बहुत विचित्र है मन भी
जहाँ भी जाना होता है ,
चल देता है हुमक कर
मुझसे पहले ही ।
बावज़ूद इसके कि
कोई नहीं जानता इसे ।
नहीं सुनता-समझता
कोई इसकी भाषा ।
फिर भी कहना चाहता है
अपनी बात ,
चाहे कोई सुने न समझे ।
सुनकर औरों की बातें ,
मतलब निकाल लेता है,
अपनी तरह का ।
गढ़ लेता है कहानियाँ प्रेम की ,
संवेदना और लगाव की ।
दिल से दिल के जुड़ाव की ।
चल पड़ता है कहीं भी
बिना सोचे समझे
सुनकर सिर्फ दो बोल अपने से ।
नंगे पाँव लहूलुहान होते हैं
काँटे कंकड़ चुभते हैं
जलते हैं गरम रेत पर ..
लेकिन भूल जाता है
पाकर जरा सी नमी ।
पा लेता ज़मीं ।
खुश रहता है ठगा जाकर भी ।
इसका कुछ नहीं होने वाला अब
फिर ‘कुछ’ होकर भी ,
आखिर होना क्या है !