शनिवार, 3 नवंबर 2012

करवा-चौथ स्पेशल

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यह क्या ! मेंहदी न महावर . न नए बेंदी-बिछुआ !
कुन्ती सुहागिन है और कल ही करवा-चौथ व्रत था । मुझे पता है कि कुन्ती हर साल व्रत करती है और बड़े चाव से साज सिंगार भी । गहने चाहे कांसे-पीतल के ही क्यों न हों वह नए ही पहनती है । पैरों में खूब गहरा महावर और हाथों में मेंहदी की टिकुलियाँ, छन छन करते बिछुए-पाजेब साँवली-सलौनी कुन्ती को और भी सलौनी बनाते हैं । 
कुन्ती हर साल माटी के 'करवा' देने आती है । गर्मियों में मटके-सुराही, महालक्ष्मी पूजा पर हाथी और दीपावली पर 'दिये-सरैया' लाने का दायित्त्व उसी ने ले रखा है मजाल क्या कि ये सामान मैं किसी और से ले लूँ । वह आँगन में बैठकर इस बात की अधिकार के साथ शिकायत करती है तब कुछ देकर उसे सन्तुष्ट करना ही होता है और यह वादा भी कि आइन्दा किसी और से ये चीजें हरगिज नही लूँगी ।
कुन्ती हर साल की तरह जब सुबह रात की पूजा का प्रसाद और खाना लेने आई तो उसे देख कर मुझे फसल कटे खेत जैसा अहसास हुआ । आँखें लाल व पलकें सूजी हुई सी थीं । यही नही आज उसने न साडी माँगी न ही सब्जी व पकवानों के विषय में पूछा । बस मायूस सी आँगन में आकर बैठ गई । यह देख मुझे अचरज के साथ कुछ खेद भी हुआ ।
"क्या हुआ कुन्ती, तूने करवा-चौथ की पूजा नही की ?"
"मैंने करवा-चौथ पूजना छोड दिया है दीदी ।" वह सपाट लहजे में बोली ।.मुझे हैरानी हुई । झिडकने के लहजे में बोली--
"अरे पागल, सुहाग के रहते यह व्रत कही छोडा जाता है !" 
"कैसा सुहाग दीदी ?"--उसने निस्संगता के साथ कहा --"जिसे अपना होस नही रहता । रोज पीकर आजाता है । कभी यह भी नही सोचता कि हम भूखे सोरहे हैं कि बच्चों के पास नेकर-चड्डी भी है कि नही । चलो जे सब तो सालों से चल रहा है दीदी पर आदमी यह तो सोचे कि जो औरत उसके लिये दिन भर भूखी-प्यासी रह कर 'बिरत' करती है ,उस दिन उससे कुछ नही तो कडवा तो न बोले । मार-पीट तो न करे । दीदी, मेरे लिये तो यही जेवर समान है कि वह दो बोल 'पिरेम' के ही बोल दे । भले ही कोई काम धाम न करे पर मुझसे खुश तो रहे । पर ना ,उसे उसी दिन नंगा नाच करना है । जब तक आँसू नही गिरवा लेता उसे चैन नही । तो फिर क्यों भूखी-प्यासी मरूँ उसके लिये ? सो मैंने तो ....।" इतना कहकर वह फफककर कर रोने लगी । मैं निःशब्द खडी उसकी पीडा के प्रवाह को देख रही थी । व्रत न करने का संकल्प जहाँ उसके साहस व स्वाभिमान का प्रतीक था वहीं आँसुओं का सैलाव उसके स्नेहमयी वेदना की कहानी कह रहा था ।
"क्यों रोती है जसोदा ! ऐसे दुष्ट आदमी से तो आदमी का न होना....।"
औरत की मारपीट और अपमान मुझे इतने विरोध व रोष से भर देता है कि मेरे मुँह से निकल पडा होता कि ऐसे पति से तो स्त्री पति-विहीना ही भली है पर उसने तडफ कर बीच में ही मेरी बात काटदी---
"ना दीदी ,ऐसा न बोलो । वह जैसा भी है बैठा रहे । उसका बाल भी न टूटे । उसी के कारण तो मैं सुहागिन कहलाती हूँ । बिना 'पती' के औरत की जिन्दगी का ( क्या) है दीदी । कौन उसकी इज्जत करता है !"   
कहाँ तो करवाचौथ का व्रत आज जेवर और मँहगे उपहारों का तथा पत्नी के प्रति पति के स्नेह व समर्पण का प्रतीक और पर्याय बन गया है और कहाँ निष्ठुर-निकम्मे पति की कुशलता व उसके दो स्नेहभरे बोलों में ही सब कुछ पा जाने वाली जसोदा की व्यथा-वेदना । मुझे लगा कि कुन्ती का व्रत दिन भर भूखी-प्यासी रहकर चाँद की पूजा करने वाली सुहागिनों कहीँ ज्यादा ऊँचा है ।

15 टिप्‍पणियां:

  1. ऐसी स्थिति, ऐसी सोच - सामाजिक विडंबना ने दी .... क्या सही और क्या गलत !

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  2. जो पति अपने परिवार का दाइत्व पूरा न कर सके उल्टे पत्नी को कष्ट पहुचाए उसके लिये कैसा ब्रत....जशोदा ने ठीक निर्णय लिया,,,,
    RECENT POST : समय की पुकार है,

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  3. दीदी,

    सबसे पहले जसोदा के व्यवसाय से जुडी एक बात जो आर्थिक न होकर सामाजिक हुआ करती थी/है... बचपन में हमारे घर एक चूड़ीवाली आती थीं. वो मुसलमान थीं, लेकिन हमारे सारे त्यौहार उन्हें हमारे पंडिज्जी से ज़्यादा याद रहते थे.. चूड़ियाँ पहनाते हुए पूरी खानदान का हाल चाल कह सुन लेती थीं..
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    जसोदा की बात से यही लगा कि ऐसी ही नारी हमारी परम्पराओं की प्रतिनिधित्व करती हैं.. जैसे फिल्म 'मदर इंडिया' या 'दीवार' की नारी पति के छोडकर चले जाने पर भी माथे पर बिंदिया सजाना नहीं भूलतीं.
    /
    और आखिर में उस घटना पर एक लिंक देता हूँ.. पढियेगा ज़रूर..शायद आपको आपकी जसोदा दिखाई दे जाए:
    http://www.chalaabihari.blogspot.in/2010/09/blog-post_23.html

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    1. जी हाँ जसोदा दिखी । और भी सहज व प्रभावी रूप में । सलिल भैया आपका लेखन कच्ची जमीन में पानी बहने जैसा है कण-कण समाता हुआ । छोटी-छोटी चीजों को खूबसूरती से साथ लेता हुआ । मुझे यह आपसे सीखने की जरूरत है ।

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  4. एक ही मानक से सबको कैसे मापा जा सकता है भला।

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  5. ऐसे पतियों के लिए व्रत नहीं करना ही सबसे ठीक है... मेरा तो मानना कि पत्नी को भी उसे उसी के तरीके से ट्रीट करना चाहिए.. वो मारपीट करे तो पत्नी भी झाड़ू लगा दिया करे दो-चार...

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  6. एक और उदाहरण -
    'अइसन पुरुसबा के मुँहबो न देखल ,
    जे गरुब गरभ में दीन्हीं निकारि !'
    - मन का आक्रोश आकिर कहीं तो निकलेगा !

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  7. खूबसूरत प्रस्तुति माफ़ कीजियेगा भूलवश आपको http://mostfamous-bloggers.blogspot.in/ पर शामिल नहीं कर पाया था, परन्तु अब आपको शामिल कर दिया है। पधारें

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  8. सिक्के के दो पहलू ...
    लोकेन्द्र सिंह की टिप्पणी से सहमत होने का मन कर रहा है.

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  9. ये कहानी ...कहानी ना होकर ...एक ऐसे समाज का आईना है जहाँ पति अपनी पत्नी को वो मान सम्मान नहीं देते जिसकी वो हकदार होती हैं ...और ये जसोदा उसी समाज को नकारने का साहस करती प्रतीत हो रही है .....बहुत बढिया

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  10. यह तो प्यार का इज़हार का त्यौहार है ,जहाँ प्यार नहीं वहाँ किस बात का तोहार /ब्रत?
    नई पोस्ट मैं

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