बुधवार, 9 नवंबर 2011

एक नदी

मुझे क्या पता कि
किधर है ढाल
और किस बनावट की
यह धरती है
मैं तो इतना ही जानती हूँ कि
एक नदी है जो
सिर्फ तुम्हारी ओर
बहती है ।
किनारों को छूती हुई
एक सदानीरा नदी ।
ढाल बदला नही जा सकता
इसलिये नदी का प्रवाह भी
बदला नही जासकता ।
तुम भी मत कोशिश करो
उसे बदलने या रोकने की ।
रोकने से बाढ के हालात बनते हैं
बस्तियाँ डूबतीं हैं ।
सिमट जाती है जिन्दगी एक ही जगह
वर्षों तक पानी ,सीलन और सडन में
कुलबुलाते है कीडे--मकोडे ।
नदी को बहने दो ।
बहेगी तो साफ रहेगी
धरती को सींचेगी ।
बुनेगी हरियाली के कालीन
नदी को मत रोको हठात् ही
उसे बहने दो ।
सृजन की कथाएं कहने दो ।
हो सके तो तुम भी बहो
इस नदी के साथ
नही तो किनारों के साथ
चलो जहाँ तक चल सको ।
नदी तुम्हें भी सिखा देगी
बहना , उछलना , मचलना
और निरन्तर सींचना धरती को ।

11 टिप्‍पणियां:

  1. गिरिजा जी! संबंधों की बुनियादी सुंदरता को बयान करती एक खूबसूरत रचना.. सही कहा है आपने जो ढाल है उसे बदलने की आवश्यकता नहीं.. क्योंकि इस नदी की विशेषता यह है कि हर देखने वाले को यह ढाल खुद से दूसरी तरफ दिखती है!! और रिश्तों की गंगा बस बहती है कभी उल्टी गंगा नहीं होती!!

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  2. नदी तुम्हें भी सिखा देगी
    बहना , उछलना , मचलना
    और निरन्तर सींचना धरती को ।
    वाह!

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  3. नदी तुम्हे भी सिखा देगी ..
    बेहद खूबसूरत !

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  4. नदी को मत रोको हठात् ही
    उसे बहने दो ।
    सृजन की कथाएं कहने दो ।
    हो सके तो तुम भी बहो

    बहुत खूबसूरत!

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  5. बहुत सुन्दर व सार्थक संदेश देती रचना।

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  6. जिधर ढाल होगी, उधर बहाव होगा, पर क्या किया जाये, सब पहाड़वत खड़े हैं।

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