बुधवार, 18 मई 2011

एक साल

19 .5 .2011
आज काकाजी (पिताजी) को गए एक साल हो गया । धरती ने भले ही पूरे तीन सौ पेंसठ दिन पार कर लिये है पर मन तो जैसे एक पग भी नही चल पाया है । वह स्मृतियों की दीवार के सहारे खडा उस गहरे गड्ढे को देख रहा है जो एक वृक्ष के उखडने से हुआ है और जिसके कारण आगे जाने का रास्ता ही बन्द हो गया है । सावन--भादों की झडी उसमें एक इंच मिट्टी तक नही डाल पाई है ।
कितनी अजीब बात है कि एक घटना जो दूसरों के स्तर पर हमें सामान्य लगती है अपनी निजी होने पर अति विशिष्ट होजाती है । दूसरों की नजर से देखें तो काकाजी का जाना कोई खास दुखद घटना नही है । पिचहत्तर पार चुके थे । हड्डी टूट जाने के कारण ढाई महीनों से बिस्तर पर थे । उनके बच्चों के बच्चे तक लायक हो चुके हैँ विवाहित होकर माता-पिता बन चुके हैं । पर मुझे अभी तक जाने क्यों लगता है कि कही कुछ ठहर गया है ,कुछ शेष रह गया है । अगर बचपन कही ठहर जाता है तो आदमी आजीवन उसके चलने की प्रतीक्षा में बच्चा ही बना उम्र तमाम कर लेता है । मुझे भी कुछ ऐसा ही लगता है । जैसे जमीन से वंचित गमले में ही पनपता एक वृक्ष बौनसाई बन कर रह जाता है । मैं शायद आज भी उन्ही पगडण्डियों पर खडी हूँ जिन पर चलते हुए मैं कभी एक कठोर शिक्षक में अपने पिता की प्रतीक्षा करती हुई फ्राक से चुपचाप आँसू पौंछती रहती थी । काकाजी और मेरे बीच वह कठोरता दीवार बन कर खडी रही । एक उन्मुक्त बेटी की तरह मैं उनसे कभी मिल ही नही पाई । यह मलाल आज भी ज्यों का त्यों है ।
काकाजी के लिये इस शेष रही पीडा को शब्दों में ढाल देने के प्रयास में मैं सफल हो सकूँ यही लालसा है । आज एक नया ब्लाग शुरु कर रही हूँ --कथा--कहानी । कोशिश करूँगी कि माह दो माह में एक कहानी तो दी जासके। ये वे पुरानी कहानियाँ होंगी जो आज तक पूरी नही हो सकीं हैं । पहली कहानी काफी कुछ (खासतौर पर शिक्षक वाले प्रसंग केवल उन्ही के हैं )काकाजी से प्रेरित है । यह एक परिपूर्ण और अच्छी कहानी तो नही कही जासकती । लेकिन आप सबके विचार मुझे वहाँ तक शायद कभी पहुँचा सकेंगे ऐसी उम्मीद है । आप सबसे अपेक्षा है कि मेरी कहानियों को अपना कुछ समय अवश्य दें ।
यहां उन कविताओं को पुनः दे रही हूँ जिनके साथ --यह मेरा जहाँ --शुरु हुआ । पढ कर अपनी राय से मुझे लाभान्वित करें ।

पिता से आखिरी संवाद
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(1)
आज ..अन्ततः,
तुमने अलविदा कह ही दिया ।
मेरे जनक ।
सब कहते हैं.....और ..मैं भी जानती हूँ कि,
अब कभी नहीं मिलोगे दोबारा..
लेकिन आज भी,
जबकि तुम्हारी धुँधली सी बेवस नजरें,
पुरानी सूखी लकडी सी दुर्बल बाँहें,
और पपडाए होंठ,
बुदबुदाते हुए से अन्तिम विदा लेरहे थे,
मैं थामना चाह रही थी तुम्हें,
कहना चाहती थी कि,
रुको,..काकाजी ,
अभी कुछ और रुको
शेष रह गया है अभी ,
बाहों में भर कर प्यार करना ,
अपनी उस बेटी को ,
जो कभी पगडण्डियों पर चलते हुए,
दौड-दौड कर पीछा किया करती थी,
तुम्हारे साथ रह कर तुम्हारी उँगली थामने..
रास्ता छोटा हो जाता था
तुमसे गिनती सीखते या
सफेद कमलों के बीच तैरती बतखों को देखते
आज भी.....दुलार को तरसती तुम्हारी वही बेटी
अकेली खडी है उन्ही सूनी पथरीली राहों पर ।
अभी तक पहली कक्षा में ही,
आ ,ई , सीखती हुई ,
तलाश रही है राह से गुजरने वाले
हर चेहरे में ।
तुम्हारा ही चेहरा ।
भला ऐसे कोई जाता है
अपनी बेटी को,
सुनसान रास्ते में अकेली छोड कर ।

(2)
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यूं तो अब भौतिक रूप से,
तुम्हारे होने का अर्थ रह गया था,
साँस लेना भर एक कंकाल का
धुँधलाई सी आँखों में
तिल-तिल कर सूखना था
पीडा भरी एक नदी का ।
उतर आना था साँझ का
उदास थके डैनों पर ।
लेकिन अजीब लगता है
फूट पडना नर्मदा या कावेरी का
यों थार के मरुस्थल में
पूरे वेग से ।
स्वीकार्य नही है
तुम्हारा जाना
जैसे चले जाना अचानक धूप का
आँगन से, ठिठुरती सर्दी में ।
बहुत अखरता है,
यूँ किसी से कापी छुडा लेना
पूरा उत्तर लिखने से पहले ही ।
और बहुत नागवार गुजरता है
छीन लेना गुडिया , कंगन ,रिबन
किसी बच्ची से
जो खरीदे थे उसने
गाँव की मंगलवारी हाट से ।

14 टिप्‍पणियां:

  1. इस रिक्तता की पूर्ति तो नहीं हो सकती है! मेरी सम्वेदनायें।

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  2. शेष रह गया है अभी ,
    बाहों में भर कर प्यार करना ,
    अपनी उस बेटी को ,
    जो कभी पगडण्डियों पर चलते हुए,
    दौड-दौड कर पीछा किया करती थी,
    तुम्हारे साथ रह कर तुम्हारी उँगली थामने..
    रास्ता छोटा हो जाता था
    ........................
    यूं तो अब भौतिक रूप से,
    तुम्हारे होने का अर्थ रह गया था,
    ...................
    पर क्यों...क्यों स्वीकार्य नही है
    तुम्हारा जाना
    जैसे चले जाना अचानक धूप का
    आँगन से, ठिठुरती सर्दी में । nihshabd

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  3. सच है पिता की कमी की पूर्ति कभी नहीं हो सकती और उम्र के किसी भी पडाव पर हों उनका होना बहुत मायने रखता है ।

    मगर इस पर किसी का जोर नहीं ।

    जितना साथ मिला वह बहुत बडा खजाना है ।
    आपके खजाने से निकले मोतियों की आब महसूस करके हम फिर सम्रद्ध हुए ।

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  4. आदरणीया पिताजी को श्रद्धा सुमन अर्पित हैं!
    कोटि कोटि नमन!

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  5. किसी को भी जीवन मुक्कमल नहीं मिलता, बचपन हमारे साथ ताउम्र चलता है लेकिन एक न एक दिन उसे भी विदा करना ही होता है... आपके पिता को सादर स्मरण करते हुए आपको शुभकामनायें!

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  6. धुंधली आँखों और भरे मन ने समस्त शब्दों को बहा दिया है...क्या कहूँ ????

    बहुत बहुत भावुक कर दिया आपने...

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  7. भला ऐसे कोई जाता है
    अपनी बेटी को,
    सुनसान रास्ते में अकेली छोड़ कर।

    पिता जी का नश्वर शरीर ही गया है। वे तो ज़िंदा हैं आपकी रूह में, आपके रूप में।

    श्रद्धांजलि उस शिक्षक व्यक्तित्व को जिसने आप सी कृतज्ञ बेटी का निर्माण किया।

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  8. पिता के साथ गुजारा हुआ बचपन और अब विछडते समय कुछ और रुक जाते की हसरत मानव की आम मनोबृत्ति का अच्छा चित्रण करती कविता

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  9. पिता और पुत्री के बीच संवाद जैसे विषय को बखूबी उकेरा है आपने, आपको बधाई और बस निशब्द .....

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  10. पिता की कमी कौन पूरी कर सकता है...

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  11. तिल-तिल कर सूखना था
    पीडा भरी एक नदी का ।
    उतर आना था साँझ का
    उदास थके डैनों पर ।

    बेहद गहन और मार्मिक चित्रण !

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  12. आदरणीया गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी
    सादर प्रणाम !

    आपकी यह पोस्ट अन्दर तक भिगो गई ...
    माँ-बाप से किसी का मन कभी नहीं भर सकता .
    रचना के भाव से अपनी आत्मा को स्पर्श कर रहा हूं ...
    ऐसी रचनाओं पर कुछ कहने की बजाय महसूस करना अधिक भाता है .

    मैं तो अपने पिताजी को २० वर्ष पहले खो चुका ...
    समय मिले तो मेरी एक रचना पढ - सुन कर देखें
    आए न बाबूजी

    आपके पूज्य पिताश्री को सादर श्रद्धांजलि !

    हार्दिक शुभकामनाओं सहित

    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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