श्रीमती ग ने आखिर लीलावती के आगे हाथ जोड लिये । कहा--"मुझे बख्श दे मेरी माँ ! मैं तुझसे हार गई हूँ ।"
और तभी मुझे एक कहानी याद आगई जो बचपन में माँ सुनाया करती थी । संक्षेप में कहानी कुछ यों थी --
दो भाई थे । बडे मियां और छोटे मियां । एक दिन बेरोजगारी से तंग आकर दोंनों ने तय किया कि एक भाई को नौकरी करने जाना चाहिये । बडे भाई ने कहा तू छोटा है । काम मैं करूँगा । तू मेरा इन्तजार करना ।
इस तरह बडे भाई ने घूमघाम कर एक दम्पत्ति के यहाँ नौकरी करली । उनमें बेगम तो सीधी थी पर शौहर बडा काइंया था । उसने बडे मियां के सामने शर्त रखीं---जो भी काम कहें ,उसे करना होगा । खाने के नाम केवल पत्ता भर खिचडी मिलेगी । सबसे खास बात यह कि अगर हम तुझे काम से हटाएं तो हम अपने नाक कान देंगे और डबल पगार भी । लेकिन अगर तूने काम छोडा तो अपने नाक-कान तो देने ही होंगे , पैसा भी नही मिलेगा सो अलग । मंजूर है ?"
"मंजूर है-"--बडे भाई ने कहा और काम पर जुट गया । सुबह से शाम ,देर रात तक वह काम में भिडा रहता था । जंगल से लकडी लाना । घोडों की मालिश ,दाना पानी , खाना पकाना , कपडे धोना ,घर की सफाई आदि जो भी काम मिलता पूरे मन से करता था । पर सीधा होने के साथ कुछ बुद्धू भी था । खिचडी के लिये जो भी पत्ता बेर ,बरगद , पाखर, पीपल मिलता ले आता । उस पर भला कितनी खिचडी मिलती । इस तरह दिन भर में एक डेढ या अधिक से अधिक दो चमचा भर खिचडी मिलती थी । और कुछ खाना शर्त में था नही सो भूखे ही वक्त गुजारना पडता था । महीना भर में कुछ कमाना तो दूर ,बडे मियां को खुद को खडा रखना भी दुश्वार होगया । हड्डियाँ--पसलियाँ बाहर झाँकने लगीं थीं । अन्त में उसे उसे खयाल आया कि ऐसे मरने से तो अपने भाई के साथ भूखे रह कर मरना ज्यादा ठीक होगा ।
" मुझे माफ करें अब मुझसे काम नही होगा ।" ए"क दिन उसने कह ही दिया ।
"खुद जारहे हो तो शर्त के मुताबिक अपने नाक-कान दे कर जाओ ।" और बडे मियांजी -'लौट के बुद्धू घर को आए' वाली कहावत के अनुसार अपने नाक-कान देकर घर लौट आए ।
फिर छोटे भाई ने कैसे सूझबूझ व चालाकी से उस दम्पत्ति नाकों चने बिनवाए और कैसे अपने भाई का बदला लिया ,यह बेहद रोचक किस्सा है । सो फिर कभी ।
अभी तो मेरा ध्यान श्रीमती ग और लीलावती के प्रसंग पर है । लीला काफी चतुर ,फुर्तीली और हाजिर जबाब युवती कपडे धोने का काम करती है । ग काफी संवेदनामयी महिला है । मुसीबत में किसी को ना नही कह पातीं । लीला ने एक दिन अपने बच्चे लाकर 'ग' के सामने खडे कर दिये और अपनी व्यथा-कथा सुनादी ।
"दीदी थोडी मेहरबानी होजाए । आपके करे मेरे बच्चे परीक्षा दे सकेंगे । इनकी फीस नही भर पाई हूँ सो मास्टर किलास में नही घुसने देरहे । कहते हैं पहले फीस लाओ । दीदी फीस नही भरी तो बच्चों का साल बरबाद होजाएगा ।"
"तो मैं क्या करूँ ?"
"बस दो हजार रुपए दे दो दीदी । तुम्हारा एहसान रहेगा । मैं जैसे कहोगी पटा दूँगी ।"
" बस दो हजार ??"---ग को अजीब लगा । घर बैठा पति अक्सर शराब में धुत रहता है । केवल कभी-कभी कपडों पर प्रेस करके पाँच--पचास रुपए कमा लेता है जो उसकी ठर्रा की बोतल में ही चले जाते हैं । और घरों में कपडे धोकर गुजारा करने वाली लीला दो हजार के लिये 'बस' कह रही है ?बच्चों को सरकारी स्कूल में क्यों नही पढाती जहाँ कोई फीस नही है अगर है भी तो बहुत कम । खाना ,किताबें ,यूनिफार्म तथा छात्रवृत्ति अलग मिलती है । लेकिन ग इतने सालों के अनुभव से जान चुकी है कि जो लोग बच्चों के भविष्य के प्रति सजग हैं ,वे सरकारी स्कूलों की बजाय प्राइवेट स्कूलों में भेज कर और बच्चे को "ए फार एप्पल" रटते देख उसके भविष्य के प्रति आश्वस्त ( या भ्रमित ) होजाते हैं । लीला भी उन्ही में से है । हालांकि यह लोगों का व्यक्तिगत मामला है । लेकिन ग चूँकि बात की तह तक जाकर देख-समझ चुकी है इसलिये उसे यह खर्च बिल्कुल अनावश्यक लगा । इसलिये एकदम हाँ नही कहा ।
"दीदी आपके लिये कोई बडी बात नही है । मुझे पता है कि आप मना नही करोगी और यह न सोचें कि मैं ऐसे ही ले रही हूँ "--लीला ग को चुप देखकर याचना के स्वर में बोली--
"चाहें तो कपडे धुलवा लेना नही तो तीन-चार किश्तों में पटा दूँगी ।"
ग ने एक माँ को देखा । माँ के पीछे खडे दो बच्चों को देखा और बच्चों की आँखों में मासूम सवाल देखे और पाँच-पाँच सौ के चार नोट लाकर रख दिये ।
"तो दीदी कपडे धो दिया करूँगी ?"
"लीला मैं अपने कपडे तो किसी से धुलवाती नही हूँ हाँ तुम चाहो तो आयुष के कपडे धो दिया करना । कालेज व पढाई के कारण उसके पास समय नही रहता । इस तरह तुम्हें भी आसानी होगी --ग ने कहा ।
रोज आऊँ या एक दिन छोड कर । क्या है कि रोज तो कपडे निकलेंगे नही ।
रोज न सही एक दिन छोड कर आजाना लेकिन उसमें लापरवाही मत करना ।"
कैसी बात करती हो दीदी । मेरा काम देख लेना तब कहना । लीला ने उस दिन तो मन लगाकर कपडे धोए ।
इस बात को पाँच महीने बीत गए । इन पाँच महीनों में लीला पच्चीस दिन भी कपडे धोने नही आई । और जब भी आई कपडों को ऐसे ही कूट-पखार कर डाल गई जैसे कोई मुसीबत टालता है । इस बीच ग को खुद ही कपडे धोते और लीला के साथ लगभग इसी तरह के संवाद करते--करते आधा वर्ष निकल गया-
"लीला ,आयुष कह रहा था तुम कालर वगैरा ठीक से साफ नही करती । बहन जरा ठीक से ....।"
"नही दीदी ,मेरे धुले कपडों को कोई ऐब नही लगा सकता ।" ---लीला बीच में ही बोल पडती है ।
"लेकिन मैंने खुद देखा ।"
"तो रह गया होगा । वैसे मैं तो...।"
"अच्छा छोडो ,कल तुम क्यों नही आई ? रात भर कपडे पडे रहे दूसरे दिन बदबू आने लगी तब मैंने ही धोए जबकि एक दिन छोड कर आने का तय हुआ था न । मैंने इसी भरोसे कपडे पाउडर में भिगो कर रखे थे ।"
"रखे होंगे दीदी ,लेकिन हुआ यह कि मैं बहन के लडके की 'बड्डे' में चली गई थी ।"
"बड्डे में ?"---एक बार तो ग के अन्दर गरमाहट आई । जन्मदिन मनाने के लिये काम ही छोड दिया । लेकिन तंगहाल स्त्री से क्या कहे, संयम रखते हुए कहा --"बर्थ डे तो शाम को मनाया होगा लीला । कपडे तो दिन में धुलने होते हैं ।"
"मैं तो दिन में आई थी पर तुम्हारा ताला लगा था ।"
"उफ्..." ग के अन्दर इस बार उबाल सा उठा । वह कितनी बार बता चुकी कि सवा दस बजे मैं हर हाल में स्कूल निकल जाती हूँ और आयुष भी ।लीला, नौ सवा नौ तक कपडे धो जाया कर । इसके बाद आएगी तो ताला तो मिलेगा ही ।
"तो क्या करूँ दीदी उसी समय बोरिंग आती है । और उसी समय एक घंटे के लिये लाइट भी रहती है । फिर कटौती होती है । उस समय रोटी न बनाऊँ तो दिन भर भूखे रहना पडेगा कि नही ?"
"तो खाना हीटर पर ही बनाती है ? चूल्हा या गैस .?"..
"अरे दीदी ! जब मुफत में काम चल रहा है तो गैस खर्च क्यों करे ? और लकडी तो बाबा के मोल आ रही हैं । बिजली तो 'डारैक्ट' मिल जाती है । कोई खरचा नही ..।"
"लेकिन दूसरे घरों में भी तो सुबह समय से काम कर जाती हो । तभी कुछ देर के लिये मेरे यहाँ भी आ सकती हो कि नही ?" रोज तो नहीं न आना ..।
"आप कह तो सही रही हैं पर..।"
"सोचो लीला मुझ पर क्या बीतती है जब स्कूल से लौटकर बाल्टी भर कपडे धोती हूँ ।" ---ग बेवशी भरे लहजे में कहती है । रुपए जो फँस गए हैं ।दो हजार इतने कम भी नही होते कि भुला दिये जाएं । और लीला लौटाने में असमर्थता जताए तो भुलाए भी जा सकते हैं ।
"सो तो है दीदी पर सब मजबूरी कराती है ।--लीला पर कोई असर नही होता ।बडप्पन से कहती है -- "अब देखो, आज मैं मजबूर न होती तो क्यों घर-घर भटकती फिरती ? क्यों तुम इतना कह लेतीं "
"मैं ??"...अब ग का धैर्य टूटने लगता है ---"मैंने तो अभी कुछ कहा ही कहाँ है । यह तो चोरी और सीनाजोरी वाली बात होगई ।"
"हे भगवान अब तो चोरी भी लगा रहीं हैं दीदी ! हम गरीब जरूर हैं पर किसी का सोना पडा रहे देखते तक नही हैं । कहलो दीदी । हमें तो भगवान ने सुनने के लिये ही बनाया है ।"
"बकवास बन्द कर लीला और अपने घर जा । गलती की जो ...।" ऐसे में ग पूरी तरह आपे से बाहर होजाती है।
"जा ही तो रही ही हूँ दीदी ,गुस्सा काहे हो रही हैं ।"
लीला आराम से चली जाती है और ग' संयम खो देने की ग्लानि से भर जाती है । उसे काम लेना ही नही आता शायद । उसे अपनी तरह ही अपना काम समय पर और सही ढंग से करने वाले लोग ही पसन्द हैं । अगर देर होती है तो वह कैसे अपना टिफिन लिये बिना स्कूल चली जाती है । भूखा रहना मंजूर है प्राचार्य की डाँट सुनने की बजाय । लीला चाहे तो समय पर आराम से काम कर सकती है । वह भी सप्ताह में तीन दिन ही तो आना है लेकिन उसे मालूम है कि यह काम वह रुपए चुकाने के लिये कर रही है रुपए तो मिलेंगे नही । उसे लीला पर नही उसके तरीकों और सोच पर गुस्सा आता है । आते ही पहले तो आदेश सा छोडती है --"दीदी जरा बढिया सी चाय तो बनादो ।"
चाहे वह स्कूल के लिये तैयार हो रही हो ,चाय बना ही देती है । खाने-पीने की चीजों के लिये वह वशभर नही टालती ।
पर लीला कपडे भी ऐसे धोती है मानो कोई बहुत बडा एहसान कर रही हो । वह भी लगातार बडबडाते हुए---"यह शर्ट का कालर कितना चीकट हो रहा है । यह टीशर्ट तो साफ ही नही होती कितना ही रगडो । दीदी जींस के लिये गरम पानी दिया करो । अरे इतने कपडे कहाँ से इकट्ठे कर लिये ?"
"लीला पूरे सप्ताह बाद बाद आएगी तो कपडे तो मिलेंगे न ! तुम तो एक दिन छोड कर आने वाली थी न ?"
"अब आप तो सब कहती हो , पर मुझे भी तो सहूलियत देखनी पडेगी ।"
सहूलियत...अब ग का धैर्य टूटने लगा है । नानी कहती थी --आस पराई जो करे जीवत ही मर जाय..। महज रुपए वसूलने के लिये लीला के भरोसे ऐसे वह कब तक खुद को जलाती रहेगी । उससे कोई सहारा तो मिलने से रहा । ना , अब नही । इससे तो अच्छा है कि वह अपना काम खुद करलो ।
"कितने रुपए कट गए दीदी ? लिखती रहना । मैं तो भूल जाती हूँ ।"--एक दिन लीला ने पूछा तो 'ग' ने आखिर कह ही दिया---"जितने कटने थे उतने कट गए मेरी माँ । अब मुझे बख्श दे । जो बाकी रह गए हैं उन्हें चाहे तो देना नही तो मेरी तरफ से बच्चों के लिये भेंट समझ लेना ..। अब मैं कपडे खुद धो लिया करूँगी ।"
"आपकी मर्जी दीदी मैंने तो मना किया नही ।" --लीला जैसे मुक्त होकर बोली । ठीक ही तो है उसने खुद मना कहाँ किया । हाँ 'ग 'से करवा लिया ।
और इस तरह पैसों से हाथ धोकर अब 'ग 'कपडे खुद ही धोरही है ।
और तभी मुझे एक कहानी याद आगई जो बचपन में माँ सुनाया करती थी । संक्षेप में कहानी कुछ यों थी --
दो भाई थे । बडे मियां और छोटे मियां । एक दिन बेरोजगारी से तंग आकर दोंनों ने तय किया कि एक भाई को नौकरी करने जाना चाहिये । बडे भाई ने कहा तू छोटा है । काम मैं करूँगा । तू मेरा इन्तजार करना ।
इस तरह बडे भाई ने घूमघाम कर एक दम्पत्ति के यहाँ नौकरी करली । उनमें बेगम तो सीधी थी पर शौहर बडा काइंया था । उसने बडे मियां के सामने शर्त रखीं---जो भी काम कहें ,उसे करना होगा । खाने के नाम केवल पत्ता भर खिचडी मिलेगी । सबसे खास बात यह कि अगर हम तुझे काम से हटाएं तो हम अपने नाक कान देंगे और डबल पगार भी । लेकिन अगर तूने काम छोडा तो अपने नाक-कान तो देने ही होंगे , पैसा भी नही मिलेगा सो अलग । मंजूर है ?"
"मंजूर है-"--बडे भाई ने कहा और काम पर जुट गया । सुबह से शाम ,देर रात तक वह काम में भिडा रहता था । जंगल से लकडी लाना । घोडों की मालिश ,दाना पानी , खाना पकाना , कपडे धोना ,घर की सफाई आदि जो भी काम मिलता पूरे मन से करता था । पर सीधा होने के साथ कुछ बुद्धू भी था । खिचडी के लिये जो भी पत्ता बेर ,बरगद , पाखर, पीपल मिलता ले आता । उस पर भला कितनी खिचडी मिलती । इस तरह दिन भर में एक डेढ या अधिक से अधिक दो चमचा भर खिचडी मिलती थी । और कुछ खाना शर्त में था नही सो भूखे ही वक्त गुजारना पडता था । महीना भर में कुछ कमाना तो दूर ,बडे मियां को खुद को खडा रखना भी दुश्वार होगया । हड्डियाँ--पसलियाँ बाहर झाँकने लगीं थीं । अन्त में उसे उसे खयाल आया कि ऐसे मरने से तो अपने भाई के साथ भूखे रह कर मरना ज्यादा ठीक होगा ।
" मुझे माफ करें अब मुझसे काम नही होगा ।" ए"क दिन उसने कह ही दिया ।
"खुद जारहे हो तो शर्त के मुताबिक अपने नाक-कान दे कर जाओ ।" और बडे मियांजी -'लौट के बुद्धू घर को आए' वाली कहावत के अनुसार अपने नाक-कान देकर घर लौट आए ।
फिर छोटे भाई ने कैसे सूझबूझ व चालाकी से उस दम्पत्ति नाकों चने बिनवाए और कैसे अपने भाई का बदला लिया ,यह बेहद रोचक किस्सा है । सो फिर कभी ।
अभी तो मेरा ध्यान श्रीमती ग और लीलावती के प्रसंग पर है । लीला काफी चतुर ,फुर्तीली और हाजिर जबाब युवती कपडे धोने का काम करती है । ग काफी संवेदनामयी महिला है । मुसीबत में किसी को ना नही कह पातीं । लीला ने एक दिन अपने बच्चे लाकर 'ग' के सामने खडे कर दिये और अपनी व्यथा-कथा सुनादी ।
"दीदी थोडी मेहरबानी होजाए । आपके करे मेरे बच्चे परीक्षा दे सकेंगे । इनकी फीस नही भर पाई हूँ सो मास्टर किलास में नही घुसने देरहे । कहते हैं पहले फीस लाओ । दीदी फीस नही भरी तो बच्चों का साल बरबाद होजाएगा ।"
"तो मैं क्या करूँ ?"
"बस दो हजार रुपए दे दो दीदी । तुम्हारा एहसान रहेगा । मैं जैसे कहोगी पटा दूँगी ।"
" बस दो हजार ??"---ग को अजीब लगा । घर बैठा पति अक्सर शराब में धुत रहता है । केवल कभी-कभी कपडों पर प्रेस करके पाँच--पचास रुपए कमा लेता है जो उसकी ठर्रा की बोतल में ही चले जाते हैं । और घरों में कपडे धोकर गुजारा करने वाली लीला दो हजार के लिये 'बस' कह रही है ?बच्चों को सरकारी स्कूल में क्यों नही पढाती जहाँ कोई फीस नही है अगर है भी तो बहुत कम । खाना ,किताबें ,यूनिफार्म तथा छात्रवृत्ति अलग मिलती है । लेकिन ग इतने सालों के अनुभव से जान चुकी है कि जो लोग बच्चों के भविष्य के प्रति सजग हैं ,वे सरकारी स्कूलों की बजाय प्राइवेट स्कूलों में भेज कर और बच्चे को "ए फार एप्पल" रटते देख उसके भविष्य के प्रति आश्वस्त ( या भ्रमित ) होजाते हैं । लीला भी उन्ही में से है । हालांकि यह लोगों का व्यक्तिगत मामला है । लेकिन ग चूँकि बात की तह तक जाकर देख-समझ चुकी है इसलिये उसे यह खर्च बिल्कुल अनावश्यक लगा । इसलिये एकदम हाँ नही कहा ।
"दीदी आपके लिये कोई बडी बात नही है । मुझे पता है कि आप मना नही करोगी और यह न सोचें कि मैं ऐसे ही ले रही हूँ "--लीला ग को चुप देखकर याचना के स्वर में बोली--
"चाहें तो कपडे धुलवा लेना नही तो तीन-चार किश्तों में पटा दूँगी ।"
ग ने एक माँ को देखा । माँ के पीछे खडे दो बच्चों को देखा और बच्चों की आँखों में मासूम सवाल देखे और पाँच-पाँच सौ के चार नोट लाकर रख दिये ।
"तो दीदी कपडे धो दिया करूँगी ?"
"लीला मैं अपने कपडे तो किसी से धुलवाती नही हूँ हाँ तुम चाहो तो आयुष के कपडे धो दिया करना । कालेज व पढाई के कारण उसके पास समय नही रहता । इस तरह तुम्हें भी आसानी होगी --ग ने कहा ।
रोज आऊँ या एक दिन छोड कर । क्या है कि रोज तो कपडे निकलेंगे नही ।
रोज न सही एक दिन छोड कर आजाना लेकिन उसमें लापरवाही मत करना ।"
कैसी बात करती हो दीदी । मेरा काम देख लेना तब कहना । लीला ने उस दिन तो मन लगाकर कपडे धोए ।
इस बात को पाँच महीने बीत गए । इन पाँच महीनों में लीला पच्चीस दिन भी कपडे धोने नही आई । और जब भी आई कपडों को ऐसे ही कूट-पखार कर डाल गई जैसे कोई मुसीबत टालता है । इस बीच ग को खुद ही कपडे धोते और लीला के साथ लगभग इसी तरह के संवाद करते--करते आधा वर्ष निकल गया-
"लीला ,आयुष कह रहा था तुम कालर वगैरा ठीक से साफ नही करती । बहन जरा ठीक से ....।"
"नही दीदी ,मेरे धुले कपडों को कोई ऐब नही लगा सकता ।" ---लीला बीच में ही बोल पडती है ।
"लेकिन मैंने खुद देखा ।"
"तो रह गया होगा । वैसे मैं तो...।"
"अच्छा छोडो ,कल तुम क्यों नही आई ? रात भर कपडे पडे रहे दूसरे दिन बदबू आने लगी तब मैंने ही धोए जबकि एक दिन छोड कर आने का तय हुआ था न । मैंने इसी भरोसे कपडे पाउडर में भिगो कर रखे थे ।"
"रखे होंगे दीदी ,लेकिन हुआ यह कि मैं बहन के लडके की 'बड्डे' में चली गई थी ।"
"बड्डे में ?"---एक बार तो ग के अन्दर गरमाहट आई । जन्मदिन मनाने के लिये काम ही छोड दिया । लेकिन तंगहाल स्त्री से क्या कहे, संयम रखते हुए कहा --"बर्थ डे तो शाम को मनाया होगा लीला । कपडे तो दिन में धुलने होते हैं ।"
"मैं तो दिन में आई थी पर तुम्हारा ताला लगा था ।"
"उफ्..." ग के अन्दर इस बार उबाल सा उठा । वह कितनी बार बता चुकी कि सवा दस बजे मैं हर हाल में स्कूल निकल जाती हूँ और आयुष भी ।लीला, नौ सवा नौ तक कपडे धो जाया कर । इसके बाद आएगी तो ताला तो मिलेगा ही ।
"तो क्या करूँ दीदी उसी समय बोरिंग आती है । और उसी समय एक घंटे के लिये लाइट भी रहती है । फिर कटौती होती है । उस समय रोटी न बनाऊँ तो दिन भर भूखे रहना पडेगा कि नही ?"
"तो खाना हीटर पर ही बनाती है ? चूल्हा या गैस .?"..
"अरे दीदी ! जब मुफत में काम चल रहा है तो गैस खर्च क्यों करे ? और लकडी तो बाबा के मोल आ रही हैं । बिजली तो 'डारैक्ट' मिल जाती है । कोई खरचा नही ..।"
"लेकिन दूसरे घरों में भी तो सुबह समय से काम कर जाती हो । तभी कुछ देर के लिये मेरे यहाँ भी आ सकती हो कि नही ?" रोज तो नहीं न आना ..।
"आप कह तो सही रही हैं पर..।"
"सोचो लीला मुझ पर क्या बीतती है जब स्कूल से लौटकर बाल्टी भर कपडे धोती हूँ ।" ---ग बेवशी भरे लहजे में कहती है । रुपए जो फँस गए हैं ।दो हजार इतने कम भी नही होते कि भुला दिये जाएं । और लीला लौटाने में असमर्थता जताए तो भुलाए भी जा सकते हैं ।
"सो तो है दीदी पर सब मजबूरी कराती है ।--लीला पर कोई असर नही होता ।बडप्पन से कहती है -- "अब देखो, आज मैं मजबूर न होती तो क्यों घर-घर भटकती फिरती ? क्यों तुम इतना कह लेतीं "
"मैं ??"...अब ग का धैर्य टूटने लगता है ---"मैंने तो अभी कुछ कहा ही कहाँ है । यह तो चोरी और सीनाजोरी वाली बात होगई ।"
"हे भगवान अब तो चोरी भी लगा रहीं हैं दीदी ! हम गरीब जरूर हैं पर किसी का सोना पडा रहे देखते तक नही हैं । कहलो दीदी । हमें तो भगवान ने सुनने के लिये ही बनाया है ।"
"बकवास बन्द कर लीला और अपने घर जा । गलती की जो ...।" ऐसे में ग पूरी तरह आपे से बाहर होजाती है।
"जा ही तो रही ही हूँ दीदी ,गुस्सा काहे हो रही हैं ।"
लीला आराम से चली जाती है और ग' संयम खो देने की ग्लानि से भर जाती है । उसे काम लेना ही नही आता शायद । उसे अपनी तरह ही अपना काम समय पर और सही ढंग से करने वाले लोग ही पसन्द हैं । अगर देर होती है तो वह कैसे अपना टिफिन लिये बिना स्कूल चली जाती है । भूखा रहना मंजूर है प्राचार्य की डाँट सुनने की बजाय । लीला चाहे तो समय पर आराम से काम कर सकती है । वह भी सप्ताह में तीन दिन ही तो आना है लेकिन उसे मालूम है कि यह काम वह रुपए चुकाने के लिये कर रही है रुपए तो मिलेंगे नही । उसे लीला पर नही उसके तरीकों और सोच पर गुस्सा आता है । आते ही पहले तो आदेश सा छोडती है --"दीदी जरा बढिया सी चाय तो बनादो ।"
चाहे वह स्कूल के लिये तैयार हो रही हो ,चाय बना ही देती है । खाने-पीने की चीजों के लिये वह वशभर नही टालती ।
पर लीला कपडे भी ऐसे धोती है मानो कोई बहुत बडा एहसान कर रही हो । वह भी लगातार बडबडाते हुए---"यह शर्ट का कालर कितना चीकट हो रहा है । यह टीशर्ट तो साफ ही नही होती कितना ही रगडो । दीदी जींस के लिये गरम पानी दिया करो । अरे इतने कपडे कहाँ से इकट्ठे कर लिये ?"
"लीला पूरे सप्ताह बाद बाद आएगी तो कपडे तो मिलेंगे न ! तुम तो एक दिन छोड कर आने वाली थी न ?"
"अब आप तो सब कहती हो , पर मुझे भी तो सहूलियत देखनी पडेगी ।"
सहूलियत...अब ग का धैर्य टूटने लगा है । नानी कहती थी --आस पराई जो करे जीवत ही मर जाय..। महज रुपए वसूलने के लिये लीला के भरोसे ऐसे वह कब तक खुद को जलाती रहेगी । उससे कोई सहारा तो मिलने से रहा । ना , अब नही । इससे तो अच्छा है कि वह अपना काम खुद करलो ।
"कितने रुपए कट गए दीदी ? लिखती रहना । मैं तो भूल जाती हूँ ।"--एक दिन लीला ने पूछा तो 'ग' ने आखिर कह ही दिया---"जितने कटने थे उतने कट गए मेरी माँ । अब मुझे बख्श दे । जो बाकी रह गए हैं उन्हें चाहे तो देना नही तो मेरी तरफ से बच्चों के लिये भेंट समझ लेना ..। अब मैं कपडे खुद धो लिया करूँगी ।"
"आपकी मर्जी दीदी मैंने तो मना किया नही ।" --लीला जैसे मुक्त होकर बोली । ठीक ही तो है उसने खुद मना कहाँ किया । हाँ 'ग 'से करवा लिया ।
और इस तरह पैसों से हाथ धोकर अब 'ग 'कपडे खुद ही धोरही है ।
बड़े मियां के कान-नाक का बदला छोटे भाई ने कैसे लिया, यह जानने की उत्सुकता रहेगी।
जवाब देंहटाएंपर छोटे भाई ने कैसे बदला लिया -?
जवाब देंहटाएंRECENT POST : हल निकलेगा
दीदी,
जवाब देंहटाएंलीक से हटकर, समाज का एक दूसरा पहलू दिखाती सच्ची कहानी... आम तौर पर इस तरह की कहानियों में सहानुभूति का तत्व उस गरीब, क्षमा... बेचारी गरीब औरत के पक्ष में होता है.. लेकिन मैंने भी इन दिनों मिस्टर ग बनकर ऐसी कई आशाओं और उनके शौहरों को देखा है...
छोटे मियाँ वाली कहानी आज भी याद है मुझे.. हाँ आपकी इस कहानी से यह बात उजागर हुई कि दुनिया में खडगसिंह कम हैं, लेकिन छोटे मियाँ की भरमार है!! :)
लीला को मैं आशा लिख गया.. न जाने कैसे.. :)
जवाब देंहटाएंसमाज के एक कठोर सत्य को लिखा है आपने ... ऐसे पात्र अस पास देखने को मिल जाते हैं अक्सर ...
जवाब देंहटाएंहां छोटे मियाँ की कहानी जरूर पूरी करें ...
समाज को आईना दिखाती कहानी....
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