यह पोस्ट ब्लॉग की पहली पोस्ट है . लेपटॉप में खराबी आ गई है . नई पोस्ट अभी संभव नहीं लेकिन चार माह से निष्क्रिय पड़े ब्लॉग को जारी रखने इसे दिया है .
--------------------------------------
वाणी अम्मा अब काम पर नहीं आती . लगभग दो माह से वह बीमार सी दिख रही थी . अक्सर नागा भी करने लगी थी ।अब बिल्कुल नही आरही ।अभी दो दिन पहले ही सरोज अम्मा से पता चला कि डा. ने वाणी अम्मा को कैंसर बताया है । सरोज अम्मा नीचे सामने वाले घर में काम करती है वह
हिन्दी समझ लेती है और टूटीफूटी बोल भीलेती है, उसी
तरह जिस तरह चलना सीखरहा बच्चा लडखडाते हुए ही
सही कुछ कदम तो चल ही लेता है ।
इस दुखद सूचना से हम सब स्तब्ध हैं ।दुखी भी हैं ।वाणी अम्मा पिछले चार साल से हमारे यहां काम कर रही थी ।गहरे रंग.छरहरे बदन और सरल हँसी वाली तमिल-भाषी वाणी अम्मा इतने समय में हमसे इतनी घुल-मिल गई थी कि हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी का एक हिस्सा ही बन गई थी ।भाव संचार के लिये भाषा का माध्यम न होनेपर भी वह अपना सुख-दुख प्रकट करलेती थी ।जैसे कि मैं जब भी बैंगलोर आती ,वह अचानक सुबह-सुबह मुझे घरमें देख खुशी के मारे दोनें बाँहें फैला कर कहती--आ...अम्मा----।इसी तरह जब मैं उसे उदास देख कर उसके कन्धेपर हाथ रख कर उदासी का कारण पूछती तो वह मेरे कन्धे पर सिर टिका कर फफक कर रो पडती थी ।तब मैं यहसमझकर कि इसके साथ कोई गहरा दुख जुडा है ,उसे सान्त्वना तो दे देती थी पर......।मैं मानती हूँ किप्रेम,पीडा,आनन्द,घ्रणा .आदि भाव व्यक्त होने के लिये शब्दों के मोहताज नही है। संवेदना की भाषामानवीय,सर्वमान्य,और सर्वकालिक होती है ।वैसे भी उसे जो कुछ व्यक्त करना होता था कर लेती थी ।उसे कुछशब्द अंग्रेजी के ---बकेट,सोप,क्लिप आदि---आते ही थे बाकी कामों ---खाना कपडा माँगने--वह संकेतों से काचलाती थी ।उसके लिये शायदयही काफी था ।पर मेरे लिये इतना काफी नहीं है ।मैं जानना चाहती हूँ कि उसनेचप्पलें पहनना क्यों छोड दिया । कि ,वह बडे जतन से खाना बचा कर किसके लिये ले जाती है ।
कि ,सरोजअम्मा के कथनानुसार उसका बेटा उसे घर से चाहे जब निकाल देता है तो क्यों उसका विरोध करने कीबजाय उसकी फिक्र करती है ।और कि ........और न जाने कितनी बातें ।मेरे लिये आँसू और मुस्कान की भाषा सेआगे और ज्यादा महत्त्व शब्दों की भाषा का है ।वस्तुतः मानव जीवन दूसरे जीवनों से अभिव्यक्ति की क्षमता केकारण ही तो अलग है ।एक दूसरे की व्यथा-वेदना को,भाव-संसार को जानना ही नही उसे पूरी तरह समझना भीजरूरी है । मेरा मानना है कि अपने आस-पास से ...जमीन से जुडे बिना आत्मीयता नहीँ आसकती ।और जुडावभाषा-संवाद के बिना नहीं होता ।मुझे यह अखरता है कि मैं बडे-बडे सिन्दूरी फूलों वाले और जहाँ-तहाँ विशालछतरी की तरह फैले गुलाबी फूलों वाले इन पेडों के नाम भी नही जानती , या कि किसी प्रतिमा को सजा कर फूलबरसाते हुए बैंड-बाजों के साथ जो जलूस निकला वह क्या ,कौनसा उत्सव था ।क्यों कि मुझे यह सब समझाने वालीभाषा उन्हें नही आती जो इसे जानते होंगे । अगर सरोज नही होती तो वाणी अम्मा के बारे में हमें कहाँ से पताचलता ।
भाषायी समझ की आवश्यकता के अनुमान के लिये एक और प्रसंग याद आरहा है ।एक सुबह जब मैं पार्क में टहलही थी एक हमउम्र महिला की अपनत्व भरी सी मुस्कान ने मुझे संवाद के लिये प्रेरित किया ।पर विडम्बना यह किउन्हें अंग्रेज तक नही आती (,हिन्दी की तो बात ही नही है ) और मुझे कन्नड ।विवश होकर हमें मुस्कान औरअभिवादन तक ही सीमित रहना पडा ।
बैंगलोर आकर मुझे निरक्षरता की पीडा का अहसास होता है ।जब मैं केवल कन्नड में(अंग्रेजी नही ) लिखी सूचनाव विज्ञापनों को देखती हूँ,तो न पढ पाने की बेवशी कचोटती है ,एक अँधेरे का अनुभव होता है । ।अक्षर -ज्ञान कीमहत्ता व आवश्यक समझ आती है । अक्षर उजाले का स्रोत हैं , दिमाग के दरवाजों की कुन्जी है ।चेतना के द्वार हैं ।अक्षर जमीन हैं आसमान हैं ।
कि ,सरोजअम्मा के कथनानुसार उसका बेटा उसे घर से चाहे जब निकाल देता है तो क्यों उसका विरोध करने कीबजाय उसकी फिक्र करती है ।और कि ........और न जाने कितनी बातें ।मेरे लिये आँसू और मुस्कान की भाषा सेआगे और ज्यादा महत्त्व शब्दों की भाषा का है ।वस्तुतः मानव जीवन दूसरे जीवनों से अभिव्यक्ति की क्षमता केकारण ही तो अलग है ।एक दूसरे की व्यथा-वेदना को,भाव-संसार को जानना ही नही उसे पूरी तरह समझना भीजरूरी है । मेरा मानना है कि अपने आस-पास से ...जमीन से जुडे बिना आत्मीयता नहीँ आसकती ।और जुडावभाषा-संवाद के बिना नहीं होता ।मुझे यह अखरता है कि मैं बडे-बडे सिन्दूरी फूलों वाले और जहाँ-तहाँ विशालछतरी की तरह फैले गुलाबी फूलों वाले इन पेडों के नाम भी नही जानती , या कि किसी प्रतिमा को सजा कर फूलबरसाते हुए बैंड-बाजों के साथ जो जलूस निकला वह क्या ,कौनसा उत्सव था ।क्यों कि मुझे यह सब समझाने वालीभाषा उन्हें नही आती जो इसे जानते होंगे । अगर सरोज नही होती तो वाणी अम्मा के बारे में हमें कहाँ से पताचलता ।
भाषायी समझ की आवश्यकता के अनुमान के लिये एक और प्रसंग याद आरहा है ।एक सुबह जब मैं पार्क में टहलही थी एक हमउम्र महिला की अपनत्व भरी सी मुस्कान ने मुझे संवाद के लिये प्रेरित किया ।पर विडम्बना यह किउन्हें अंग्रेज तक नही आती (,हिन्दी की तो बात ही नही है ) और मुझे कन्नड ।विवश होकर हमें मुस्कान औरअभिवादन तक ही सीमित रहना पडा ।
बैंगलोर आकर मुझे निरक्षरता की पीडा का अहसास होता है ।जब मैं केवल कन्नड में(अंग्रेजी नही ) लिखी सूचनाव विज्ञापनों को देखती हूँ,तो न पढ पाने की बेवशी कचोटती है ,एक अँधेरे का अनुभव होता है । ।अक्षर -ज्ञान कीमहत्ता व आवश्यक समझ आती है । अक्षर उजाले का स्रोत हैं , दिमाग के दरवाजों की कुन्जी है ।चेतना के द्वार हैं ।अक्षर जमीन हैं आसमान हैं ।
Haan, aapne sahi kaha bua! Waise mujhe ye khalta hai ki main itne saal wahan rah kar wahan ki bhasha waise seekh nnahi paya...bas toota foota hi aata hai...
जवाब देंहटाएंLekin shuruaaat ke dinon me bhi aise kai log mile mujhe bhi jinhe meri baaten samajh nahi aayi, aur mujhe unki..baat me fir aadat ho gayi...toota foota jod ke samajh hi lete the
विचारणीय
जवाब देंहटाएंदीदी, आप तो व्यक्त और अव्यक्त दोनों को महसूस कर लेती हैं. लेकिन जिन घटनाओं का आपने वर्णन किया है उन्हें जानकर मं कचोट कर रह गया. रही बात भाषा ना समझ पाने की, तो इस मामले में आपका छोटा भाई ज़रा सा भाग्यशाली है. मैं तो ज़्यादा दिन तक बर्दाश्त नहीं कर सकता अपनी निरक्षरता... मैं जुट जाता सीखने में. अब जब आप लौट आई हैं, सीखना शुरू कर दीजिए और अगले प्रवास में वाणी अम्मा (परमात्मा उन्हें लंबी उम्र दे और आरोग्य प्रदान करे) को कन्नड़/ तमिल बोलकर चकित कर दें.
जवाब देंहटाएंआपने सही कहा .मातृभाषा के अलावा कम से कम दो भाषाएँ आनी चाहिए .एक जहाँ रह रहे हैं दूसरी अंग्रेज़ी .उसके बाद मैंने भी कन्नड़ लिपि और कुछ जरूरी शब्द याद किये थे पर अब सह तरीके से सीखने का मन है .यह ब्लॉग की पहली पोस्ट है .वाणी अम्मा दस साल पहले आया करती थी ॥
हटाएंबहुत ही प्रभावशाली, शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
आभार ..
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (03-07-2016) को "मिट गयी सारी तपन" (चर्चा अंक-2654) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार ..
हटाएंऐसा अक्सर होता है ... इंसान चाहता। हाई है पर हो नहीं पता ... पर अब भी देर कहाँ हुयी है आप की इच्छा शक्ति बताती है की आप अब भी सीख सकती है ...
जवाब देंहटाएं