अब दिनों का बढ़ना शुरु होरहा है . उससे पहले ही दिसम्बर के छोटे दिनों को लेकर एक कविता पुनः प्रस्तुत है -------------------------------------------------------------
मँहगाई सी रातेंसीमित खातों जैसे दिन ।
हुए कुपोषण से ,
ये जर्जर गातों जैसे दिन ।
पहले चिट्ठी आती थीं
पढते थे हफ्तों तक
हुईं फोन पर अब तो
सीमित बातों जैसे दिन ।
वो भी दिन थे ,
जब हम मिल घंटों बतियाते थे
अब चलते--चलते होतीं
मुलाकातों जैसे दिन ।
अफसर बेटे के सपनों में
भूली भटकी सी ,क्षणिक जगी
बूढी माँ की
कुछ यादों जैसे दिन ।
भाभी के चौके में
जाने गए नही कबसे
ड्राइंगरूम तक सिमटे
रिश्ते--नातों जैसे दिन ।
बातों--बातों में ही
हाय गुजर जाते हैं क्यों
नई-नवेली दुल्हन की
मधु-रातों जैसे दिन ।