प्राथमिक शाला की शिक्षिका का एक गीत
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अपने तेतीस वर्ष के सेवाकाल में प्रारम्भ के दस वर्ष मैंने प्रा. वि. में बिताए थे । मैं स्वयं को आदर्श या परिपूर्ण शिक्षिका तो नही मानती ,पर मुझे जो कुछ करने मिला उसे पूरी ईमानदारी से निभाने की कोशिश जरूर करती हूँ । कम से कम अपने विद्यार्थियों का स्नेह तो मुझे भरपूर मिलता रहा । लेकिन जो सन्तुष्टि व आनन्द मुझे प्राथमिक कक्षाओं , विशेषतः पहली-दूसरी कक्षाओं को पढाने में मिला वह फिर कभी नहीं मिला । वे मेरे अध्यापन काल के सबसे खूबसूरत साल थे । मासूम बच्चों केबीच,बच्चाबन कर पढाने का उन्हें कुछ सिखा पाने का अहसास अनौखा था ।आज बडे विद्यार्थी भी
मासूम ही हैं पर उन्हें प्राथमिक कक्षाओं में जो सीख लेना चाहिये था , नही सीख सके और अबपाठ्यक्रम और परीक्षा परिणाम का दबाब न तो उन्हें और न ही शिक्षक को कुछ सिखाने का अवकाश देता है खींच तान कर किसी तरह पाठ्यक्रम पूरा होगया तो बहुत समझो । दरअसल पढाई का उद्देश्य केवल
परीक्षा परिणाम पर केन्द्रित होगया है । हमारी शिक्षा-व्यवस्था इसके लिये काफी हद तक जिम्मेदार है । खैर इस विषय में फिर कभी ..। अभी तो उस गीत और गीत के बारे में पढें । जब मैं प्रा. वि. तिलौंजरी में बहुत छोटे बच्चों को पढाती थी ,मैने अपनी अनुभूतियों को अनायास ही इस गीत
में ढाल दिया था ।यह गीत सन् 1987 मई की चकमक में छपा था । वही चकमक जो आज भी एकलव्य(भोपाल )से निकल रही है ,काफी साज-सज्जा के साथ । उन दिनों उसका प्रारम्भ-काल था पर रचनाओं का स्तर कमाल का था । सम्पादक थे श्री राजेश उत्साही जी । यह अलग से लिखने का विषय है कि कैसे चकमक से ही मेरी रचनाओं का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ । और कैसे श्री उत्साही जी ने सुदूर गाँव की,... ,बाहर की दुनिया से दूर अपनी शाला तक ही सीमित एक शिक्षिका को स्रजन में मार्गदर्शन व प्रोत्साहन दिया । वे मेरे लिये किसी अच्छे शिक्षक से कम नहीं हैं । लगभग चालीस कविता- कहानियाँ उत्साही जी के सम्पादन-काल में ही चकमक में प्रकाशित हो चुकीं हैं । रचनाएं पहले भी लिखी गईं पर यह मेरी पहली प्रकाशित रचना है । कक्षा में हुई मेरी अनुभूतियों की एक साधारण, ईमानदार,और आत्मीय अभिव्यक्ति को ,जो हर समर्पित शिक्षक को समर्पित है , आप पढ कर विचार अवश्य लिखें----
चिडिया घर
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मेरी शाला है चिडिया घर ।
हँसते खिलते प्यारे बच्चे ,
लगते हैं कितने सुन्दर ।
फुदक-फुदक गौरैया से ,
कुर्सी तक बार-बार आते ।
कुछ ना कुछ बतियाते रहते ,
हरदम शोर मचाते ।
धमकाती तो डर जाते ,
हँसती तो हँसते हैं मुँह बिचका कर ।
मेरी शाला......
तोतों सा मुँह चलता रहता ,
गिलहरियों से चंचल हैं ।
कुछ भालू से रूखे मैले,
कुछ खरहा से कोमल हैं ।
दिन भर खाते उछल कूदते
सारे हैं ये नटखट बन्दर ।
मेरी शाला.....
हिरण बने चौकडियाँ भरते ,
ऊधम करते जरा न थकते ।
सबक याद करते मुश्किल से
बात--बात पर लडते--मनते ।
पंख लगा उडते हैं मानो,
आसमान में सोन कबूतर ।
मेरी शाला.....।
पल्लू पकड खींच ले जाते ।
मुझको उल्टा पाठ पढाते ।
बत्ती खोगई ...धक्का मारा..
शिकायतें पल--पल ले आते ।
और नचाते रहते मुझको ,
काबू रखना कठिन सभी पर ।
मेरी शाला....।
पथ में कहीं दीख जाती हूँ ,
पहले तो गायब होजाते ।
कही ओट से ---दीदी...दीदी...,
चिल्लाते हैं , फिर छुप जाते ।
कही पकड लेती जो उनको ,
अपराधी से होते नतसिर ।
मेरी शाला....।
जरा प्यार से समझाती हूँ ,
वे बुजुर्ग से हामी भरते ।
मनमौजी हैं अगले ही पल ,
वे अपने मन की ही करते ।
बातें मेरी भी सुनते हैं ,
पर लगवाते कितने चक्कर ।
मेरी शाला ....
गोरे , काले, मोटे दुबले ,
लम्बे नाटे ,मैले, उजले ।
रूखे , कोमल,सीधे चंचल,
अनगढ पत्थर से भी कितने ।
पर जैसे, जितने भी हैं ,
लगते प्राणों से हैं बढ कर ।
मेरी शाला है चिडिया घर । .
--
गिरिजा कुलश्रेष्ठ
मोहल्ला - कोटा वाला, खारे कुएँ के पास,
ग्वालियर, मध्य प्रदेश (भारत)
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अपने तेतीस वर्ष के सेवाकाल में प्रारम्भ के दस वर्ष मैंने प्रा. वि. में बिताए थे । मैं स्वयं को आदर्श या परिपूर्ण शिक्षिका तो नही मानती ,पर मुझे जो कुछ करने मिला उसे पूरी ईमानदारी से निभाने की कोशिश जरूर करती हूँ । कम से कम अपने विद्यार्थियों का स्नेह तो मुझे भरपूर मिलता रहा । लेकिन जो सन्तुष्टि व आनन्द मुझे प्राथमिक कक्षाओं , विशेषतः पहली-दूसरी कक्षाओं को पढाने में मिला वह फिर कभी नहीं मिला । वे मेरे अध्यापन काल के सबसे खूबसूरत साल थे । मासूम बच्चों केबीच,बच्चाबन कर पढाने का उन्हें कुछ सिखा पाने का अहसास अनौखा था ।आज बडे विद्यार्थी भी
मासूम ही हैं पर उन्हें प्राथमिक कक्षाओं में जो सीख लेना चाहिये था , नही सीख सके और अबपाठ्यक्रम और परीक्षा परिणाम का दबाब न तो उन्हें और न ही शिक्षक को कुछ सिखाने का अवकाश देता है खींच तान कर किसी तरह पाठ्यक्रम पूरा होगया तो बहुत समझो । दरअसल पढाई का उद्देश्य केवल
परीक्षा परिणाम पर केन्द्रित होगया है । हमारी शिक्षा-व्यवस्था इसके लिये काफी हद तक जिम्मेदार है । खैर इस विषय में फिर कभी ..। अभी तो उस गीत और गीत के बारे में पढें । जब मैं प्रा. वि. तिलौंजरी में बहुत छोटे बच्चों को पढाती थी ,मैने अपनी अनुभूतियों को अनायास ही इस गीत
में ढाल दिया था ।यह गीत सन् 1987 मई की चकमक में छपा था । वही चकमक जो आज भी एकलव्य(भोपाल )से निकल रही है ,काफी साज-सज्जा के साथ । उन दिनों उसका प्रारम्भ-काल था पर रचनाओं का स्तर कमाल का था । सम्पादक थे श्री राजेश उत्साही जी । यह अलग से लिखने का विषय है कि कैसे चकमक से ही मेरी रचनाओं का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ । और कैसे श्री उत्साही जी ने सुदूर गाँव की,... ,बाहर की दुनिया से दूर अपनी शाला तक ही सीमित एक शिक्षिका को स्रजन में मार्गदर्शन व प्रोत्साहन दिया । वे मेरे लिये किसी अच्छे शिक्षक से कम नहीं हैं । लगभग चालीस कविता- कहानियाँ उत्साही जी के सम्पादन-काल में ही चकमक में प्रकाशित हो चुकीं हैं । रचनाएं पहले भी लिखी गईं पर यह मेरी पहली प्रकाशित रचना है । कक्षा में हुई मेरी अनुभूतियों की एक साधारण, ईमानदार,और आत्मीय अभिव्यक्ति को ,जो हर समर्पित शिक्षक को समर्पित है , आप पढ कर विचार अवश्य लिखें----
चिडिया घर
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मेरी शाला है चिडिया घर ।
हँसते खिलते प्यारे बच्चे ,
लगते हैं कितने सुन्दर ।
फुदक-फुदक गौरैया से ,
कुर्सी तक बार-बार आते ।
कुछ ना कुछ बतियाते रहते ,
हरदम शोर मचाते ।
धमकाती तो डर जाते ,
हँसती तो हँसते हैं मुँह बिचका कर ।
मेरी शाला......
तोतों सा मुँह चलता रहता ,
गिलहरियों से चंचल हैं ।
कुछ भालू से रूखे मैले,
कुछ खरहा से कोमल हैं ।
दिन भर खाते उछल कूदते
सारे हैं ये नटखट बन्दर ।
मेरी शाला.....
हिरण बने चौकडियाँ भरते ,
ऊधम करते जरा न थकते ।
सबक याद करते मुश्किल से
बात--बात पर लडते--मनते ।
पंख लगा उडते हैं मानो,
आसमान में सोन कबूतर ।
मेरी शाला.....।
पल्लू पकड खींच ले जाते ।
मुझको उल्टा पाठ पढाते ।
बत्ती खोगई ...धक्का मारा..
शिकायतें पल--पल ले आते ।
और नचाते रहते मुझको ,
काबू रखना कठिन सभी पर ।
मेरी शाला....।
पथ में कहीं दीख जाती हूँ ,
पहले तो गायब होजाते ।
कही ओट से ---दीदी...दीदी...,
चिल्लाते हैं , फिर छुप जाते ।
कही पकड लेती जो उनको ,
अपराधी से होते नतसिर ।
मेरी शाला....।
जरा प्यार से समझाती हूँ ,
वे बुजुर्ग से हामी भरते ।
मनमौजी हैं अगले ही पल ,
वे अपने मन की ही करते ।
बातें मेरी भी सुनते हैं ,
पर लगवाते कितने चक्कर ।
मेरी शाला ....
गोरे , काले, मोटे दुबले ,
लम्बे नाटे ,मैले, उजले ।
रूखे , कोमल,सीधे चंचल,
अनगढ पत्थर से भी कितने ।
पर जैसे, जितने भी हैं ,
लगते प्राणों से हैं बढ कर ।
मेरी शाला है चिडिया घर । .
--
गिरिजा कुलश्रेष्ठ
मोहल्ला - कोटा वाला, खारे कुएँ के पास,
ग्वालियर, मध्य प्रदेश (भारत)
इस गीत को सादर नमन!
जवाब देंहटाएंएक अनूठा गीत,
जो किसी का भी मन जीत सकता है!
नन्हे-मुन्नों और उनके विद्यालय के लिए
कोमल और सुंदर भावनाओं से सजा एक प्रभावशाली गीत!