अमराई को हुआ विराग
बिसरा बूढ़ा लगता बाग,
भूल रहा सुर तानें
मौसम
लगे हवा भी भागमभाग .
रिश्तों में जंजीर
नहीं है
काँटा तो है पीर नहीं
है
लहरें तोड़ किनारे
बहतीं
हृदय नदी के धीर नहीं
है
बिगड़ गईं तानें मौसम
की
कुपित बादलों का
अनुराग .
टूटे बिखरे स्वप्न
पड़े हैं .
सब अनीति की भेंट चढ़े
हैं
सिकुड़ रहें हैं आँगन
गलियाँ ,
पदलिप्सा के पाँव बढ़े
हैं .
उखड़ी सड़कों सी
उम्मीदें
उजड़ा जैसे अभी सुहाग
.
जो धारा में बहने वाले
सुनलें हाँ हाँ कहने
वाले
अनाचार का असुर खड़ा
है
न्याय सत्य के तीर
निकालें
अपनी ही रोटियाँ सेकने
अब तो ना सुलगाएं आग
दरवाजे कचनार खड़ा है
.
सुरभित हरसिंगार बड़ा
है
फिर इस बार आम की टहनी
,
गुच्छा गुच्छा बौर
जड़ा है .
मौसम बदले ना अब ऐसे
बने बेसुरा कोई राग .
अमराई को हो अनुराग
बूढ़ा बिसरा लगे न बाग
.
बेहद सुंदर रचना दी।
जवाब देंहटाएंसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २४ नवम्बर २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
वाह |
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन 🙏
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