बैंगलोर आते-जाते रहने के कारण कर्नाटक ऐक्सप्रेस से एक रिश्ता सा बन गया है . हर बार यात्रा में कोई न कोई यादगार अनुभव होता ही है . इस बार भी ऐसा ही हुआ .
खण्डवा से हमारे कोच में एक साथ बहुत से लोग आगए । बहुत खास से लगने वाले लोग । अगर मौसी, बुआ, ताऊ ,चाचा, जीजा ,साले मामा, भांजे ,पास-पडौसी आदि से मिल कर परिवार बने वे सब एक ही परिवार के थे । मैंने उन्हें खास इसलिये नही़ कहा कि वे द्वितीय श्रेणी के वातानुकूलित कोच में ऐसे आए थे जैसे यह उनका घर--आँगन हो । या कि वे सब काफी धनी वर्ग के थे बल्कि मैंने उन्हें खास इसलिये कहा कि वे सब अतिरिक्त रूप से विनम्र और सभ्य लग रहे थे । खाससौर एक लम्बे बालों वाले सज्जन जो जींस और कुरता पहने थे । उम्र भले ही पैंतीस-चालीस की होगी पर चेहरे पर सत्तर साल वाला अनुभव दमक रहा था । कद जैसा लम्बा था ,मुस्कान वैसी ही चौडी थी एकदम अभ्यस्त । सुविधा के लिये उन्हें क कहसकते हैं । अपनी ही सीट को खाली करवाने के लिये भी वे हाथ जोडकर निवेदन कर रहे थे --"भैयाजी !..
खण्डवा से हमारे कोच में एक साथ बहुत से लोग आगए । बहुत खास से लगने वाले लोग । अगर मौसी, बुआ, ताऊ ,चाचा, जीजा ,साले मामा, भांजे ,पास-पडौसी आदि से मिल कर परिवार बने वे सब एक ही परिवार के थे । मैंने उन्हें खास इसलिये नही़ कहा कि वे द्वितीय श्रेणी के वातानुकूलित कोच में ऐसे आए थे जैसे यह उनका घर--आँगन हो । या कि वे सब काफी धनी वर्ग के थे बल्कि मैंने उन्हें खास इसलिये कहा कि वे सब अतिरिक्त रूप से विनम्र और सभ्य लग रहे थे । खाससौर एक लम्बे बालों वाले सज्जन जो जींस और कुरता पहने थे । उम्र भले ही पैंतीस-चालीस की होगी पर चेहरे पर सत्तर साल वाला अनुभव दमक रहा था । कद जैसा लम्बा था ,मुस्कान वैसी ही चौडी थी एकदम अभ्यस्त । सुविधा के लिये उन्हें क कहसकते हैं । अपनी ही सीट को खाली करवाने के लिये भी वे हाथ जोडकर निवेदन कर रहे थे --"भैयाजी !..
.अंकलजी !..बहनजी...आप जरा कष्ट करेंगी ..यह सीट हमारी है । हालाँकि वे इतना जोर न भी देते तो भी लोग अपने आप ही हटने वाले थे । एक सज्जन अड़ गए--
"भाई साहब यह सीट तो हमारी है ।"
"ना ..ना भैया जी--वे सज्जन मुस्कान को और गहरी करते हुए बोले-- "हमने सीट दिल्ली से करवाई है 'पर' सीट हजार रुपए ऐक्स्ट्रा खर्च करके..। क्या...आपको कोपरगाँव जाना है ? लेकिन भैयाजी आपकी सीट यही तक कन्फर्म थी । अब यह हमारी है । क्या...? आपने भी सीट के लिये अतिरिक्त पैसा दिया ? तो इसकी शिकायत टी.सी. से करें ..। हमें तो हमारी सीट चाहिये । है कि नही ?"
बातों-बातों में पता चला कि वे भी लोग बैंगलोर जा रहे हैं । एक साथ जा रहे पूरे सत्तर लोग हैं । जो दो-तीन बोगियों में बैठे हैं । शायद कोई शादी-समारोह होगा --इस अनुमान का खण्डन उन्ही में से एक महिला ने सगर्व किया--"गुरुदेव का शिविर है ..आर्ट ऑफ लिविंग के बारे में तो आपने सुना ही होगा । क्या..?? नही सुना ??..अरे..!1"----वह मेरी ओर चकित होकर देखने लगी ।
"श्री श्री रविशंकर जी महाराज के बारे में नहीं सुना ? वे तो 'बल्ड' फेमस हैं । आप क्या टी.वी. नही देखती ? समाचार नही पढतीं ?"
मुझे अपनी अल्पज्ञता पर प्रायः अफसोस करना पडता है तब भी करना पड़ा । वह आगे कहने लगीं---"आप उनका एक कैम्प अटैण्ड करके तो देखिये ! कैसे सारी प्राब्लम्स हल होजातीं हैं । कैसे आप एक स्माइल से ही हर मुश्किल को आसान बना सकते हैं । हम तो उनका हर कैंम्प अटैण्ड करते हैं चाहे कहीं भी हो ।"
मैं उनकी बातें दिलचस्पी के साथ सुनती रही । मेरी नानी कहतीं थीं कि जहाँ ज्ञान की दो बातें मिलें जरूर सुननी चाहिये । मेरी जगह कोई बुद्धिजीवी होता तो बीच सड़क पर कितने ही गतिरोधक खड़े कर देता कि क्या कहा ? एक स्माइल से समस्याओं का हल ? कि अभावों व कठिनाइयों से जूझते लोगों की समस्याएं हल हो सकेंगी एक स्माइल से ? और क्या आम आदमी के पास इतना समय होता है कि आधारभूत समस्याओं से ,जो एक स्माइल से नही ,उसके लिये खून-पसीना बहाने से, उद्यम से हल होतीं हैं , , ऊपर जाकर आर्ट ऑफ लिविंग के बारे में सोचें भी..... वगैरा-वगैरा...।
मुझमें ऐसी तर्क-शक्ति नही । मैं मान लेती हूँ कि लाखों अनुयायी जिस राह पर चल रहे हैं उसमें कोई तो बात है । मैं अभी तक अनभिज्ञ हूँ तो क्या हुआ ,अब बहुत कुछ जान सकूँगी । लेकिन बैंगलोर तक की यात्रा में मैंने विस्मय के साथ देखा कि अपने गुरुदेव के सूत्रों का उपयोग उनके अनुयायी किस रूप में करते हैं .
हमारे सामने वाली सीट पर एक निहायत ही सीधे-सच्चे पति-पत्नी बैठे थे । दिल्ली से हिन्दूपुर जा रहे थे । उनकी दो सीटें दूसरी जगह थीं जिन पर उनके परिवार के दो बच्चे थे । क महाशय को जब इसका पता चला तो वे आकर बड़ी सरस व आत्मीय मुस्कान के साथ निवेदन करने लगे---"भैयाजी , आपकी बड़ी मेहरबानी होगी अगर आप पिछले कम्पार्टमेंट में जहाँ आपके रिलेटिव्स भी हैं, हमारी सीटों पर चले जाएं ..। क्या है कि आपको अपने रिलेटिव्स के साथ बैठने मिल जाएगा और हमारे दो लोग उधर से इधर हमारे साथ आजाएंगे । ..नही..नही ..आपको कोई दिक्कत न हो तो..।"
दिल्ली वाले वे सज्जन जो दूसरों को सुविधा देने के भाववश पहले ही काफी देर तक अपनी सीट से विस्थापित रह चुके थे ,कुछ हिचकिचाए तो क ने उन्हें हौसला देते हुए कहा --"भाई साहब आप चिन्ता न करें वहाँ हमारी दो सीटें हैं आपके लिये और यहाँ हम आपकी सीटों पर ऐडजस्ट हो जाएंगे । एक दूसरे की सुविधाओं का खयाल रखना भी गुरुदेव की शिक्षा का एक रूप है । जय गुरुदेव ।"
तब दिल्ली वाले सज्जन अपना सामान लेकर बच्चों के पास चले गए । उनकी सीटों पर दो महिलाएं आ जमीं ।लेकिन कुछ ही देर बाद वे उदास चेहरा लिए वापस आए---
"भाई साहब आप तो कह रहे थे कि वहाँ आपकी दो सीटें हैं पर वहाँ तो अहमदनगर जाने वाले दो लोग बैठे हैं ।"
"अरे तो अहमदनगर है ही कितनी दूर भैयाजी ! बस दो घंटे का ही तो रास्ता है । आप तो परेशान होगए ।" 'क' महाशय बडप्पन और गरिमा के साथ बोले ।
"बात यह नही ,लेकिन आपने हमसे झूठ क्यों बोला कि आपकी सीटें हैं । इससे तो अच्छा है कि हम अपनी ही सीट पर बैठें ." दिल्ली वाले सज्जन ने असहाय सी नजर अपनी छिनी हुई सीट पर डाली जहाँ दो महिलाएं आसनगत थीं और खाने के लिये पूडियाँ ,अचार व मठरियाँ निकाल चुकीं थीं । वे पति-पत्नी कुछ देर असहाय से खड़े उनके हटने का इन्तजार करने लगे . पर उन्होंने उस दम्पत्ति को पूरी तरह अनदेखा कर दिया .
मुझसे नही रहा गया . कहा कि ,'भाई ,आप उन्हें या तो सीट दिलाएं या फिर उन्हें उनकी सीट पर बैठने दें .'
ऐसे बीच में बोलना नाहक माना जाता है । पूरी सम्भावना थी कि क महोदय मुझे बीच में न बोलने की हिदायत देते हुए अपना विरोध दर्ज कराते लेकिन वे निहायत ही शराफत से बोले--"जी ..जरूर ,यह तो हमारा फर्ज़ है । आइये भाई साहब । आइये । अरे आप तो खामखां परेशान होगए !"
यह कहकर वे सज्जन उन पति-पत्नी को साथ ले गए . उन्होंने अहमदनगर जाने वालों से पता नही क्या कुछ कहकर उन्हें सीट पर बिठाकर क इधर आए और बैठ कर पहले कोई मंत्र-जाप किया ,फिर खाना खाने लगे । कुछ ही देर बाद मैंने देखा कि दिल्ली वाले सज्जन ठगे से गेट पर खडे थे । अपनी जगह खोकर । उन्हें 'आर्ट ऑफ सेविंग सीट' भी नहीं आती थी जिन्हें आती थी वे आराम से अपनी जगह सुरक्षित कर चुके थे ।
यह कहकर वे सज्जन उन पति-पत्नी को साथ ले गए . उन्होंने अहमदनगर जाने वालों से पता नही क्या कुछ कहकर उन्हें सीट पर बिठाकर क इधर आए और बैठ कर पहले कोई मंत्र-जाप किया ,फिर खाना खाने लगे । कुछ ही देर बाद मैंने देखा कि दिल्ली वाले सज्जन ठगे से गेट पर खडे थे । अपनी जगह खोकर । उन्हें 'आर्ट ऑफ सेविंग सीट' भी नहीं आती थी जिन्हें आती थी वे आराम से अपनी जगह सुरक्षित कर चुके थे ।
इधर उसी ग्रुप की दो महिलाएं जिनमें 'स' युवा ,छरहरी और चुस्त थी तथा 'ग' अधेड, स्थूल और मोटापे से ग्रस्त थी, एक अलग समस्या से उलझीं थीं जिसमें कथित स्माइल नाकाम सिद्ध हो रही थी ।
थोडी देर पहले तक वे भजनों और सत्संग वाणी के भाव-सागर में आकण्ठ निमग्न थीं । गुरुदेव की महिमा गाते-गाते थक नहीं रहीं थीं । गुरुदेव की कृपा से सहज-समाधि उनके लिये खेल बन चुकी है । अब उन्हें कोई प्राब्लम हर्ट नही करती । एक स्माइल ही सारे फसादों को मिटा देती है यह गुरुदेव की महिमा का प्रभाव है वगैरा..वगैरा ।
"आप भी आइये न । बैंगलोर में उनका बहुत बडा भव्य आश्रम है ।"
"सोचूँगी"--मैंने कहा । मैं किसी की आलोचना नही करती । अविश्वास भी नही करती लेकिन किसी के मार्ग का अनुशरण करने लायक भी अपने-आपको नही पाती ।
"अरे सोचना क्या ! आपकी जो भी चिन्ता या समस्या हो ,हर समस्या ,हर व्यथा गुरुदेव के दर्शनों से ही दूर हो जाएगी ।"
मेरी व्यथा-वेदना क्या है, वह किसके दर्शनों से दूर होगी । वेदना के मूल में क्या है उसे मैं अच्छी तरह जानती हूँ । फिर मैं समाधान अन्यत्र क्यों खोजूँ ---मैं कहना चाहती थी पर नही कहा । और कुछ ही देर में मैंने उन्हें आपस में ही उलझते हुए पाया-
"सुनो बेटा, तुम्हारी सीट कौनसी है ?"
"लोअर । क्यों आंटी ?"
अरे मेरी अपर-बर्थ है । मुझे जरा प्राब्लम है । घुटनों में दर्द है । चढने में परेशानी होती है ।--यह कह कर आंटी ने स को आशापूर्ण होकर देखा । पर बात को प्रभावहीन पाकर वह समझ गई कि स साहित्य के 'ध्वनि-सिद्धान्त' और व्यंजना से जरा भी परिचित नही है । इसलिये सीधे ही प्रस्ताव रखना पडा---"बेटा ऐसा करलें कि तुम ऊपर वाली सीट पर सोजाओ । यंगेज हो ,आराम से चढ जाओगी..। और मैं ...।"
"अरे नही आंटी ! मेरी भी कमर में दर्द है। मैंने तो उनसे खास तौर पर कह कर लोअर-बर्थ रिजर्व करवाई है..।"
"सफर में तो एक दूसरे की हैल्प करते हैं गुरुदेव ही तो कहते हैं कि...। थोडा तो ऐडजस्ट कर लिया जाता है ..।"
"ऐसा थोडी होता है आंटी ! आप भी दूसरों की परेशानी देखिये न !"--स तपाक से बोली ।
आंटी असहाय सी उसे देखती रह गई . मेरी समझ में उनका आर्ट ऑफ लिविंग आ गया . वे पति-पत्नी अभी तक गेट पर निरीहता के साथ खड़े थे . उन्हें आर्ट ऑफ लिविंग जो नही आती थी .
शिक्षा शब्दों की, शिक्षा कर्मों की..
जवाब देंहटाएंआपका पोस्ट रोचक लगा लेकिन थोड़ा सा एडजस्ट करना ही आजकल आफत मोल लेना है । मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंअपनी असुविधा, परेशानी असहनीय है मगर दूसरों का कष्ट कुछ नहीं। ऊपर से नाम गुरुदेव का।
जवाब देंहटाएं"आप ठगे सुख ऊपजे और ठगे दुख होय"।
यथार्थ का सुंदर शब्दाकंन किया है आपने।
कथनी, करनी, अनुकरण, अंधानुकरण, फैशन, प्रेरणा, प्रभाव, व्यवहार, भद्र, शिष्टता, योग, मुस्कान... एक पोस्ट के माध्यम से आपने समाज में प्रचलित इन सभी शब्दों की व्याख्या कर डाली!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सही चित्रण!!
‘लोगों को बुद्धू बनाने का आर्ट‘ खूब फल-फूल रहा है। आपने पाखंड की अच्छी तस्वीर खींची है।
जवाब देंहटाएंयही है आर्ट ऑफ लिविंग मेरा मत संस्था से नहीं जीवन को जीने से है। और जितने भी बाबा और धर्म गुरू होते है उनके होने का सच भी यही है। मैं कुछ दिनों से काफी बेचैन हूं, निर्मल बाबा, धबल बाबा। पगलाए हुए हैं लोग सब। किसिम किसिम के जोकर सब। अंहकार से भरे हुए लोग भगवान से भी उपर बुझने लगे है पर शुक्र है कि आपके जैसे लोग भी है जो अपर और लोवर बर्थ में धर्म और सच के आध्यात्क को वर्णित कर देते है। आभार।
जवाब देंहटाएंऐसी आर्ट(ज्ञान) से तो अज्ञानी रहना ही श्रेष्यकर है।
जवाब देंहटाएंराजनीति और धर्म दोंने की व्यापार बन गये हैं।
रोचक एवं जागृत करने वाली पोस्ट निश्चित ही सराहनीय.....
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क्या यही गणतंत्र है
जहां इंसानियत और मनुष्यता की शिक्षा नहीं वहाँ सब बातें बेकार की हैं ... दरअसल कुछ अधूरे ज्ञान ले कर अपने आपको महामंडित करते लोग मनुष्यता से दूर रहते हैं ... ऐसे लोग अपने गुरु का नाम भी खराब करते हैं अक्सर ...
जवाब देंहटाएंchintan pr vivash karne wali pravishti ....abhar girija ji .
जवाब देंहटाएंअक्सर ऐसा होता है....
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति,चिंतन योग्य अच्छी रचना,..
WELCOME TO NEW POST --26 जनवरी आया है....
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाए.....