सोमवार, 22 दिसंबर 2014

कोहरे में डूबी सुबह


ग्वालियर में इस समय गजब की सर्दी है . सुबह नौ-दस  बजे भी चारों ओर कोहरे की मोटी चादर फैली रहती है . अभी  कही कुछ नहीं दिखाई दे रहा . ऐसे में मुझे अपनी यह लगभग छत्तीस वर्ष  पहले  लिखी कविता को यहाँ देने का बहाना मिल गया .यह भी कि अभी नया कुछ नहीं लिखा सो यही सही .
--------------------------------------------------------------------------
अभी जब मेरी पलकों में समाया था कोई स्वप्न .
नीम के झुरमुट में चहचहा उठीं चिड़ियाँ चिंता-मग्न.
अरे अरे ,कहाँ गया वह सामने वाला पीपल ?
कौन ले गया बरगद ,इमली ,नीम ,गुडहल ?.
कहाँ है नीला नारंगी आसमान ?
तब देखकर मैं भी हैरान ,
कि सचमुच नहीं हैं अपनी जगह
दीनू की दुकान 
सरपंच की अटारी और मंगलू का मकान
सामने दिखने वाला  खूबसूरत मानमन्दिर ( ग्वालियर दुर्ग ) कहाँ गया  ?
फैलू की झोपडी पर सेम-लौकी का वितान
धुंध में डूबे हैं दिशाओं के छोर
चारों ओर
सारे दृश्य अदृश्य
सुनाई दे रही हैं सिर्फ आवाजें,
चाकी के गीत
चिड़ियों का कलरव
गाड़ीवाले की हांक
किसी की साफ होती नाक
फैला है एक धुंधला सा पारभासी आवरण
कदाचित्
बहेलिया चाँद ने
तारक-विहग पकड़ने
फैलाया है जाल

या सर्दी से कंपकंपाती धरती ने
सुलगाया है अलाव
उड़ रहा है धुँआ
 .
या आकाश के गली-कूचों में
हो रही है सफाई
या फिर रात की ड्यूटी कर  
लौट रहा है प्रतिहारी चाँद
उड़ रही है धूल .

या फिर ‘गुजर’ गयी रजनी
उदास रजनीश कर रहा है
उसका अंतिम-संस्कार
या कि   
यह धुंधलका जो
फैल गया है भ्रष्टाचार की तरह
किसी की साजिश है
सूरज को रोकने की .
नहीं दिखा अभी तक .

बहुत अखरता है यों
'सूरज' का बंदी होजाना .

6 टिप्‍पणियां:

  1. सर्द और धुंध भरी सुबह का बिम्ब

    जवाब देंहटाएं
  2. दीदी! आपकी ये कविताएँ रखी कहाँ होती हैं जिन्हें आप इतने-इतने सालों बाद निकालकर अपने वर्त्तमान के आलस्य का "प्रायश्चित" कर लेती हैं?? नए टाइपिंग टूल से टाइप करने में इस बार कुछ त्रुटियाँ दिख रही हैं.
    "सुनाई दे रहे हैं सिर्फ आवाजें" - सुनाई दे रही हैं
    की जगह
    और "पारभाषी आवरण" - पारभासी आवरण की जगह

    और इस रचना के बारे में क्या कहूँ. फ़िलहाल तो इस अनुभव से वंचित हूँ. मगर कल्पना कर सकता हूँ. धुन्ध तो वैसे भी बड़ी रहस्यमयी होती है. आश्चर्य क्या कि आपने इसमें से कुछ रहस्य अपनी कल्पना से उद्घाटित किये हैं... न जाने कितने छिपे होंगे इस कोहरे के पीछे! मेरे लिये तो आपकी यह कविता सूरज के बग़ैर माइक्रोवेव ऑवेन जैसे एक दिन की तरह है, जिसकी ऊष्मा से कोहरा छँट रहा है और कई रहस्यों से पर्दा उठ रहा है!
    एक बार फिर आपकी उपमाओं पर मुग्ध हूँ!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सलिल भैया ,टाइप करने में कुछ मुश्किल तो आ रही है क्योंकि एक शब्द लिखने पर विकल्प में तीन--चार शब्द आजाते हैं .चयन का ध्यान नहीं रहता पोस्ट करने के बाद रचना का पुनरावलोकन न करंने से ऐसी गलतियाँ होती हैं . .अच्छी बात यह है कि रचना को आप पढ़ लेते हैं तो सुधार हो ही जाता है .
      ऐसी और बहुत सी कविताएँ हैं . उन्हें देख रही हूँ . अभी मैंने अपनी पहली कविता देखी जो ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ते हुए लिखी थी . कभी यहाँ पोस्ट करुँगी ऐसे ही आलस्यवश .उनका भी इस तरह उद्धार होता चलेगा .

      हटाएं
  3. बहुत ही भाव पूर्ण रचना...आभार

    जवाब देंहटाएं
  4. वाह, कोहरे का माया को प्रत्यक्ष कर दिया आपने तो ,एक भरा-पुरा संसार आँखों से ओझल बस ध्वनियाँ बची हैं -जैसे सृष्टि के प्रारंभ से पूर्व, केवल शब्द.
    कुछ विस्मय भी कि छत्तीस बरस पहले की नादान उम्र में , भ्रष्टाचार को कविता में निरूपित कर सकीं.मनोरम अभिव्यक्ति !

    जवाब देंहटाएं