हृदय धरा का
अथाह
,असीम
नेह
भर उमड़ता है,
देखकर
प्रिय को
पूर्णकला
सम्पन्न
भर लेता
है आगोश में
वंचित
से किनारों को .
भर
देता है दामन बादलों का
दिल
खोलकर .
धड़कता
है हदय धरा का
किसी
की आहट पर
प्रतीक्षा
और धैर्य की
टकराहट
पर .
हिलोरें
उठतीं हैं
मिलती
हैं जब बदहाल नदियाँ
लिपटती
हैं ससुराल से आईं बेटियाँ
जैसे
माँ से
मन
ही मन सिसकता है .
हदय
धरा का .
और गरजता
भी है
हृदय
धरा का
किसी
के थोथे दम्भ पर
झूठे
अवलम्ब पर .
अनर्थ
और अतिचार पर
उफन
उफन कर
हर
चिह्न मनमानी का .
लिखता
है गीत
सावन
की हरियाली के
फूलों
भरी डाली के .
पर
ध्यान रहे कि
रुष्ट
हो तो
प्रलय
भी लाता है .
हदय
धरा का .
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" रविवार 03 दिसम्बर 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद यशोदा जी
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद जोशी जी
जवाब देंहटाएंवाक़ई कुदरत के आदमी की आगे मनमानी नहीं चलती
जवाब देंहटाएंमिचौंग तूफ़ान शायद धरा के गरजते हुए ह्रदय का ही प्रमाण है।लोभ और अहंकार तजकर मानव को कुदरत के सामने नत मस्तक होना है
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ...
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