राखी के बदले
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नभ के हिंडोले पर, झूल रहीं घटाएं ।
गा रहीं हैं मल्हारें , रिमझिम फुहारें ।
इस बार राखी पर ,
बाँधूँगी भैया ,तुम्हारी कलाई पर ,
रेशमी डोरी आत्मीयता की ।
सजाऊँगी आरती आँखों में ।
और लगाऊँगी माथे पर ,
टीका विश्वास का ।
तुम भी , भैया इस बार ,
राखी के बदले --रुपए न देना ।
न ही कोई उपहार ।
दे सको तो दे देना मुझे ,
बचपन का एक दिन ।
जी लेना मेरे साथ ,
उस आँगन में बिताए कुछ मीठे पल ,
जहाँ हम मिल कर खाते -खेलते थे ।
और चिडियों की तरह चहकते थे ।
और ढँढ देना मेरी वो अठन्नी भी ,
जो खो दी तुमने बडे होते--होते ॥।
यदि कुछ खरीदना ही हो ,( राखी के बदले )
तो खरीद देना गाँव की हाट से ,
रंगीन रिबनों में लिपटा स्नेह ।
काँच के कंगनों में खनकती उन्मुक्त हँसी ---
जो कही खोगई सी लगती है ।
हो सके तो मेरे भैया ,
तुम छुट्टी लेकर आजाना ।
बरस जाना , सूखी फसल पर ।
भर जाना ----गाँव की सूखी पोखर ।
संझा-बाती की बेला में ,
जला जाना माँ की पूजा का दीपक ।
और ढूँढ देना ,
कहीं रख कर भूला हुआ
माँ का चश्मा ।
गिरिजा दी! आभार हमरे घर आने का...आज के ब्यस्त समय में छुट्टी नहीं मिलने से प्यार नहीं कम होता है..आजकल बहिन लोग भी समझने लगी है..भला हो संचार साधन का कि बहनें दूर रहकर भी पास होती हैं..
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