गजनूर-डैम |
सचमुच अप्रिय साथ में छोटा रास्ता भी लम्बा और दुर्गम प्रतीत होता है वहीं मनोनुकूल साथ में लम्बा और दुर्गम पथ भी छोटा व सुगम होजाता है । अनुकूलता में चार-छह घंटे भी बोझिल नही लगते जबकि प्रतिकूलता में दस मिनट बिताना भी कठिन लगता है । किसी विद्वान ने इसे बुद्धि-सापेक्षता कहा है ।
सीधी लगभग 360 सीढियाँ उतरने पर मिला यह हनुमन्त -फॅाल |
हम लोग शिमोगा से लगभग चालीस किमी दूर तुंगा नदी ( भद्रा नदी से मिलकर यही तुंगा नदी तुंगभद्रा कहलाती है ) के किनारे विहंगम--हॅाली-डे ट्रीट ( रिसॅार्ट) में ठहरे । वहाँ हरियाली का ऐसा मोहक विस्तार देखा कि देखते-देखते आँखें तृप्त ही न हों । वृक्षों की सघन छाँव में नदी के संगीत को सुनते हुए होरही अनुभूति अनिर्वचनीय थी .नारियल और सुपारी के हरेभरे रसमय सौन्दर्य में निमग्न मन ,पक्षियों की जानी-अनजानी मीठी बोलियाँ ,कितने ही रूप रंग के पेड पौधे, ..सब कुछ अपूर्व और स्वप्निल था सुपारी के लम्बे और ऊँचे पेडों को देखकर ,जिनमें ऊपर सुपारी के गुच्छे टँगे हुए थे , पन्त जी की कविता याद आती थी --
"उच्चाकांक्षाओं से तरुवर ,
हैं झाँक रहे नीरव नभ पर ,
अनिमेष अटल कुछ चिन्ता पर.."
नारियल और सुपारी के लम्बे तनों से कालीमिर्च की लताएं लिपटीं थी जिनमें कालीमिर्च की लम्बी झूमरें लटक रही थी । दूसरी तरफ काफी के पौधों में कॅाफी के सुर्ख दाने झरबेरी से भी अधिक रसमय दिख रहे थे । सबकुछ अद्भुत । ऐसा कम ही होता है कि हम अपने साथ हर क्षण को पूरी तरह जियें . यकीनन उस समय हम थे और आसपास था केवल वह स्वप्न संसार . और दूर तक कोई नही ..
उस दुनिया में हम सब एक आनन्दमय कौतूहल से भरे बच्चे बने हुए थे ।
रात को जलते अलाव और आसपास कुर्सियों पर बैठे सभ्य लोगों को मनोरंजन करते देख मुझे गाँव की याद आई ।
गाँव में अलाव ऐसे मँहगे रिजार्ट की तरह मनोरंजन का नही ,सर्दियों में जीवन का एक अभिन्न अंग हुआ करते हैं । मानव-स्वभाव अपनी जडों से दूर नही जासकता । बुद्धि-चातुर्य ने इसका लाभ उठाते हुए जड और जमीन को बाजार में लाकर उसे बहुमूल्य बना दिया है । बाजरा मक्का की रोटियाँ ,सरसों बथुआ का साग जो गाँव में बेहद सस्ता या बिना मूल्य के ही मिल जाता है फाइव स्टार होटलों में एक लोकप्रिय और मँहगे मेनू के रूप में परोसा जाता है । सस्ती देहाती चीजों का ऐसा मूल्यांकन मन को सन्तोष--असन्तोष दोनों से ही भर देता है । क्योंकि इन्हें पैदा करने वाले विपन्न ही हैं . उन्हें इस बाजार का लाभ कहाँ मिल पाता है .
दूसरे दिन सुबह हम लोग हाथी-सफारी गए जहाँ चार माह के बच्चे से लेकर पिन्चानवे साल के हाथी को देखा . बड़े बलिष्ठ हाथी महावत के इशारों पर अपनी अदाएं दिखा रहे थे अरे हाँ.. हाथियों को नाश्ता कराने का तरीका पहली बार देखा । एक हाथी को चार कच्चे नारियलों के पतले टुकडे बाल्टी भर दाने में मिलाकर धान के रेशों में उसे भर कर हाथी को खिलाया जाता है । पर इतना इन्तजार कौन करे । चार माह के नन्हे महाशय बीच-बीच में बाल्टी में मुँह मारने बार बार चले आ रहे थे और दण्ड-स्वरूप डण्डे भी खा रहे थे । श्वेता ने द्रवित होकर कहा -- "भैया उसे मारो मत ."
महावत ने कहा-" अगर हम नही मारेंगे तो यह हमें मार देगा । "
महावत का कहना भी सही था . इतने बलिष्ठ जानवर के पैरों के पास बैठकर उसे खाना खिलाना , और देखभाल करना क्या आसान है .हाथियों ने अपनी सूँड़ से सबको बारी बारी उठाकर लटकाया और माला पहनाई .हाथी-सफारी में खूब आनन्द आया लेकिन हाथी पर सवारी करना मुझे कम पसन्द आया . माना कि वह बलवान होता है फिर भी उसकी पीठ पर छह-सात लोगों को बिठाकर घुमाना जानवर पर अत्याचार ही है .
अगले दिन लगभग दो हजार सात सौ फीट ऊँचे कुन्दाद्रि पर जैन तीर्थंकर श्री पारसनाथ ( जैसा वहाँ बताया गया ) का तपस्थल देखा । कुन्द पर्वत की सीधी चढाई पर ड्राइवर महोदय मंजुनाथ तो बडे आत्मविश्वास के साथ इनोवा को दौडाए जारहे थे पर हमारी साँसें थमी सी रहीं जब तक कि ऊपर नही पहुँच गए । इतनी ऊँचाई पर एक छोटे से स्मारक को सहेजकर रखने की और पत्थरों पर फूल खिलाने की इस प्रवृत्ति और प्रयास के सामने हम सहज ही नत-मस्तक होगए ।
सुबह सूरज का दर्पण बनी तुंगा नदी |
यहाँ से पश्चिमी घाट का प्रारम्भ है .वहाँ पहुँचने के लिये पहाडों से उतरते हुए रास्ता पार करना एक बेहद रोमांचक अनुभव था । जैसे इनोवा एक नाव हो जो हरियाली के सागर की लहरों में ऊपर नीचे ऊपर नीचे हिचकोले खाती गहरे में राह बनाती चली जारही हो ।
मुझे भवानी प्रसाद जी की कविता की पंक्तियाँ याद आ रही थीं --
"एक सागर जानते हो ? उसे कैसा मानते ? हो ठीक वैसे घने जंगल , ऊँघते अनमने जंगल...। "
रास्ते भर असंख्य प्रकार के ऊँचे सघन मनोहर वृक्षों का विशाल वैभव हमें निःशब्द बना रहा था । कोई लाल पल्लवों के कुरते पहने ,कोई सन्यासियों की सी लम्बी दाढी रखे हुए ,कोई आसमान को सहारा देने स्तम्भ बनने की धुन में बेहिसाब लम्बा ,तो कोई जगह का अतिक्रमण किए हुए फैला हुआ । किसी के मजबूत पत्ते तेल मालिश जैसी स्निग्धता लिए ,किसी के पत्ते कतरनों जैसे । किसी के पत्ते मित्रता के लिये हाथ बढाते हुए प्रतीत होते थे । मन उनसे परिचित होने के लिये आतुर था । कितना अच्छा हो कि हर वृक्ष कर्मचारियों की तरह अपना परिचय-पत्र भी गले में लटकाए रहे । परिचय करना आसान हो जाए । अपरिचय कितना असहनीय सा लगता है ।
इसके दूसरे दिन कोल्लूर में मूकाम्बिका देवी का मन्दिर देखा । मन्दिर चाहे माँ मूकाम्बिका का हो ,अन्नपूर्णेश्वरी का हो या श्री कृष्ण मठ हो ,अपने इष्ट के दर्शनों के लिये जैसी श्रद्धा धैर्य और अनुशासन दक्षिण भारत में देखा है वह एक उदाहरण है ।
शाम को हम उडूपी पहुँचे । वहाँ श्री कृष्ण-मठ एक प्रसिद्ध दर्शनीय स्थान है ।
पहले हम श्री कृष्ण-मठ गए लेकिन दर्शनार्थियों की कतार की लम्बाई देख रुकने का साहस नही हुआ । पता चला कि सुबह साढे चार बजे भीड नही मिलती । लेकिन हमने पाया कि वहाँ इतनी सुबह भी लाइन लगी थी हालाँकि छोटी थी । लेकिन हैरानी तब हुई जब कृष्ण भगवान के दर्शन दो पल के लिये वह भी एक जालीदार खिडकी से ही मिल रहे थे । एक जाली से प्रतिमा को ठीक से देख भी नही पाते कि वहाँ तैनात पुजारी तुरन्त आगे बढा देता है । उस क्षणिक वह भी अस्पष्ट झलक के लिये लोग घंटों लाइन में लगे अपने नम्बर की प्रतीक्षा करते हैं यह सोचकर हैरानी हुई ,उनकी श्रद्धा के आगे मैं तो अभिभूत होगई ,पर यह सवाल भी लगातार कुरेदे जारहा था कि आखिर खिडकी से इस तरह भगवान के दर्शन कराने के पीछे क्या कारण हैं ? क्या मन्दिर में ऐसी कोई वस्तु है जिसकी सुरक्षा के लिये खिडकी का ही इस्तेमाल हो सकता है दरवाजे का नही । इसके पीछे कोई कारण या कहानी तो जरूर होगी ।
श्री कृष्ण-मठ उडूपी |
श्री कृष्ण-मठ का कुण्ड सुबह की प्रतीक्षा में |
वह यों है कि ,एक निम्न वर्ग का गरीब आदमी भगवान के दर्शन करना चाहता था । इसके लिये वह मन्दिर में आगया । उसे देखते ही पंडित-पुजारियों ने किवाड लगा दिये और उसे झिडककर भगा दिया लेकिन उसे दर्शनों की बडी लगन थी सो उसने किसी तरह छुपते-छुपाते खिडकी से ही भगवान के दर्शन किये पर इसके बदले उसे दण्डित किया गया । भगवान को उस पर प्रेम और दया उत्पन्न हुई और लोगों पर रोष । उन्होंने अपना मुँह जो दरवाजे की तरफ था ,खिडकी की ओर कर लिया कि लो अब सब इसी तरह दर्शन करो जैसे उस गरीब भक्त को करने पडे । इस तरह खिडकी से ही दर्शनों की परम्परा शुरु हुई । सच है-- प्रबल प्रेम के पाले पडकर प्रभु को नियम बदलते देखा ।
शाम को 'मालपे-बीच' गए । यह था यात्रा के आनन्द का चरम । लहराता अरब सागर साफ-सुथरा लम्बा 'बीच' । सबको खींचती पछाडती उत्तुंग लहरें बाँहे पसारे सूरज को बुला रहीं थीं । कुछ देर की ना-नुकर के बाद अन्ततः सूरज लहरों की गोद में समा गया । अद्भुत दृश्य था । जिन्होंने कई बार समुद्र देखा है उनके लिये ये बातें बहुत ही बचकानी हो सकतीं हैं पर जिसने पहली बार जल का ऐसा उन्मत्त अपार विस्तार देखा हो वह कहाँ तक चकित व विमुग्ध न होगा । मेरा वही हाल था । उस महौदधि के समक्ष मन बच्चों की तरह उछल रहा था । भय मिश्रित आनन्द का यह प्रथम अनुभव था ।
बहुत सुन्दर वृत्तांत.....
जवाब देंहटाएंआपके साथ सैर करना बड़ा भाया!!
सादर
अनु
मैंने कभी दक्षिण भारत की यात्रा नहीं की। अब आपका लिखा पढ़कर यह इच्छा और भी तीव्र हो गई है। बहुत ही सुंदर वर्णन किया है आपने। पंत जी के शब्दों की अनुभूति से लेकर झरोखे वाले मंदिर के दर्शन तक का पूरा संस्मरण आपने इतने रोचक ढंग से लिखा है कि बार-बार पढ़ने और सहेजने की इच्छा होती है।..ब्लॉग के माध्यम से ही सही दक्षिण भारत की यह यात्रा काफी सुखद रही।
जवाब देंहटाएंदीदी, सोचा था आज शाम को इत्मिनान से अपनी टिप्पणी दूँगा, लेकिन लगा कि तब तक पोस्ट पढ़ने का आनन्द बासी हो जाएगा और फिर हो सकता है शब्दों में बनावट आ जाए, अत: अभी ही लिखने लगा..
जवाब देंहटाएंदक्षिण भारत की यात्रा में यह अंचल मुझसे अछूता रहा है, जबकि इसके साथ मेरा पिछले तीस सालों का सम्बन्ध है... कुछ कटुता, कुछ अनुभव ही ऐसे रहे..
इस यात्रा-वृत्तांत को पढ़ते हुए सबसे पहले मन में राजेश रेड्डी का एक शे'र गूँजने लगा:
मेरे दिल के किसी कोने में इक मासूम सा बच्चा,
बड़ों की देखकर दुनिया, बड़ा होने से डरता है!
आपके अन्दर का बच्चा लगता है बड़ा हुआ ही नहीं.. आपके जीवंत चित्रण में आपके अन्दर का साहित्यकार प्रबल है, किंतु अनुभूति एक बच्चों सी है.. देखिये ध्यान से, आपने औपचारिकता भरे "मैं" को त्याग कर, अनौपचारिक "हम" का प्रयोग किया है स्वयम के लिये..
यात्रा-वृत्तांत लिखने वालों के लिये यह एक मानक पोस्ट है.. सागर का विस्तार लिए और अवश्य ही 'भयरहित'.. प्रकृति के उन प्रथम नागरिकों का वर्नन हो या सदा से ही दरिद्रों के नारायण रहे प्रभु का.. सब मन को मोह लेता है.. सुधा जी को मेरा नमस्कार प्रेषित कर रहा हूँ उनकी इनपुट के लिये!!
आपकी पोस्टों को पढ़ना हमेशा एक कक्षा में बैठकर सीखने का अनुभव होता है! ब्लॉग-जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि आपके स्नेह-छत्र की प्राप्ति है! सादर!!
भाई आपने सच कहा । मैं उस बच्चे से चाह कर भी मुक्त नही होपाती । पता नही यह अच्छा है या बुरा लेकिन सचमुच ही वह बडा होने से डरता भी है ।
हटाएंहम दोनों स्थान घूम आये हैं, बहुत ही सुन्दर हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा। ऐसे जैसे कि आप नहीं मैं ऐसे दृश्य और स्थान देख रहा हूँ। इतना तो परिचय दे दिया आपने सभी वृक्षों का तो उनको स्वयं का परिचय-पत्र लटकाने की क्या आवश्यकता थी। वाकई संस्मरण यदि पुस्तक-प्रारूप में हो तो मैं कई बार पढ़ूं। शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर यात्रा वृत्तांत.
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट : नींद क्यों आती नहीं रात भर
बहुत ही सुंदर संस्मरण आपके साथ हमने भी घूमलिया...:) नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर यात्रा वृत्तांत. प्रकृति का कण-कण बहुत सुन्दर रूप में हमें मिला है. वक़्त मिले तो इन्हें समेत लेना चाहिए. शुभकामनाएँ.
जवाब देंहटाएंmanbhavak aur manmohak anupam drishrya ,prakrtik drishya mujhe behad lubhate hai ,bahut hi sundar yaatra vritant .nav varsh mangalmaya ho .
जवाब देंहटाएंसाहित्यिक रस के साथ कर्नाटक के महत्वपूर्ण पर्यटन स्थलों का वर्णन जी ढंग से अपने किये है... प्राकृतिक सौंदर्य की तरह अनुपम और अद्वितीय है... मेरे जैसे घुमक्क्डी के शौक़ीन को प्रेरित करने का काम किया है आपके इस यात्रा वृत्तांत ने...
जवाब देंहटाएंमम्मी हालाँकि हम सब आपके साथ ही थे, पर एक नयी अनुभूति हुई आपकी रचना और वर्णन पढ़ाकर पढकर।
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