रविवार, 26 जून 2011

चलते-चलते

बात एक रुपया की
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ग्वालियर से मुरैना जाने वाली एक प्राइवेट बस । जैसा कि अक्सर ही कण्डक्टर को यात्रियों से किराए के लिये जूझना पडता है ,वह एक लठैत किस्म के यात्री से उलझ रहा था ।
"चल एक रुपया और निकाल ।"
"काय का एक रुपैया ।"
"किराए का और काए का ।"
"बस पे नया आया है क्या ?
"तू भी क्या पहली बार बस में बैठा है? पता नही है कि किराया बढ गया है ?"
बढे या घटे पर बामौर के अब भी पाँच ही लगते हैं ।"
"अगर तू लगने की कहे तो फिर लगते तो दस है ।"
"ऐसी-तैसी दस लगते हैं । का हमसे ही लखपती बनैगौ तू ।"
"चल ..चल टैम खराब मत कर । चुपचाप रुपैया निकाल ।"
"और जो नही निकालूँ तो !"
"निकालता है कि उतारूँ बस से ..ए रोक्के...।" कण्डक्टर ने सीटी बजाई ।
"अच्छा ! आज तू उतार के देखले और फिर कल यहाँ से बस निकाल के बताना -"-इस बार यात्री खडा होगया । दोनों हाथापाई के लिये तैयार । दूसरे यात्री कुछ शंका और कुछ कौतूहल से इस बहस को देख रहे थे । कुछ जल्दी चलने की गुहार भी लगा रहे थे ।
"देख अभी तो पाँच दे भी रहा हूँ नही तो वो भी नहीं मिलेंगे ।"
"किराया तो अब पूरा ही लूँगा नही तो ये ले बस खडी है । सेवकराम गाडी रोक.. ।"-- ड्राइवर सेवकराम ने सडक के एक तरफ बस खडी करदी । कण्डक्टर जुझारू तेवर लिये चेहरे को यात्री की आँखों के पास ले जाकर बोला--
"धमकी देता है बेटा ! ऐसी बन्दरघुडकियों से डर गए तो करली बसबाजी...। रोज तेरे जैसे एक सौ पैंसठ मिलते हैं । समझा । सडक तेरे बाप की नही है जो... ।"
नही , यह बस तेरे बाप की जरूर है । है ना ?
"बाप की न सही ,फूफा की तो है ही ।"
"तब तो तेरे फूफा का नाम सोबरनसिंह ही होगा ।" यात्री ने ठट्ठा करते हुए कहा ।
"सही सोचा है बेटा ! तू भी अच्छी तरह जानले हमारे सोबरन फूफा को और ..."
"तुमसे थोडा ही कम जानता हूँ ।"-यात्री मुस्कराते हुए 'तू' से .'तुम' पर आगया ।
"फिर तो उनसे जरूर तुम्हारा कोई नाता है ।"
"वो मेरे भाई के चचिया ससुर हैं ।"
"ओ.. तो तुम लाखन के भाई हो !" कन्डक्टर थोडा लज्जित हुआ सा मुस्कराया ।
"भाई ही समझ लो । हमारी उनकी दाँत काटी रोटी है ।"
ओ ! अरे !! अच्छा !!! .....दोनों ने पहले एक दूसरे को अचरज और पुलक के साथ देखा और ठहाका लगा कर हँस पडे ।
"हाँ तो ले लो भैया अपना एक रुपया । धन्धे में नातेदारी नही चलनी चाहिये ।" यात्री ने हँसते हुए रुपया बढाया और कण्डक्टर ने कानों से हाथ लगा कर कहा -----"अरे तुम नातेदार निकले । अब क्या नरक में भिजवाओगे ।"
कण्क्टर ने किराया तो लौटाया ही ऊपर से ग्यारह रुपए भेंट कर पाँव छुए । दोनों के साथ--साथ सारे यात्री भी हँस पडे ।

10 टिप्‍पणियां:

  1. खूब रही ये यात्रा भी, याद रहेगी।

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  2. गिरिजा जी!

    कमाल का किस्सा है "मौसेरे भाइयों" का.. और सबसे मज़ेदार तो सम्वाद हैं.. कई बार इस तरह के दृश्य से दो चार होना पड़ा है, ऐसा लगा जैसे उसी बस में सफ़र कर रहा हूँ!!

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  3. वाह.. क्या अंदाज है आपकी भाषा का, पढ़ते-पढ़ते लगता है जैसे हम भी उसी बस में हैं..और ये भारत का दिल ही है जहाँ दोस्ती की भी इतनी कद्र की जाती है...वरना तो लोग अपने पिता से भी किराया ले लेते हैं...

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  4. बहुत खूब ! क्या बात है गिरिजाजी, वाह ! क्या खूब संवाद और प्रवाह है और द्शयांकन तो गजब का।
    आपकी कलम तो बस, कमाल की है ।

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  5. संवाद की चपलता लिए हुए कहानी सस्मरण , रोचक दृश्यावलोकन प्रस्तुत कर रहा है

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  6. मजेदार ! हर जगह यही तो हो रहा है ! इस लघुकथा ने बहुत कुछ कह दिया !
    आभार !

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  7. आपके कथाओं की तो व्यग्रता से प्रतीक्षा रहा करती है....

    क्या पकड़ है आपकी लेखनी पर, व्यक्ति के मनोभावों पर.....बस जबरदस्त...

    आनंद आ गया...

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