हवाओं में आज कुछ नमी सी है .
खिड़कियों पर धुन्ध आकर जमी सी है.
ओप सूरज की सिमटती जा रही है ,
फुनगियों पर धूप भी
अनमनी सी है .
राह में आकर मिला जबसे समन्दर ,
धार नदिया की तभी से थमी सी है.
पेड़ ,पंछी ,फूल ,मौसम खुशनुमा हैं .
कौन फिर जिसके बिना कुछ कमी सी है ?
'भाव मेरा जो , वही उसका भी होगा . '
सोच सारी उसी में ही रमी सी है .
उजड़ता ,बसता ,उगा लेता है फसलें ,
फितरतें मन की बहुत कुछ ज़मीं सी हैं .
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (22-06-2022) को चर्चा मंच "बहुत जरूरी योग" (चर्चा अंक-4468) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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आभार शास्त्री जी.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर । मन और ज़मीन की फ़ितरत मिली-जुली सी है ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही गज़ब लिखा आपने सराहनीय सृजन।
जवाब देंहटाएंसादर
धन्यवाद अनीता जी
जवाब देंहटाएंउजड़ता ,बसता ,उगा लेता है फसलें ,
जवाब देंहटाएंफितरतें मन की बहुत कुछ ज़मीं सी हैं .
वाह ! बहुत उम्दा शेर !! वैसे सभी सुंदर हैं
बहुत आभार अनीता जी . आपके शब्द सार्थक बना देते हैं .
जवाब देंहटाएंउजड़ता ,बसता ,उगा लेता है फसलें ,
जवाब देंहटाएंफितरतें मन की बहुत कुछ ज़मीं सी हैं .... सराहनीय सृजन।
धन्यवाद संजय
हटाएंइतने दिनों बाद इस कविता पर कुछ भी कहना कोइ अर्थ नहीं रखता. जब पढ़ा था पहली बार तभी मुग्ध हो गया था इसे पढ़कर.
जवाब देंहटाएंभाव मेरा जो वही उसका भी होगा
सोच मेरी अब ग़लतफहमी सी है.
मुझे सबसे पसंद आई यह पंक्तियाँ, क्योंकि यह मेरे जीवन के बहुत समीप है.
आपके शब्द जैसे रचना की सार्थकता के सच्चे गवाह हौते हैं ।
जवाब देंहटाएंNice post thank you Marelis
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