रविवार, 19 जुलाई 2020

हम कच्ची दीवार हैं


बन कजरारे मेघ वो, उमडे चारों ओर ।
रिमझिम बरसीं टूट कर अँखियाँ दोनों छोर ।

घिरी घटा घनघोर सी यादों के आकाश ।
बिजली सा कौंधे कहीं अन्तर का संत्रास ।

चातक , गहन हरीतिमा , झूला , बाग, मल्हार ।
इनसे अनजाना शहर ,समझे कहाँ बहार ।

भीग रहा यों तो शहर पर वर्षा गुमनाम ,
कोलतार की सडक पर क्या लिक्खेगी नाम ।

उमड-घुमड बादल घिरे , भरे हुए ज्यों ताव ।
टूटे छप्पर सा रिसा फिर से कोई घाव ।

उनको क्या करतीं रहें , बौछारें आक्षेप ।
कंकरीट के भवन सा मन उनका निरपेक्ष।

टप्.टप्..टप्...बूँदें गिरें , उछलें माटी नोंच ।
हम कच्ची दीवार हैं गहरी लगें खरोंच ।

6 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ! अनोखी उपमाओं से सजी सुंदर रचना

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  2. वाह ... मौसम की बारीकियों को दोहों में बख़ूबी बांध है आपने ... सहज ही आभास हो रहा है बारिश के मौसम का ...

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  3. कई बार कह चुका हूँ और आज भी वही दोहराऊँगा कि यह कला आपसे सीखनी है मुझे! कहाँ कहाँ से उपमाएँ गढ़ती हैं आप!

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