रविवार, 14 जून 2020

छत और आँगन



आँगन जिसके बिना घर अधूरा लगता है 9
मुझे बचपन से ही घर में आँगन और छत से बड़ा लगाव रहा है .  आँगन तो कवियों की रचनाओं में भी गूँजता रहा है चाहे कविताएं वात्सल्य की हों या श्रंगार की .देशभक्ति गीत हों या लोकगीत ..आँगन बिना घर अधूरा सा लगता है .आँगन पाँवों को जमीन देता है और उड़ानों को आसमान . 
गाँव के तो हर घर में आँगन जरूर हुआ करता है . लाल माटी से लिपे आँगन में खड़िया से पूरे गए सुरुचिपूर्ण 'चौक' हमारी परम्पराओं के उत्सव, सौन्दर्य और शुचिता के प्रतीक होते हैं ,जीवन के आनन्द से परिपूर्ण , लक्ष्मी और सरस्वती का एक साथ अवतरण . 
जहाँ तक छत की बात है मुझे याद नहीं कि किसी ने छत के भी गीत गाएं हों . शायद लोगों ने छत को उस नजर से देखा ही न हो पर उसका महत्त्व भी कम नहीं . छत का होना ,परिवार में पिता या पिता जैसे ही किसी व्यक्ति का होना है .
मुझे यह सोचना बड़ी राहत देता था कि छत चाहे सीमेंट की हो या खपरैल की या फिर छान-छप्पर की ,छत के कारण ही हम धूप और वर्षा से बचे रहते हैं . यही नही मेरे लिये छत का एक और महत्त्व है . वह यह कि उस पर चढ़कर वहाँ तक देखा जा सकता है जहाँ तक आँगन से कभी नहीं देखा जा सकता .छत पर चढ़कर चीजों को देखने का हमारी दृष्टि का दायरा विस्तृत होजाता है .सोचने का तरीका बदल जाता है . 
उन दिनों हमारा घर कच्चा था . माटी की दीवारें और खपरैल की छत थी जिसे हम 'पाटौर' कहा करते थे . पाटौर जो पत्थर के पतले समतल पाटों या उनके टुकड़ों को जमाकर बनाई जाती थी (हैँ) ढालू और काफी ऊबड़-खाबड़ होती थीं .चढ़ने के लिये कोई साधन भी न था फिर भी हम किसी तरह पाटौर पर जरूर चढ़ते थे .वह किसी बड़ी उपलब्धि से कम आनन्ददायी नहीं था .शाम को जाते जाते धूप का खेतों में सोना बिखेरना , सूरज का धीरे धीरे पहाड़ के पीछे उतरना, चिड़ियों की पाँतों को आसमान में दूर तक लहराते उड़ते देखना, ..बिना किसी व्यवधान के दूर धरती पर उल्टे कटोरे की तरह टिके आसमान को निहारना....हवा और बादलों की उन्मुक्त अठखेलियाँ ,....नदी पार खड़े पीपल और गूलर के विशाल वृक्ष .,हरे-भरे खेत ,.. ऐसे अनेक अभिराम दृश्य पाटौर पर चढ़ने के बाद ही देख पाते थे . गली में निकलते जुलूस व झाँकियों का असली आनन्द पाटौर पर चढ़कर ही लिया जा सकता था . नीचे भीड़ में कोई देखने ही नहीं देता था . साँझ ढलने पर जब कि आसपास के घरों से धुँआ उठने लगता था और हमें पाटौर से उतरना होता था तब साँझ का आना कुछ अखर जाता था .
बाद में महसूस हुआ कि एक आनन्दमय जीवन के लिये सीमेंट ,कंकरीट की छत ही काफी नहीं होती अगर सिर पर एक और 'छत' न हो . किसी का हाथ पीठ पर न हो . कोई कन्धा न हो जिसपर सिर टिका कर बोझ हल्का किया जा सके . ऐसे कितने ही लोग देखे हैं जो शानदार घरों में रहते हुए भी दुखी हैं . अकेले हैं या वैचारिक विसंगतियों से जूझ रहे हैं . ऐसी छत के बिना हमें असुरक्षा घेरे रहती है . 'तूफान' ,'बारिश' और 'धूप' से जिन्दगी त्रस्त होजाती है .  खैर..
छत से दुर्ग-दर्शन
अब हमारी छत है . हर तरह से एक छत . खुली, बड़ी और मजबूत छत . आँगन में नीम है पड़ोस में विशाल सघन बरगद है , कुछ ही दूर बाजू में किला है . लॉकडाउन के सवा तीन माह जबकि घर में ही बन्द हूँ , हर सुबह-शाम को सुन्दर और आनन्दमय बनाने में इस छत की अहम् भूमिका रही है . सुबह शाम पूरा मोहल्ला कोयल की कूक से गुंजित रहता है . लेकिन  'पाटौर' के उन दिनों की याद जब पीपल बरगद के पत्तों से बनी फिरकनी को चलाने के लिये हवा हमारा अनुशरण किया करती थी ,अब भी मन के सन्दूक में सँजोकर रखी हुई है . जिन्दगी के वे दिन सबसे मूल्यवान होते हैं, जब हमारे लिये 'छप्पर' और 'खपरैल' भी किसी शानदार इमारत से कम नही होते .एक छोटी सी 'पाटौर' पर चढ़ जाना एक बड़ी उपलब्धि हुआ करता था . 
बड़े महानगरों की बहुमंजिला इमारतों में ,जिनमें घर दूर से किसी कोटर से प्रतीत होते हैं , एक की छत ही दूसरे का फर्श होती है , फिर भी सालोंसाल परस्पर अपरिचित रहते हैं .एकाकी जीते हैं ,अपने ही भँवरों में फँसे हुए ...
शहरों में बढ़ती आबादी के कारण यह व्यवस्था एक विवशता ही है पर आँगन और छत की कमी से जिन्दगी ने क्या क्या खो दिया है यह भी अनदेखा नहीं किया जा सकता .
वास्तव में घर की दीवारों पर एक छत का होना क्या मायने रखता है इसे वही जान सकता है जिसने बिना छत के ही जीवन के सबसे महत्त्वपूर्ण दिन गुजारे हों .

14 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (17-06-2020) को   "उलझा माँझा"    (चर्चा अंक-3735)    पर भी होगी। 
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  
    --

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  2. सच है, आंगन और छत के बिना घर अधूरा ही रह जाता है, रोचक और सुरूचिपूर्ण लेखन

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  3. छत और आँगन घर के अभिन्न अंग हैं। बहुत सुंदर यादें।

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  4. बहुत ही सुंदर हृदय स्पर्शी यादों से सजा गुलदस्ता. आँगन और छत में समाहित अनगिनत खुबसूरत अनुभूतियाँ.बेहतरीन सृजन आदरणीय दीदी .
    सादर

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  5. ऊँची इमारतों ने ये दोनों ही चीजें छीन ली हैं|
    आँगन और छत स्मृतियों में समाते जा रहे...सुन्दर, विचारणीय आलेख|

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  6. बहुत ही सुंदर लेख ,पढ़ते पढ़ते मुझे भी कई बातें याद आ गई ,मुझे भी आंगन छत से बहुत लगाव है साथ मे बाग बगिया से भी ,मन को शांति प्रदान करने वाली तस्वीरे ,नमस्कार गिरजा जी

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    1. नमस्कार और प्यार ज्योति जी . आपको अच्छा लगा . लिखने की सन्तुष्टि मिली .

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  7. आपका आंगन और छत का लगाव मेरे जैसे ही लगा ...एक आंगन हो आपका सा और एक छत फिर 6 महिने भी आराम से काट लूंगी। बहोत सुन्दर विवरण दीदी।🙏

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  8. छत तो कभी कभी मिल जाती है पर ये सच है की आँगन बस सोच में रह गया है ... एक एकसास रह गया है आँगन का वो भी आप या हम जैसे पीड़ी का क्योंकि जिसने जिया है उसे वही सोच सकता है ... अब आँगन की जगह गार्डेन ने ले ली है ...

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    1. जी , आपने ठीक कहा लेकिन गार्डन वाले घर तो बड़े धनी माई लोगों के हैं या बहुत पहले जमीन लेकर स्वतंत्र आवास बना लिये हैं

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