहली में परीक्षा अंग्रेजी की थी, स्कूल बैग कक्षा से बाहर रखकर आना था, समय था सो मैंने व्याकरण की कॉपी कुछ देखने के लिए निकाल ली, घंटी बज गयी, जल्दी में डेस्क खोलकर कापी उसमें डाल दी, फिर भूल भी गयी. परीक्षा आरम्भ हो गयी समय समाप्त होने से पहले पता नहीं शिक्षिका को किस पर संदेह हुआ सबकी डेस्क खोलकर देखने लगीं, मुझे तो अंदेशा भी नहीं था कि मेरी डेस्क से कॉपी निकलेगी. उनका मुझपर बहुत स्नेह था, उन्होंने देखा था कि एक बार भी मैंने डेस्क नहीं खोला था. सो कॉपी देखकर भी कुछ नहीं कहा, बस एक दृष्टि भर देखा.
जवाब देंहटाएंदूसरी घटना में फिजिक्स का पेपर था, मैंने उत्तर हूबहू वही लिखा था जो कक्षा में लिखवाया गया था, रट लिया होगा, पर अध्यापिका को संदेह हो गया कि नकल की है, उन्होंने अंक भी कम दिए और सबके सामने संदेह भी व्यक्त कर दिया, उस दिन घर जाकर बहुत आँसू बहाए फिर मैंने एक पत्र उन्हें लिखा कि जिस बारे में मैं सोच भी नहीं सकती उसका दोषी मुझे न मानें. पत्र का जवाब उन्होंने दिया या नहीं अब कुछ भी याद नहीं है, किन्तु कर्मों का फल मिलकर रहता है यह अब समझ में आ रहा है.
आभार आपका . आनन्द आगया आपकी यादें पढ़कर .
जवाब देंहटाएंबहुत प्रेरक ... स्कूल के दिनों में हमेशा ही कुछ ऐसे छात्र होते हैं जो नक़ल के बल पर अच्छे पढ़ने वाले
जवाब देंहटाएंछात्रों को चुनौती देते रहते हैं ... कई बार वो सफल भी रहते हैं और उनके नम्बर भी ज़्यादा आते हैं ... पर मुझे लगता है ऐसे सवाल होने वाले विद्यार्थी असल जीवन की चुनौती को डट कर झेल माही पाते ... ऐसे अध्यापक भी हमेशा ज़हन में हमेशा के लिए रह जाते हैं जो विश्वास रखते हैं और अपने छात्रों को पहचानते हैं ... अच्छा लगा इस घटना को पढ़ कर और सलिल जी ने इस प्रेरित घटना को दिल को छू लेने वाली कहानी में परिवर्तित कर के पढ़ने का आनंद और भू बढ़ा दिया ...
बहुत प्रेरक घटना। जो लोग सच्चे होते है वो हर परिस्थिति में सच्चे ही रहते है। चाहे कुछ पल के लिए रास्ता भटक जाए, लेकिन उनकी सच्चाई उन्हें फिर अपने सच्चाई के मार्ग पर ले आती है।
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