रविवार, 14 अप्रैल 2013

एक नाम ---एक दरिया


कल गनगौर(गणगौर) पूजा थी ।
केवल अपने परिवेश की बात करूँ तो दूसरे त्यौहारों की तरह गणगौर--पूजा भी अब काफी संक्षिप्त ,औपचारिक और अकेली होगई है । खासतौर पर मेरे लिये जिसने बचपन में इस पर्व को काफी बड़े रूप में देखा हो ।
तब गनगौर के पर्व की तैयारियाँ आठ दस दिन पहले से शुरु हो जातीं थीं इधर माँ और मौसी ( जैसा कि मैंने  होली ....संस्मरण में लिखा है कि मौसी ही मेरी ताई भी हैं ) भर-भर डलिया 'गुना' बनातीं थीं  
क्योंकि पूरे गाँव में बाँटने होते थे । गुना गोल पहिया जैसी आकृति के मीठे नमकीन पकवान होते हैं .मीठे गुना गुड़ आटा और मैदा घी शक्कर के तथा नमकीन गुना  बेसन और मैदा अजवाइन के बनाए जाते थे ( हैं)। घी और तेल की महक पूरे मोहल्ले में फैलती थी । 
उधर ताऊजी मिट्टी से गणगौर  शिव पार्वती) की सुन्दर मूर्तियाँ बनाने जुट जाते थे । तृतीया की सुबह तक ताऊजी गौरा-ईसुर को पूरे साज-सिंगार के साथ तैयार कर देते थे ।  हमारा आँगन इतना बड़ा है कि उसमें  पचास-साठ महिलाएं आराम से बैठ जातीं थीं । पूजा सम्पन्न कराने का दायित्त्व दादी का होता था . छोटे कद की साँवली और दुबली-पतली मेरी दादी बहुत गुणी थीं . उनके हाथों में गजब की कलाकारी थी . मिट्टी के घर को उन्होंने इतना सुन्दर रूप दे रखा था कि लोग देखते रह जाते थे . उनके पास कहावतों गीतों और कहानियों का अपार भण्डार था . वे बहुत मधुर गातीं थीं . वे जितनी गुणी थीं उतनी ही तेज और अनुशासन प्रिय थीं . उनकी अवज्ञा करने का साहस किसी में नहीं था . इसलिये भी और अपने पद के हिसाब से भी हर व्रत-पूजा में कथा-वाचक की भूमिका वे ही निभाती थीं . सो गनगौर की  तीन-चार कहानियों ( कभी लिखूँगी) और मधुर गीतों के साथ पूरे विधि-विधान से पूजा सम्पन्न करवातीं थीं ।
मिटटी से इन्हें मैंने ही बनाया और सजाया है 
शाम को गौर का चीर लेने के साथ देर रात तक नाच-गाने की जमकर धूम  होती थी . नाच के कारण आँगन की लीपन तक उखड़ जाती थी . लेकिन इस पर्व का सबसे रोचक प्रसंग था शाम को गौरा का चीर प्राप्त करना ।
 कथानुसार गौरी से प्राप्त वह चीर सुहाग के दीर्घायु होने का प्रतीक होता है. उसे पाए बिना व्रत अधूरा ही होता है । लेकिन चीर के उस टुकड़े को पाना क्या आसान था ?
उस चीर को पाने के लिये सुहागिनों को अपने पति का नाम लेना होता था और यह कार्य मकर-संक्रान्ति के दिन सुबह-सुबह कड़कती सर्दी में नदी में डुबकी लगाने से कम दुष्कर नही होता था । अगर आपने कभी जनवरी की बर्फीली सुबह ऐसा किया हो तो आप जानते होंगे कि नदी में उतरने से पहले कितना हौसला जुटाना होता है । पति का नाम लेने से पहले सुहागनों का हौसला जुटाना देखने लायक तमाशा हुआ करता था .
वन-गमन प्रसंग में वनवासिनें सीताजी से पूछतीं हैं कि "करोडों कामदेवों को लज्जित कर देने वाले ये साँवरे सलौने तुम्हारे कौन हैं ?" तब सीताजी अपने व राम के सम्बन्ध तक को मुँह से नही बतातीं ( नाम लेना तो दूर ) सिर्फ संकेत कर देतीं हैं ---
"बहुरि बदनु बिधु आँचर ढाँकी, पिय तन चितहि भौंह करि बाँकी ।
खंजन मंजु तिरीछे नयननि, निज पति कहेउ तिन्हउ सिय सयननि ।"
उल्लेखनीय है कि तब (गाँवों में तथा शहर की पुरानी पीढ़ी में तो अब भी ) पति का नाम तो क्या पत्नी का भी नाम नही लिया जाता था । पुरुष की तरह महिला को भी या तो किसी रिश्ते के साथ ( मानू की माँ ,विमला की भाभी आदि) पुकारा जाता था या मायके के नाम के साथ ( जौरावाली ,रामपुरवाली ) । मुझे याद है , जब 1976 में मेरा विवाह हुआ था और पति शादी के बाद पहली बार मेरे मायके आए थे ,कार्यवश उन्होंने सबके सामने मुझे नाम लेकर पुकारा तो दादी ने होठों पर उँगलियाँ रख कर आँखें फैलाईं और अपने आपसे ही बोलीं--"अरे राम ! घोर कलजुग आगया । देखो तो कैसे तडाक् से सबके सामने लड़की का नाम ले रहा है !"
खैर...बात सुहागिनों द्वारा पति का नाम लेने और  नाम लेकर चीर पाने की दुर्गम राह पर ठहरी हुई है  तो सीन यह होता था कि एक महिला हाथ में गौरी का चीर लिये किसी निर्णायक की तरह सामने बैठी होती थी और चीर की उम्मीदवारिन सुहागिन को ललचाते शरमाते और पति का नाम लेने की  कोशिश करते देखती थी पर नाम था कि अन्दर से निकल कर जुबान पर आते--आते फिसल जाता था  .जैसे कुए में गिरी बाल्टी निकालते समय ऐन घाट तक आते बाल्टी फिर छूट कर गिर जाती है । यह ऐसी मुश्किल होती थी जैसी अँधेरे में माचिस ढूँढते में होती है । ऐसी झिझक होती थी जैसी नया-नया तैरना सीखे व्यक्ति को नदी पार करने से पहले होती है । ऐसी लज्जा जो पहली बार प्रिय के साक्षात्कार के समय होती है । नव वधुएं ही नही प्रौढाएं भी अपने प्रिय का नाम लेते हुए स्नेह और लाज से लाल होजातीं थीं । उस पर चारों ओर तमाशाबीनों का शोर । कई पल इसी कशमकश में गुजर जाते कि आखिर बीच रास्ते में आए उस गहरे नाले को कैसे लाँघा  जाए । जैसे वह दो-चार अक्षरों का नाम न हुआ दुर्गम पहाड़ की चोटी होगया । साठिया कुआ से खींचा एक बाल्टी पानी होगया ।  बहुत ऊँचे छींके पर रखी दही की हाँडी होगया । या मठा में ही ( दही में गलत तरीके से गरम या ठण्डा पानी मिलाने पर ) बिला गया माखन होगया । 
"अरी लुगाइयो ! क्या यहीं बैठी सबेरा करोगी ? साल में एक बार आज के दिन नाम लेने से तो पति की उमर बढ़ती है । जल्दी करो 'भैनाओ' ।"
दादी चिल्लातीं तब किसी तुकबन्दी से सहारे अटकते झिझकते हुए पति नाम लेते हुए वे चीर प्राप्त करतीं थीं , जी तोड़ मेहनत कर कमाए हुए रुपयों जैसा चीर । उस समय उन्हें ऐसा महसूस होता था जैसा किसी कवि को एक अच्छी कविता पूरी कर लेने पर होता है । लोकगीतों की तरह ही ये तुकबन्दियाँ किसने बनाईँ ,पता नही पर इन्हें नाव बना कर सुहागिनें एक गहरी और चौड़े पाट वाली नदी को पार कर सकतीं थीं( हैं ) । पढ़े-लिखे आधुनिक समाज में भले ही इनका कोई महत्त्व न हो पर अनपढ़ ग्रामीणाओं के लिये आज भी ये तुकबन्दियाँ किसी सरस कविता से कम नहीं हैं । उनमें से कुछ आप भी देखें ( कोष्ठक में पति का नाम )----
"चम्मच भरा घी ,मेरा (....) का एक ही जी ।"
"थाली में रोरी ,मैं (...) की गोरी ।"
"औलाती से टपके पानी ,दूध पिये (...) की रानी ।"
"कच्चा पान लाती नईं हूँ ,पक्का पान खाती नईँ हूँ "
(...) की सेज पर बिना बुलाए जाती नईं हूँ ।"
"तराजू की तीन तनी ,मेरी (...) की जोड़ी खूब बनी ।"
"कहूँ पक्के अनार कहूँ कच्चे अनार
ए सखी (...) गए हैं कन्हार ।"
"रोज करै सलाम ,(..) मेरौ गुलाम ।"
"थाली भरे बतासे ,(...) दिखावै तमासे"
"चन्दा की चाँदनी में तरसे जिया
बाती हूँ मैं (.....) मेरा दिया ।" ...
ऐसी तुकबन्दियाँ और भी हैं पर अभी मुझे इतनी ही याद हैं ।
कपड़ा, जेवर, शान-शौक और सुविधाओं से वंचित, जीवन की गाड़ी को मरुस्थल में भी हँस कर खींचने वाली ये ग्रामीणाएं जिस सहिष्णुता से जीवन की विसंगतियों से जूझती हैं ,सम्बन्धों का उत्सव भी उतने ही उल्लास से मनातीं है । स्नेह का ऐसा उदार और गहरा रूप अन्यत्र मिलना दुर्लभ है । हालाँकि उनके स्नेह व उदारता की कभी कोई कहानी नही बनती । इतिहास बनता है तो उसके प्रति कठोर उपेक्षा व असंवेदना का । लेकिन वे थामे रहतीं हैं सिर्फ और सिर्फ जीवन की खुशियों को और इसका  प्रतीक है गनगौर का यह उत्सव जब एक नाम लेने में स्नेह और लज्जा की नदी को पार करते-करते वे  उसमें डूब जाती है और निकलतीं हैं सारा विषाद ,निराशा और मालिन्य धोकर । निर्मल ,उज्ज्वल,शीतल ।

( चित्र की मूर्तियाँ---- मैंने ही कोशिश की है बनाने व सजाने की  । हालांकि वांछित मिट्टी व रंग उपलब्ध न हो सके  )

15 टिप्‍पणियां:

  1. आज भी एक दूसरे का नाम नहीं लेते हैं पति पत्नी..

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  2. मेरी पत्नी का नाम रेणु है.. एक बार ऑफिस में मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी के घर जाना हुआ (उनके साथ पारिवारिक सम्बन्ध थे.. उनकी पत्नी ने पूछा कि रेणु कैसी है?
    मैं एक पल को चुप रह गया और फिर जवाब फूटा, "अच्छी है!"
    फिर मैंने कहा, "मैं तो बेबी कहकर पुकारता हूँ, कोई रेणु कह दे तो लगता है कि किसी दूसरे की और के साथ घूम रहा हूँ!"
    वो दिन और आज का दिन, वे मुझसे यही पूछते हैं कि बेबियाँ (मेरी पत्नी और पुत्री) कैसी हैं!!
    एक परम्परा आर लुप्त होते त्यौहारों का जीवंत चित्रण... एक सफर पुरानी यादों का..

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  3. behtreen lagi aapki ye post....mujhe to aisi jaankariyan behad rochak lagti hain!!

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  4. नाम तो हम भी नही लेते,,,बहुत उम्दा रोचक प्रस्तुति,आभार

    Recent Post : अमन के लिए.

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  5. बहुत सुंदर आलेख मैं अभी अभी उस माहौल से आई हूँ जिसका आपने वर्णन किया ।
    पर हमारे यहां गणगौर उत्सव की महत्ता बढ़ी है और पहले से भी ज्यादा धूमधाम से मनाया जाता है।

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  6. प्यारा संस्मरण। सांस्कृतिक धरोहर को खूब अच्छे से सहेजा है आपने। आभार।

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  7. ये तुकबंदियां हमारे यहां खोइये में बोली जाती हैं।
    बाकी कुछ समय पहले तक इनका नाम लेना ऐसे ही दुष्कर था।

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    1. आपका बहुत धन्यवाद। आपने नाम नही लिखा।अगर मालूम हो पाता कि आपने किस क्षेत्र के खोइया की बात की है तो अच्छा लगता।

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  8. गण गौर पर्व की लोक परम्परा को बहुत सुन्दर रूप में प्रस्तुत किया है

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