सोमवार, 22 सितंबर 2025

बाली यात्रा--3

बाली यात्रा -2 से आगे 

आइलैण्ड ऑफ गॉड

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आइलैंड ऑफ गॉड यानी ईश्वर का द्वीप, देवभूमि । बाली को दी गई यह उपमा निराधार नहीं है । यह वहाँ जाने वालों को स्वतः ही अनुभव हो जाता है । लगभग साढ़े पाँच हजार वर्ग कि.मी. के इस हिन्दू बहुल ( 87 प्रतिशत से भी अधिक) छोटे से द्वीप में दस हजार से अधिक मन्दिर है जिन्हें 'पुरा' कहा जाता है बल्कि घरों के मन्दिरों को भी गिना जाय तो कुछ मन्दिर बीस हजार से अधिक ही होंगे क्योंकि हर घर में मन्दिर हैं और एक घर में भी सबके अलग अलग मन्दिर हैं ।


मान्यताओं के अनुसार मन्दिरों के स्वरूप भी अलग अलग हैं जैसे पुरा पुसेह (उत्पत्ति ) पुरा दलेम ( जन्म और मृत्यु विषयक) । यहाँ के लोग इस द्वीप को ईश्वर का आशीर्वाद मानते हैं । आध्यात्म ,संस्कृति , आस्था और धार्मिक परम्पराओं और मन्दिरों से अलंकृत भूमि को ईश्वर की भूमि कहना असंगत नहीं है ।

श्रुति अनुसार इण्डोनेशिया के जावा सुमात्रा बाली आदि द्वीपों में हिन्दू धर्म का आरम्भ पहली शताब्दी में माना जाता है जो व्यापार के लिये आए भारतीय व्यापारियों द्वारा स्थापित हुआ बाद में जावा के माजापहित साम्राज्य द्वारा और व्यापक हुआ । 13-14 वी शताब्दी में इस्लामधर्म के आगमन और विस्तार से जावा सुमात्रा आदि द्वीपों में हिन्दू धर्म पतन हुआ तो बाली ही एकमात्र द्वीप था जहाँ डांग हयांग निरर्था नाम के पुजारी ने बेरबन के एकेश्वरवादी लोगों से जो हिन्दू धर्म के विरोधी थे ,कड़ा संघर्ष कर हिन्दू धर्म की रक्षा की । तनाह लोट मन्दिर और उलुवातु मन्दिरों का इतिहास यही कहता है ।

वास्तव में बाली को ठीक से समझने और देखने के लिये वहाँ के मन्दिरों का गहन निरीक्षण और इतिहास को समझना आवश्यक है और काफी रोचक भी उसके लिये समय ,और एक लक्ष्य आवश्यक है जो हमारे पास नहीं था इसलिये हम जिन कुछ ही मन्दिरों को देख पाए ,उनके बारे में ने जो जान पाए वही यहाँ लिखा है ।

1-बटुआन मन्दिर या पुरा पुसेह बटुआन –--बाली के तीन प्रसिद्ध मन्दिरों में से एक पुरा बटुआन दसवीं में स्थापित मन्दिर है जो प्राचीन मेगालिथिक पत्थर से निर्मित है। सामान्य अर्थ में मेगालिथिक यानी बड़ा पत्थर । स्थानीय भाषा में भी बटुआन का अर्थ पत्थर होता है । इस मन्दिर को बालीनी भाषा में त्रि-कहयांगन ( कहयांगन यानी स्वर्ग की भूमि ) कहा जाता है अर्थात् यह तीन देवों ,ब्रह्मा ,विष्णु और शिव को समर्पित हैं जिन्हें क्रमशः पुरा देसा , पुरा पुसेह और पुरा दलेम कहा जाता है ।

कोरी अगुंग द्वार

केंडी बेंटार द्वार

मन्दिर में जाने से पहले सिर पर एक कैप और कमर से पैरों तक लुंगी जैसी पोशाक पहननी होती है । उनके नाम वहाँ कार्यरत गौरवर्णा बालाओं ने उटुंग और सपत बताए हालाँकि गूगल पर सारोंग और शॉल लिखा है खैर.. मन्दिर का प्रथम द्वार दो कलात्मक किन्तु कटे हुए से विभाजित स्तम्भों (स्थानीय भाषा में केंडी बेंटार) से बना खुला लेकिन भव्य और विशाल था । 

उटुंग और सपत

आन्तरिक द्वार कोरी अगुंग यानी छत वाला द्वार बहुत ही सुन्दर था । मन्दिर का शिल्प मोहक और आश्चर्यजनक है । बड़ी बारीकी से पत्थर पर कलात्मक आकृतियाँ उकेरी गई हैं । संरचनाओं पर कालिमा और काई देखकर कुछ निराशा हुई हालाँकि वहाँ पूजा अर्चना जारी है ।

2तनाह लोट मन्दिर --- तनाह लोट का अर्थ है समुद्र में भूमि ।  तबाहन क्षेत्र के बेरबन गाँव स्थित समुद्र तट पर  उत्तुंग लहरों में तैरता हुआ सा यह मन्दिर जितना मनोरम है उतना ही इसका इतिहास रोचक है । कहा जाता है चौदहवीं शताब्दी में जब जावा आदि द्वीपों में इस्लाम के विस्तार से हिन्दू धर्म का पतन होते देखा तो वहाँ के हिन्दू भी बाली आगए ।

बेरबन के कुछ एकेश्वरवादी लोगों ने हिन्दुत्त्व का विरोध किया तब डांग हयांग निरर्था जिन्हें भगवान डांग हयांग द्विजेन्द्र भी कहा जाता है ,ने हिन्दुओं की रक्षा के लिये एक चट्टान को अपनी शक्ति से समुद्र के अन्दर किया और  मन्दिर का निर्माण करवाया और हिन्दूधर्म की रक्षा की । 

पुरा तनाह लोट 


अपने छोटे से प्रवाल द्वीप की रक्षा के लिए, डांग हयांग निरर्था ने अपनी शॉल की शक्ति से एक विषैला समुद्री साँप भी बनाया। 


मन्दिर की रक्षा में साँप

ऐसा माना जाता है कि यह समुद्री साँप
तनाह लोट  की तलहटी में रहता है और मंदिर को घुसपैठियों और दुष्ट लोगों से बचाता है। द्वैपायन ने बताया कि मन्दिर वरुणदेव को समर्पित है । हम देर तक मन्दिर से टकराती लहरों को  देखते रहे मानो वे वरुणदेव का अभिनन्दन कर रही हों ।

शाम को नीली सफेद उत्ताल तरंगों में उतरते सुनहरे सूरज को देखना एक अविस्मरणीय अनुभव रहा ।

उलुवातु मन्दिर –--उलु यानी किनारा वातु यानी चट्टान ।  यह सांगहयांग विधीवासा (रुद्रदेव) को समर्पित  है । इसका विस्तार जावानीस ऋषि एम्पू कुतुरन ने किया था । 

समुद्र के किनारे सत्तर मीटर ऊँची चट्टान पर स्थित इस मन्दिर से चारों ओर अकथनीय सौन्दर्य इसे पर्यटकों को बरबस खींच लाता है । यहाँ डांगहयांग निरर्था को मोक्ष प्राप्त हुआ इसलिये भी इस मन्दिर की बहुत मान्यता है । 

केचक नृत्य को देखने जाती अपार भीड़ 
दृश्य मन्दिर से 













यहाँ प्रतिदिन शाम को केचक नृत्यका आयोजन होता है । अपार भीड़ के बीच हमने भी देखा। इसमें बहुत सुन्दर और कलात्मक रूप में सीता हरण का जीवन्त नाट्यमंचन किया जाता है

जारी..... 
मन्दिर में एक प्रतिमा

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