सन्दर्भ --पौराणिक कथा
हिरण्यकश्यप कश्यप मुनि और दिति के गर्भ से उत्पन्न परम शक्तिशाली दैत्य था । उसे तपस्कया स्वरूप अनेक वरदान प्राप्त थे जिसमें एक वरदान अमर रहने का भी था ।इसलिये वह अत्यन्त अहंकारी होगया था । स्वयं को ही ईश्वर कहता था इसलिये वह अपने पुत्र प्रह्लाद से बहुत रुष्ट था जो भगवान विष्णु की आराधना करता था । उसे रोकने के लिये अनेक यातनाएं दी गईँ पर उसने विष्णु का नाम लेना नहीं छोड़ा तब हिरण्यकश्यप ने बहिन होलिका को बुलाया जिसे वरदान में ऐसी चादर मिली थी जिस पर अग्नि का प्रभाव नही होता था । तय हुआ कि होलिका अपनी चादर ओढ़कर प्रहलाद को लेकर अग्नि की लपटों में बैठ जाएगी । चादर के कारण होलिका बच जाएगी और प्रह्लाद का अन्त हो जाएगा लेकिन दैवयोग से चादर उड़कर प्रह्लाद पर जा गिरी तो प्रह्लाद बच गया और होलिका जल मरी । होलिका दहन घटना की की याद में होता है ।
---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------सूखी लकड़ियों की ऊँची वेदिका पर होलिका प्रह्लाद को लेकर बैठ गई । मन में विश्वास था कि सर्वशक्तिमान दैत्यराज भ्राता हिरण्यकश्यप के विषाद व क्रोध के कारण को समाप्त कर सकेगी । प्रह्लाद के लिये उसके मन में बड़ा रोष था । ज़रा सा बालक और पिता की , जिसकी शक्ति के आगे संसार झुकता है , ऐसी अवज्ञा ! अरे जिसे सारी दुनिया अपना ईश्वर मान रही है प्रह्लाद क्यों नहीं मान लेता । कठोर यातनाएं सहकर भी विष्णु का नाम लेना नहीं छोड़ रहा । विष्णु से दैत्यकुल का एक ही सम्बन्ध है शत्रुता का सम्बन्ध । नादान बालक शत्रु के गुण गा रहा है तो सजा भी वहीं होगी न जो एक देशद्रोही की होती है बालक है तो क्या हुआ एक राज्य से , राजा की आज्ञा से ऊपर तो नहीं हो सकता । लेकिन हठधर्मिता में आखिर है तो अपने पिता का ही अंश । यातनाओं के सारे प्रयास बेकार हुए तब प्रह्लाद की कहानी को सदा के लिये खत्म करने के लिये बहिन होलिका को बुलाया गया है । होलिका के पास एक चादर है जो उसे कड़ी तपस्या के पश्चात ब्रह्मा जी से वरदान-स्वरूप मिली थी । इस पर अग्नि का प्रभाव नही होता था । योजना यह थी कि होलिका चादर को ओढ़कर ,प्रह्लाद के साथ अग्निवेदिका पर बैठ जाएगी । अपनी दिव्य चादर के कारण वह तो जलती हुई लपटों में भी सुरक्षित निकल आएगी और प्रह्लाद जलकर भस्म हो जाएगा ।
"एक अल्पवय बालक अपनी अज्ञानता और हठधर्मिता के कारण जीवन गँवाने जा रहा है। यह उस हर व्यक्ति के लिये उदाहरण होगा जो दैत्यराज की अवज्ञा करेगा । बालक है तो क्या , अपराध तो बड़ों जैसा ही है अपने पिता और सम्राट की अवज्ञा , विद्रोह । दण्ड तो अपरिहार्य है । होलिका ने अपनी चादर को समेट पर अच्छी तरह लपेट लिया ताकि उड़ न जाए ।
लकड़ियों में आग लगा दी गई । जल्दी ही चारों ओर से आग की लपटें उठने लगीं । और जैसे जैसे लपटें राक्षसी की तरह मुँह फाड़े होलिका और प्रह्लाद को अपने बाहुपाश में भरने बढ़ती जा रही थी होलिका के मन में उथल पुथल सी होने लगी । वह बराबर प्रह्लाद को कोस रही थी--“ नादान प्रह्लाद तूने ऐसी हठ क्यों ठानी ? पल भर में तेरे जीवन की कहानी समाप्त हो जाएगी । विरोध करके , क्या मिला तुझे ?
आग की लपटें तेज होगईँ थीं । दोनों कमल की पंखुड़ियों के बीच फँसे भ्रमर की तरह थे । होलिका ने एक बार फिर प्रह्लाद को नज़र भरकर देखा..। मन में तपती धूप में बादल की छांव सा भाव जागा । सुकुमार प्रह्लाद ,चेहरे पर निश्छल भोलापन था । कुछ ही पलों में दैत्यवंश का कुलदीपक , काल के गाल में समा जाएगा । अन्दर कुछ घुलता हुआ महसूस हुआ ।..उसे लगा कि वह हिरण्यकश्यप की बहिन नहीं सिर्फ एक माँ है केवल एक माँ । माँ बच्चे को कैसे जलता देख सकती है । और इससे पहले कि आग की लपटें प्रह्लाद को अपनी बाँहों में भरतीं होलिका ने झट से अपनी चादर प्रह्लाद को ओढ़ा दी और खुद भस्म होगई ।