खेत में झूलती बाजरे की रुपहली बालों को देख कर जिस तरह किसान की आँखें तृप्त होजाती हैं, उसी तरह अपने जवान और कमाऊ बेटे को देख कर विसनू की आखें तृप्त होगईं ।
"माँ की बीमारी की बात सुनी तो आना ही पडा बापू नही तो आजकल छुट्टी मिलना भारी मुश्किल है "---राकेश ने जूते उतार कर खटिया के नीचे सरकाते हुए कहा ।
तब तक रतनी ने हुलसते हुए नई दरी खटिया पर डालदी । दुबले पतले शर्मीले से राकेश की जगह ऊँचे और भरे-पूरे शरीर वाले ,सूट-बूट में सजे-सँवरे राकेश को देख रतनी का मन आषाढ-सावन की धरती हुआ जारहा था ।जिसमें अनगिन लालसाएं अंकुर की तरह फूट निकलीं थी । दो दिन पहले जो उसे साल भर बाद बेटे के आने की खबर लगी तो घर-आँगन लीप-पोत कर चौक पूर कर दीपावली की तरह सजा लिये थे । वैसे भी लक्ष्मी और कब तक रूठी रहेंगी रतनी से । रामदीन काका कह रहे थे कि "राकेश के यहाँ तो कपडे भी मशीन से धुलते हैं । भैया , गंगा में जौ बोये हैं विसनू ने ।"
"तो विसनू भैया ने भी राकेश की पढाई में कोई कसर नही छोडी । फटा-पुराना पहन कर , रूखा-सूखा खाकर भी कभी किसी के आगे तंगी का रोना नही रोया । इस पर भी दूसरों के लिये कभी ना नही निकला विसनू और उसकी घरवाली के मुँह से । भगवान एक दिन सबकी सुनता है ।"
गाँव वालों के मुँह से ऐसी बातें सुन विसनू का रोआं रोआं खिल जाता । आदमी की सबसे बडी कमाई तो यही है कि चार लोग सराहें ।
रतनी ने बेटे की मन -पसन्द भाजी बनाई थी । हुलस कर पंखा झलती हुई खाना खिलाने लगी ।
"बेटा बहू और मुन्नू को भी ले आता "-----विसनू बेटे के पास बैठ गया । वह बेटे से बहुत कुछ कहना चाहता था कि अब गाँव का माहौल बिगड रहा है इसलिये रज्जू को अपने साथ ले जा । कि बेटा इतने--इतने दिन मत लगाया कर आने में । कुछ नही तो एक चिट्ठी ही डाल दिया कर नही तो सरपंच काका के फोन पर फोन कर दिया कर । कि बेटा तू इधर ही बदली करवा ले ,हम लोगों को सहारा हो जाएगा ।.....
....और विसनू , बेटे के मुँह से सुनना भी चाहता था कि बापू मैं आँगन में ही एक हैंडपम्प लगवा देता हूँ । माँ कब तक बाहर से पानी ढोती रहेगी । कि किश्तों से कर्ज पटाने की क्या जरूरत बापू । मैं एकमुश्त रकम भर देता हूँ । कि एक दो पक्के कमरे बनवा लेते हैं । अब माँ को मिट्टी-गारा करने की क्या जरूरत । और..कि बापू अब तुम अकेले नही हो । गृहस्थी की गाडी खींचने में मैं भी तुम्हारे साथ हूँ । साथ क्या अब तो मैं अकेला ही काफी हूँ।----पर राकेश जाने किन खयालों में खोया रहा ।
"और शहर में क्या हाल-चाल हैं बेटा ?"--- आखिर विसनू ने बेटे की चुप्पी तोडने की कोशिश करते हुए पूछा ।
"सब ठीक हैं बापू ।"
"और... आमदनी वगैरा...।"
"आमदनी की क्या बताऊँ बापू ---शहर में जितनी आमदनी , उतने ही खर्चे हैं । मँहगाई आसमान छू रही है । मकान किराया, बिजली ,पानी और फोन के बिल...दूध--सब्जी दवाइयाँ..डा.की फीस ..तमाम झगडे हैं ।इस बार साइड नही मिली तो ऊपर की इनकम भी नही है । उस पर आने-जाने वालों का अलग झंझट..।"
विसनू ने हैरानी के साथ देखा कि सब--इंजीनियर राकेश की जगह कोई बेहद तंगहाल ,लाचार सा अनजान आदमी बैठा है । मन की सारी बातें मन में ही दबा कर उसके मुँह से बस इतना ही निकल सका---
"बेटा हाथ सम्हाल कर खर्च करो । जरूरत पडे तो राशन पानी घर से ले जाओ । और क्या....। हमने तो सोचा था कि एक बेटे को पढा कर हम निश्चिन्त होगए हैं पर .....।"
bahut badhiyaa
जवाब देंहटाएंआज आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
जवाब देंहटाएं...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
____________________________________
आज आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
जवाब देंहटाएं...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
____________________________________
आज के हालात को बयान करती एक प्रभावशाली रचना, आज घर-घर में ऐसे बाप बेटे मिल जायेंगे... स्वार्थ रिश्तों पर हावी होता जा रहा है या हम अपनी संवेदनाएं खोते जा रहे हैं.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी लगी यह कहानी।
जवाब देंहटाएंजैसे जोर से दिल निचुड़ गया....
जवाब देंहटाएंएक शब्द नहीं कहने को...
नमन आपकी लेखनी को !!!!!
:(
जवाब देंहटाएंयह कितनों के जिंदगी की हकीकत है..