सोमवार, 12 दिसंबर 2011

एक सुरमय सुरम्य पर्व


ग्वालियर को गालव ऋषि की तपोभूमि , वीरांगना लक्ष्मीबाई की अन्तिम कर्मभूमि के साथ तानसेन नगरी होने का गौरव भी मिला हुआ है ।
वही संगीत-सम्राट तानसेन जिनके लिये सूरदास जी ने कहा था-"विधना यह जिय जानिकै शेषहि दिये न कान ,धरा ,मेरु सब डोलिहैं तानसेन की तान ।" वही तानसेन जो अकबर के दरबार के नौ रत्नों में से एक थे और वही तानसेन जो भारतीय शास्त्रीय संगीत के पर्याय माने जाते हैं ।
तानसेन उनका नाम नही बल्कि उपाधि है जो बाँधवगढ के राजा रामचन्द्र ने उन्हें दी थी । कहते हैं कि उनका मूल नाम तन्ना मिश्र ( कुछ लोग पाण्डे भी कहते हैं ) था । उनका जन्म ग्वालियर के पास ही बेहट ग्राम में संवत् 1563 में हुआ था । उस समय ग्वालियर में कला निपुण संगीत रसिक राजा मानसिंह तोमर का शासन था इसलिये ग्वालियर संगीतकला का विख्यात केन्द्र था और बैजू बक्सू कर्ण और मेहमूद जैसे संगीताचार्य व गायक एकत्र थे । अनुमान है कि तानसेन ने इन्ही से प्रारम्भिक संगीत शिक्षा ली होगी । राजा मानसिंह के बाद वह संगीत-मण्डली बिखर गई और तानसेन वृन्दावन चले गए । वहाँ उन्होंने स्वामी हरिदास से संगीत की उच्चशिक्षा ली थी । बाद में अष्टछाप के संगीताचार्य गोविन्दस्वामी से भी गायन सीखा था । वे क्रमशः दौलत खाँ, राजा रामचन्द्र तथा अकबर के दरबार की शोभा रहे थे ।
तानसेन ध्रुपद शैली के विख्यात गायक व दीपक राग के विशेषज्ञ थे । जनश्रुति है कि जब वे दीपक राग गाते थे तब अग्नि प्रज्ज्विलित हो जाती थी । इस बात में कितना तथ्य है यह तो नही मालूम लेकिन यह तय है कि तानसेन को संगीत कला का पर्याय माना जाता है । उन्होंने संगीतसार व रागमाला नामक दो ग्रन्थों की तथा अनेक ध्रुपदों की रचना की । तानसेन की इस नगरी में किले के अलावा अनेक दर्शनीय मन्दिर मकबरे व दरगाह हैं(जिनसे आगे कभी परिचय करेंगे) जिनकी दीवारें और मीनारें आज भी जैसे गुनगुनातीं हैं । हर पत्थर से सुरों की झंकार गूँजती है और प्रतिवर्ष दिसम्बर माह में तो माटी का कण-कण राग-रंजित हो उठता है ,हवा का हर झोंका लय ताल में बहता है,जब तानसेन-समारोह में देश भर से शास्त्रीय संगीत के विशिष्ट कलाकार यहाँ आकर अपनी कला बिखेरते हैं और स्वयं को धन्य मानते हैं । यहाँ देश के लगभग सभी शीर्षस्थ और महान शास्त्रीय गायक प्रस्तुतियाँ दे चुके हैं ।संगीत-सम्राट की स्मृति को अक्षुण्ण रखने के लिये इस समारोह का आयोजन उस्ताद अलाउद्दीन खाँ संगीत व कला अकादमी तथा मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद् व संस्कृति विॆभाग करता है ।
बैजाताल का एक दृश्य---


इस बार 9 दिसम्बर से 12 दिसम्बर तक तानसेन--समारोह चला । यह 87 वां समारोह था । प्रतिवर्ष यह तानसेन के समाधि-स्थल (हजीरा) पर ही सम्पन्न होता था जहाँ मोहम्मद गौस का खूबसूरत मकबरा भी है । मोहम्मद गौस तानसेन के अत्यन्त श्रद्धास्पद थे । लेकिन इसबार यह समारोह बैजाताल पर सम्पन्न हुआ । ग्वालियर में अनेक प्राचीन इमारतों के अलावा ,सिन्धिया घराने का भी जो वास्तु-वैभव जहाँ-तहाँ बिखरा है, बैजाताल उसका एक सुन्दर उदाहरण है । समारोह में इसकी साज-सज्जा विशेष रूप से की गई ।
रात्रि के समय बैजाताल का दृश्य---


फिर भी कहा जासकता है कि संगीत कला है ,हृदय व आत्मा का विषय है । इसे बाहरी साज-सज्जा नही बल्कि कला-साधकों की प्रस्तुति विशिष्ट बनाती है । कलाकार साज-सज्जा से नही श्रोताओं के ध्यान से प्रभावित होता है । अन्तिम दिन सुरों की फुहारें बेहट गाँव की माटी को भिगोतीं हैं । आखिर संगीत का वह मधुर स्वप्न यहीं तो साकार हुआ था ।
इसबार बनारस घराने की प्रसिद्ध ख्याल व ठुमरी-गायिका सुश्री सविता देवी को तानसेन अलंकरण से अलंकृत किया गया । इनके अलावा श्री कमलकामले,गौरी पाठारे ,सलिल भट्ट समरेश चौधरी अश्विनी भिडे ,मोइनुद्दीन खाँ आदि प्रख्यात कलाकारों ने मनमोहक गायन-वादन से श्रोताओं को डुबोदिया । यहाँ बिहारी का यह दोहा प्रासंगिक है कि, "तन्त्री नाद ,कवित्त रस, सरस राग रति रंग,अनबूडे बूडे, तरै जे बूडे सब अंग ।"
तानसेन समारोह हर संगीत-प्रेमी के लिये एक अद्भुत सुरम्य सुरमय पर्व है । राग जैसे साकार होकर श्रोता को अपने कुहुक में बाँध लेते हैं और लेजाते हैं कहीं दूर किसी स्वप्न-लोक में ,जहाँ हम सिर्फ अपने साथ होते हैं ।

6 टिप्‍पणियां:

  1. इस स्थान का एक बड़ा प्यारा सा चित्र है हमारे पास।

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  2. संगीत सम्राट तानसेन और उनकी स्मृति में आयोजित उत्सव के बारे में विस्तार से पढ़कर अच्छा लगा !
    आभार !

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  3. बहुत ही खूबसूरत व आकर्षक फोटो हैं। आयोजन तो स्तरीय होता ही है। भावपूर्ण प्रस्तुति के लिये आभार।

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  4. तानसेन के बारे में ऐसी अच्छी पोस्ट के लिए आभार आपका !

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  5. संगीतमय पोस्ट पढ़ने से भी संगीत का-सा आनंद आ जाता है।
    बहुत अच्छी जानकारी।

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