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बुझने को है अब हर शिकायत
तेल खत्म होते दीपक जैसी
शिकायत कि ,
अब क्यों नही मिलते हो तुम
उस तरह,
जिस तरह तय था हमारे बीच
मिलते रहने का ,
बाँटते हुए वह सब जो
सह्य नही होता कभी अकेले ही ।
शिकायत कि ,
तुम अब कभी-कभार
सडक पर ही मिल गए
परिचित की तरह निभाते हो
अपनेपन की रस्म ,
व्यस्तता के सुनिश्चित बहानों के साथ ।
साथ बैठ कर चाय पीते हुए भी
करते हो हमेशा इधर-उधर की बातें
हवा में उडते रेशों की तरह
नही बताते कि पिछली शाम
तुम क्यों थे इतने परेशान
पूछते भी नही कि क्या है वह बात जो
चलने नही दे रही मुझे दो कदम भी आगे
महीनों से ...।
शिकायत कि ,
क्यों नही सोचते तुम
मेरे लिये वैसा ही
जैसा सोचती रही हूँ मैं तुम्हारे लिये
हमेशा तुम्हें साथ रखते हुए...।
शिकायत कि ,
तुम अनजान बन रहे हो
एक पारदर्शी दीवार से
जो बन रही है हमारे बीच अनजाने ही ।
तुम्हें परवाह नही है जरा भी कि
महसूस नही कर सकते हम
एक दूसरे को छूकर ।
क्या तुम कभी समझ पाओगे कि
यूँ शिकायतों का बुझ जाना
स्वीकार लेना है रिश्तों की दूरियों को
जैसे स्वीकार लिया है लोगों ने
कार्य-व्यवहार में,
भ्रष्टाचार को ।
दुखः तो यह है कि
तुम्हें दुख नही है,
फिक्र भी नही है
यूँ शिकायतों के मिट जाने की
बहुत सुन्दर गिरिजा जी.....
जवाब देंहटाएंयूँ लगा कि दिल की बात लिख दी आपने....
मन को छू गयी.
सादर
अनु
मन को छू लेने वाली पंक्तियाँ..
जवाब देंहटाएंभ्रष्टाचार और रिश्तों की दूरियों का प्रयोग पहले तो अटपटा लगा, लेकिन दूसरी बार जब कविता पढ़ी तो लगा कि जैसे हम रोज़ भ्रष्टाचार से लड़ने और इसे मिटाने की क़स्में खाते रहते हैं, और वह दिन-ब-दिन बढ़ता जाता है और फिर हम यह मान लेते हैं कि यह मिट नहीं सकता उसी तरह कुछ दूरिया ऐसी होती हैं,, जिन्हें हम लाख प्रयत्न कर लें मिटती नहीं, और एक दिन हमें स्वीकार कर ही लेना पड़ता है कि यही है हमारा भाग्य।
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना।
सही लिखा। मुझे भी ऐसा लगा था लेकिन है बड़ा सटीक उदाहरण।
हटाएंमन छू गईं आपकी शिकायत और उनका बुझ जाना ..वाह.
जवाब देंहटाएंमन को भाती सुंदर अभिव्यक्ति,,,,,
जवाब देंहटाएंRECENT POST: तेरी फितरत के लोग,
दीदी,
जवाब देंहटाएंशिकायतों की इतनी खूबसूरत परिभाषा शायद हो भी नहीं सकती.. दंग हूँ यह प्रयोग देखकर.. पहले कभी नहीं देखा.. दुःख तो यह है/कि तुम्हें दुःख नहीं है/ फ़िक्र भी नहीं है/यूं शिकायतों के मिट जाने की..
शिकायतों का होना कैसे रिश्ते जोडता है और शिकायतों का मिट जाना रिश्ते के खतम होने और उसकी टीस ब्यान कर रहा है.. कविता में बिना दर्द, आंसू, विरह, ओस, शबनम, बरसात, सावन, पतझड़, दिल, टीस, चुभन, टूटना, बिखरना आदि शब्दों का प्रयोग किये जो दर्द पसरा है हर शब्द पर, शुरू से अंत तक, वो बस आख़िरी पंक्तियों में आह बनाकर उभरा है..
हर बार की तरह इस बार भी चरण स्पर्श!!
सच है। शिकायतों के खत्म होने पर ज़िन्दगी के खट्टे-मीठे रंग बेरंग हो जाते हैं और सब कुछ नीरस सा लगने लगता है। शिकायतों का मतलब ही है अपनापन..
जवाब देंहटाएंशिकायतें अपनों से ही होती हैं ॥ सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएं,
जवाब देंहटाएंअभिषेक ने इस कविता पर(abhi)यह टिप्पणी भेजी---
इस गिरिजा जी प्रणाम!!
आप ऐसी कवितायें लिख देती हैं की उनपर कुछ कहना बनता ही नहीं...और सिर्फ 'वाह' कह कर चले जाना मुझे पसंद नहीं...
अभी सुबह सुबह आपकी कविता पढ़ी मैंने वो शिकायतों वाली...तभी मेल भी कर रहा हूँ!!
terrefic combination of feelings... bahut apni si lagi ye rachna
जवाब देंहटाएंहर फ़िक्र को धुएं में उडाता चला गया ...
जवाब देंहटाएंअपनों को कष्ट देना भी तो ठीक नहीं ...
मंगलकामनाएं आपको !
नमन है आपकी लेखनी को। जिस सरलता से रिश्तों के मर्म को छुआ है वैसा कम ही पढ़ने को मिलता है। अंत आते-आते..तुम्हें दुःख नहीं है, फिर्क भी नहीं है..पढ़ते-पढ़ते पाठक. इस कविता में अपनों को तलाशने लगे और आँसू बहाने लगे तो कोई अचरज नहीं।
जवाब देंहटाएंशिकायतों का बुझ जाना स्वीकार कर लेना है रिश्तों की दूरियों को .....दिल को छु गयी रचना गिरिजा जी, मुझे सचमुच गर्व है आपकी रचनाधर्मिता पर
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