( यह पोस्ट पढने से पहले---
25 अक्टूबर को सलिल जी ( चला बिहारी ब्लागर बनने ) ने अपने ब्लाग पर ध्रुवगाथा को लेकर एक विस्तृत समीक्षा लिखी है । ऐसी समीक्षा जो एक साधारण कृति को विशिष्ट बनाती है । उसे यहाँ देना अनावश्यक ही है क्योंकि सलिल जी का ब्लाग जहाँ सुविशाल मैदान की तरह है वही यह ब्लाग घनी बस्ती के बीच गली का एक हिस्सा है । सलिल जी द्वारा समीक्षा लिखी जाना और अपने ब्लाग पर देना दोनों बातें ही मेरे लिये हितकर हैं क्योंकि पुस्तक बहुत सारे सुधी पाठकों की जानकारी में आगई है । यहाँ ग्वालियर में तो विमोचन में सामिल हुए लोगों के अलावा किसी को अभी तक खास जानकारी नही (रुचि कहाँ से होगी )। इसमें मेरी निष्क्रियता भी एक कारण है । निस्सन्देह सलिल जी धन्यवाद कहना उनकी सहृदयता भरी परख व संवेदना का अवमूल्यन होगा । उसे केवल अनुभव किया जासकता है ।यहाँ यह सूचना इसलिये कि कहीं किसी कारण यदि वह समीक्षा न पढ पाए हों तो कृपया यहाँ http://chalaabihari.blogspot.in/ अवश्य पढें )
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माला जीजी जेठजी को, जो गंभीर रूप से बीमार हैं ,देखने आईं हैं । वैसे यहाँ आने के लिये उन्हें किसी खास कारण की आवश्यकता नही है । जेठानी की बडी बहन होने के साथ-साथ काफी अनुभवी व्यवहार-कुशल और दुनियादारी का ज्ञान रखतीं हैं । बेबाक बोलने के लिये जानी जाने वाली माला जीजी अब लगभग सत्तर साल की हैं । छत्तीस-सैंतीस वर्ष पहले जब मैंने उन्हें देखा था पूरे घर पर उनका वैसा ही प्रभाव था जैसा किसी सभा में मुख्य अतिथि का होता है । कानों में सोने की चेन से सम्हाले भारी-भारी झुमके झुलाती वे कोई भी बात कहतीं सब हाथ बाँधे उनके श्रोता बन खडे रहते थे । सब्जी छौंकने से लेकर त्यौहार ,विवाह और जापे की रस्मों व परम्पराओं में उनका दखल था । उन्हें किसी को भी रोकने टोकने या समझाने का पूरा अधिकार मिला हुआ था । दरअसल ऐसे लोगों को कोई अधिकार दे न दे वे खुद ही हासिल कर लेते हैं बिल्कुल निर्विरोध विजयी हुए उम्मीदवार की तरह ।
अब उनका शरीर भले ही उतना साथ नही देता और त्वचा दुबले होने पर ढीले होगए कपडों जैसी होगई है । जीजाजी ( उनके पति) रिटायर होने के छह माह बाद ही चल बसे थे । पति का साथ छूट जाने पर वैसे ही स्त्री बिना छत वाले घर जैसी हो जाती है वह भी अगर वह निःसन्तान हो तो मुश्किलें और भी बढ जातीं हैं । जो भी हो जीजी की आवाज में आज भी वैसी ही मजबूती ,और अभिव्यक्ति उतनी ही बहुरंगी और प्रभावशाली है ।
क्या फर्क पडता है कि जीजी के बारे में कुछ लोग अलग तरह की बातें करतेरहते हैं । भला पीछे बोलने वालों को कौन रोक सकता है ? वे तो दबी जुबान में यहाँ-वहाँ कोने में तम्बाकू की पीक की तरह पिचकते ही रहते हैं कि यह (माला जीजी)किसी की मीत नही । नम्बर एक की कंजूस है । दाँत से काट कर एक-एक पैसा निकालती है । मास्टर (जीजी के पति) अकूत दौलत छोड कर गया है पर मजाल है कि कोई थाह तो लेजाए । देवर-जेठ को तो पासंग पानी नही पीने देती । जो कुछ है ,अपनी बहनों और अपने भाई-भतीजों को ही देकर जाएगी । अब इन अकल के दुश्मनों से पूछो कि आदमी उसी को तो अपना धन-सर्वस्व सौंपेगा जिस पर अपनी सेवा-सुरक्षा का भरोसा किया जा सके । और भरोसा करना भी क्या कम साहस का काम है ??...
खैर वह एक अलग बात है ।
खैर वह एक अलग बात है ।
मैंने बताया कि माला जीजी अपनी बहन (मेरी जेठानी) से मिलने व बहनोईजी को देखने आईं है । अब वे मथुरा से यहाँ तक आएं और कोई उनसे मिलने भी न जाए तो अव्यावहारिकता से अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि उन्हें बुरा लगेगा । तुरन्त शिकायत करेंगी कि , "भैना दो कदम चल के तू मिलने भी न आ सकै !!" सो उनके आने की खबर जैसे ही मुझे मिली ,समय निकाल कर उनसे मिलने गई ।
"अरे ,लाली आगई!"--मुझे देखते ही जीजी फुलझडी की तरह चमक उठीं । मैंने देखा ,सदा की तरह चमचमाते दाँतों का मजबूत घेरा जीजी के गालों को धँसने से बचाए है। आँखें भले ही कुछ और छोटी लग रहीं थीं पर उनमें मानो ऐक्सरे और अल्ट्रा मशीनें आज भी फिट है आदमी के अन्दर के मांस-मज्जा और हड्डियों को परखने में सक्षम ।
"आप कैसी हैं जीजी ?"
"अरे लाली कैसी का हैं ,बस दिन पूरे करनौ समझौ ।(रुआँसी होकर) जे देखौ लला की हालियत..देखी ना जा सकै। गले से कौर नीचे ना उतरै । रात के दो-दो बजे तक नींद ना आवै..। राम ने ना जाने माथे पै का लिख दीनौ है..।" --बोलते-बोलते लगा कि उनका गला बैठ गया है ।आँसू हैं कि बस निकल ही नही रहे हैं ।
"सो तो है ..। लेकिन जीजी ईश्वर की कृपा से सब ठीक होजाएगा आप चिन्ता न करें ..।"
मैंने उनके दुख को कम करने की नीयत से कहा पर वे ओज भरी आवाज में मुझे लगभग ललकारते हुए बोली--"अरे ऐसौ कहीं हो सकै लाली ,कि अपने आदमी की चिन्ता न होवै ? ऐसे में कही ध्यान भी लग सकै का ? तेरे जीजाजी (उनके पति) बीमार थे ढाई महीने बिस्तर पर टट्टी-पेसाब कराया (नाक एकदम ऊपर खींचते हुए) । दाग ना लगने दियौ बदन पर । पूरा गाँव कहै कि सेवा करौ तो माला भाभी जैसी नही तो नही । का मजाल कि उधर एक मक्खी तक झाँके । अब उन ने भी का कम सुख कराए जब तक वे ठीक रहे मेरे पाँव मैले ना होने दिये । एक दिन मायके नही जाने देते थे लाली । सब कहते कि राम-सीता जैसी जोडी है (गहरी साँस)..बजार में हर मौसम और फेसन की चीज पहले हमारे घर आती थी । पर दिन एकसे तो रहने से रहे बिटिया । अब हाथ-पाँव ना चलै किसी का सहारा तो लेना पडेगा लाली ,सो मंटू (जीजी के भाई का बेटा) और उसकी बहू को पास रखा है । इतना बडा दो मंजिला मकान और जमाना है खराब ,भैन मेरी, अकेले कोई भी आकर डुकरिया का गला दबा कर(घबराते हुए) माल-मसाला ले चम्पत होजावै कौन को पतौ चलैगौ ! पर भैना ऐसे ही कोई किसी के घर रह सके है ? कुछ तो उम्मीद दिखै । तभी तो कोई अपना घर छोडकर रहने तैयार होगा । सो एक मकान मंटू के लिये बनवा दिया है हाथरस में और पचास हज्जार की एफ.डी करा रक्खी है । मंटू कभी जे ना कह सकै कि कंजूस बुआ ने सेंतमेंत ही इतनी सेवा करवा ली । लाली , भगवान का दिया सब कुछ है बस एक सन्तान नही दी । सो अब तो एकई उम्मीद है कि बाँकेबिहारी की किरपा से मंटू की बहू की गोद हरी होजावै तो घर में किलकारियाँ गूँजै । पर आजकल की छोरियाँ हैं न ,अपने मन की करे हैं ।(आवेश के साथ) ऊपर से जे टी.वी. वालों की बेसरमी देखो, कैसी-कैसी चीजें दिखाते हैं । छोरियन कों खुल्लेआम घूमना -फिरना और अच्छा पहनना-ओढना तो खूब चइये पर ससुराल के नाम से दूर भागें हैं । घर-गिरस्ती के लच्छन तो जानै ही नाइ ।का घर सम्हालेंगी और का सेवा करेंगी । ब्याह भी करलें पर बच्चा पैदा करने की जहमत ना उठा सके हैं । अपनों दूध ना पिला सकैं हैं । फिर भला ब्याह करने की भी जरूरत का है ।
कोई कैसी भी हो पर मंटू की बहू तो आपकी सेवा करती है न जीजी
अर् रे ...सो तो सेवा जीजान लगा कर करे है । कोई काम ना करने देवै । पर लाली वही बात है न कि तीन साल होने को आए...
तो तीन साल कोई ज्यादा नही हैं ---मैंने अपने प्रगतिसील होने का प्रमाण देना चाहा तो वे बुरा मान गईं । जोर देकर बोलीं---नही लाली तुम जेई तो नही जानौ, बाल-बच्चा तौ सुरू में होजाए तो ठीक नही लगाओ डाक्टरों के चक्कर......।"
कोई कैसी भी हो पर मंटू की बहू तो आपकी सेवा करती है न जीजी
अर् रे ...सो तो सेवा जीजान लगा कर करे है । कोई काम ना करने देवै । पर लाली वही बात है न कि तीन साल होने को आए...
तो तीन साल कोई ज्यादा नही हैं ---मैंने अपने प्रगतिसील होने का प्रमाण देना चाहा तो वे बुरा मान गईं । जोर देकर बोलीं---नही लाली तुम जेई तो नही जानौ, बाल-बच्चा तौ सुरू में होजाए तो ठीक नही लगाओ डाक्टरों के चक्कर......।"
मुझे वहाँ से जल्दी जाना था वरना जीजी समझ के कलश में से कोई और भी रस निकाल कर टेस्ट करातीं तीं...। बाकी फिर कभी ।
वाह सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबड़ा रस आया....
जवाब देंहटाएंमैं वह किताब पढना चाहती हूँ,क्योंकि यह सच है कि सलिल वर्मा जी यूँ ही कुछ नहीं कहते ...आपको बधाई
जवाब देंहटाएंऔर आपको पढना उपलब्धि है
जवाब देंहटाएंआपके पोस्टो को पढ़ना अच्छा लगता है,,,
जवाब देंहटाएंRECENT POST LINK...: खता,,,
:)
जवाब देंहटाएंइंडियन राम भी हुए 'मेड इन चाइना' के मुरीद - ब्लॉग बुलेटिन आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
दीदी, इतनी खूबसूरत घटना के साथ मेरी पोस्ट की चर्चा रेशम की मसनद पे खुरदरा गिलाफ सा लग रही है... और ऐसी बातें तो आप कभी मत किया करें.. वे गालियाँ ही थीं जो आज भी हडप्पा की पहचान हैं, वरना आज के 'सुविशाल मैदान'तो पोलीथीन से अटे पड़े हैं. आपके ब्लॉग की यह गली आत्मा से गुज़रती है.. दिल को छूती है और एक ऐसा असर छोडती है जिसे हम आनंद कह सकते हैं..
जवाब देंहटाएंओशो कहते हैं कि आनंद का कोई विलोम शब्द नहीं.. यह अक अनुभूति है जो बस प्राप्त की जा सकती है.. और वही अनुभूति माला जीजी की यह घटना पढकर हुई.. किसी के लिए यह एक बकबक करने वाली बुढ़िया की बकबक हो सकती है, लेकिन मेरे लिए वो अम्मा के जैसी हैं.. बिलकुल मेरी माँ की तरह.. ऐसी ही झुर्रियों वाला चेहरा, वैसी ही बकबक, वैसा ही हासिल किया हुआ अधिकार, वैसा ही जो बोल दिया सो उनके ससुर (हमारे स्वर्गीय दादाजी) भी नहीं ताल सकते.. हम सब भाई-बहन में यह संस्कार उनके शासन की ही देन है.. इसलिए माला जीजी मुझे माँ जी की तरह लगीं.. कभी बात हो तो मेरा प्रणाम अवश्य कहियेगा..
बहुत खूबसूरत याद और ये बात तो चुरा लेने को जी चाहता है- "जब तक वे ठीक रहे, मेरे पैर मैले न होने दिए!" उनकी उम्र को देखते हुए इतनी रोमांटिक लाइन सुने ज़माना बीत गया..
कहाँ गए वे लोग!!
गूगल ने 'गलियाँ' को 'गालियाँ' बना दिया!!!
हटाएं:)
आज यही पोस्ट जब मैंने हनी के लैपटाप पर देखी तो वहाँ कई शब्दों को गडबड पाया जैसे प्रगति को परगति ,प्रमाण को परमान आदि ,जो यहाँ नही है । ऐसा कैसे..। जो भी हो मैंने तो पहले भी गलियाँ ही पढा था ।
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