सुबह--सुबह सूरज के साथ
उतरती है...गूँजती है
उनीदी अलसाई सी गली में
एक सत्तर साल के
आदमी की आवाज--
दूध ले लो...दूध
ठकुराइन..मिसराइन..
ओ दुकान वाली पंडिताइन
दूध ले लो ...।
उसे परवाह नही कि
साँसों के भँवर में डूबती हुई सी
उसकी आवाज चिल्लाते हुए काँपती है .
नापती हैं दूरियाँ
झरोखों से झाँकती हुई सी आँखें
आखिरी पडाव तक
परवाह नही है उसे कि
अपना ही बोझ उठाने में असमर्थ से पाँव
डगमगाते हैं .
सूराख वाले जूतों को घसीटते हुए से
कसमसाते हैं ।
और उसे यह भी परवाह नहीं ..कि,
दमा की बीमारी बलात् ही
खीचना चाहती है उसे अस्सी तक
उसे परे हटाता है वह
दूध भरी बाल्टी का बोझ उठाए
वह रोज आता है ।
सूरज के साथ--साथ ।
क्योंकि उसे बचाना है अपने आप को
'निठल्ला' और ,रोटी-तोडा'
जैसी उपाधियों से ।
समेट लेना है उसे निरन्तर
ढेर सारी धूप अपने अन्दर ।
निकट आती नीरव शाम के धुँधलके से पहले
और क्योंकि उसे मुस्कराते देखना हैं
अपने पोते--पोतियों को
उनकी नन्ही कोमल हथेलियों पर
चाकलेट व बिस्किट रखते हुए ।
इसलिये वह सत्तर साल का बूढा
आता है सूरज के साथ साथ गली में
और दूध के साथ भर जाता है
भगौनी में ढेर सारी ऊर्जा
उल्लास और सुनहरी धूप सा ही
एक विश्वास भी...।
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उतरती है...गूँजती है
उनीदी अलसाई सी गली में
एक सत्तर साल के
आदमी की आवाज--
दूध ले लो...दूध
ठकुराइन..मिसराइन..
ओ दुकान वाली पंडिताइन
दूध ले लो ...।
उसे परवाह नही कि
साँसों के भँवर में डूबती हुई सी
उसकी आवाज चिल्लाते हुए काँपती है .
नापती हैं दूरियाँ
झरोखों से झाँकती हुई सी आँखें
आखिरी पडाव तक
परवाह नही है उसे कि
अपना ही बोझ उठाने में असमर्थ से पाँव
डगमगाते हैं .
सूराख वाले जूतों को घसीटते हुए से
कसमसाते हैं ।
और उसे यह भी परवाह नहीं ..कि,
दमा की बीमारी बलात् ही
खीचना चाहती है उसे अस्सी तक
उसे परे हटाता है वह
दूध भरी बाल्टी का बोझ उठाए
वह रोज आता है ।
सूरज के साथ--साथ ।
क्योंकि उसे बचाना है अपने आप को
'निठल्ला' और ,रोटी-तोडा'
जैसी उपाधियों से ।
समेट लेना है उसे निरन्तर
ढेर सारी धूप अपने अन्दर ।
निकट आती नीरव शाम के धुँधलके से पहले
और क्योंकि उसे मुस्कराते देखना हैं
अपने पोते--पोतियों को
उनकी नन्ही कोमल हथेलियों पर
चाकलेट व बिस्किट रखते हुए ।
इसलिये वह सत्तर साल का बूढा
आता है सूरज के साथ साथ गली में
और दूध के साथ भर जाता है
भगौनी में ढेर सारी ऊर्जा
उल्लास और सुनहरी धूप सा ही
एक विश्वास भी...।
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उसे बचाना जो है ,अपने आप को
जवाब देंहटाएं'निठल्ला' और ,रोटी-तोडा'
जैसी उपाधियों से ।
यह सोच जैसे किसी भी बुज़ुर्ग का पीछा करती हुई सी ..
वह सत्तर साल का बूढा
दूध के साथ भर जाता है
भगौनी में ढेर सारी ऊर्जा
और उल्लास भी ।
सुनहरी धूप सा
एक विश्वास भी...।
बहुत सुन्दर रचना ...संवेदनशीलता से भरी हुई
उसे बचाना जो है ,अपने आप को
जवाब देंहटाएं'निठल्ला' और ,रोटी-तोडा'
जैसी उपाधियों से ।
अब अधिक क्या कहूँ...आपकी रचनाएं,चाहे गद्य या हो पद्य...मन भिंगो जाती है...
जीवन के कटु सत्य इस कविता में जिस ढंग से आपने चित्रित किया है न...क्या कहूँ...
बहुत भावभीनी व यथार्थ से सामना कराती रचना... ऊर्जा काम करने से चुकती नहीं बढ़ती है...आभार!
जवाब देंहटाएंवह सत्तर साल का बूढा
जवाब देंहटाएंदूध के साथ भर जाता है
भगौनी में ढेर सारी ऊर्जा
और उल्लास भी ।
सुनहरी धूप सा
एक विश्वास भी...।
यही वह विश्वास है जिसके बल पर मानवता आज भी ज़िन्दा है।
सूरज के साथ अँगड़ाई लेती विश्व की दिनचर्या।
जवाब देंहटाएंbhaut hi prbaavpur rachna...
जवाब देंहटाएंवह सत्तर साल का बूढा
जवाब देंहटाएंदूध के साथ भर जाता है
भगौनी में ढेर सारी ऊर्जा
और उल्लास भी ।
सुनहरी धूप सा
एक विश्वास भी...।
chamatkarik shabd-rachna.......wah.
जिंदगी के कटु यथार्थ से रूबरू कराती और आशा का उजास फ़ैलाती मर्मस्पर्शी एंव खूबसूरत रचना. आभार.
जवाब देंहटाएंसादर,
डोरोथी.
जीवन का संघर्ष!!
जवाब देंहटाएंयथार्थ लिखा है ... बहुत लाजवाब ...
जवाब देंहटाएंबेहद मार्मिक मगर कटु सत्य को उजागर किया है।
जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्शी रचना....
जवाब देंहटाएंसादर...
बहुत सुंदर रचना.... अंतिम पंक्तियों ने मन मोह लिया...
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