गुरुवार, 2 अक्टूबर 2025

ताना-बाना --मेरी दृष्टि में

रचनाकार --ऊषा किरण 

मन की उधेड़बुन का खूबसूरत ‘ताना-बाना’ -जब कोई आँचल मैं चाँद सितारे भरकर अँधेरे को नकारने लगे , तूफानों को ललकारे , मुट्ठी में आसमान को भरने के स्वप्न देखने लगे ,जब कल्पना वक्त की निर्मम लहरों से चुराई रेत ,बन्द सीप ,शंख आदि बटोर कर अनुभूतियों का घर सजाने लगे, वेदना के पाखी शब्दों के नीड़ तलाशने लगें, लहरों और बादलों से बातें करे और कल्पनाओं की हीर अभिव्यक्ति के राँझे की तलाश में यहाँ वहाँ भटकने लगे , हृदय के शून्य को भरने की व्यग्रता वेदना बन जाये तब ताना-बाना जैसी कृति हमारे सामने आती है .

डा. ऊषाकिरण को जितना मैंने जाना है , इस पुस्तक से वह परिचय और प्रगाढ़ हुआ है . उनके सरल तरल स्नेहमय सुकोमल व्यक्त्तित्त्व का दर्पण है तानाबाना . यों तो वे मेरी आत्मीया हैं , मुझे बड़े स्नेह के साथ यह सुन्दर उपहार भेजा . इसलिये इसे पढ़ना और पढ़कर इसके विषय में कुछ कहना मेरा तो एक कर्त्तव्य भी है और एक जरूरी काम भी लेकिन वास्तव में यह किताब ही ऐसी है कि कोई अनजान भी इसे देख-पढ़कर मुग्ध हुए बिना न रहेगा . लगभग सौ कविताओं और इतने ही सुन्दर उनके खुद के रचे गए सुन्दर चित्रों से सजी यह ऐसी कृति नहीं कि जल्दी से पढ़ो और थोड़ा बहुत लिखकर मुक्त हो जाओ . इसमें गहरे पैठकर ही मोतियों का सौन्दर्य दिखाई देता है . कुमार विश्वास जी ने शुरु में ही लिखा है कि ऊषा जी कविता को चित्रात्मक नजरिया से देखतीं हैं और चित्रों कवितामय नजरिया से . यही बात उन्हें अन्य समकालीन लेखकों से अलग करती है .

संग्रह की पहली कविता ‘परिचय’ पढ़कर ही ऊषा जी के कद का पता चल जाता है जिसमें अनूठी उपमा और बिम्ब के साथ विविधवर्णी भाव हैं .’तुम होते तो’ एक बहुत प्यारी कविता है जिसमें हर भाव और सौन्दर्य-बोध किसी के होने न होने पर आधारित हैं . बहुत कोमल भाव . देखिये— .”..जब छा जाते हैं/ बादल घाटियों में / मन पाखी फड़फड़ता है/ ...पहुँचती नहीं कोई एक भी किरण /वहाँ घना कुहासा छाया है.....सारी किरणें जो ले गए तुम/ अपनी बन्द मुट्ठी में .”

हर रचना कवि के मन का दर्पण होती है . ऊषा जी अपनी हर रचना में पूरी ईमानदारी और सादगी के साथ मौजूद हैं .उनका भाव-संसार कोमल , अछूता , उदार और संवेदना से भरा हुआ है . वे कभी परछाइयों’ को पकड़कर कभी ‘पारिजात’ की गन्ध को बाँधकर और कभी ‘चाँद को थाली ‘ में उतारकर खुद को बहलाने की बात कहती हैं . यह बात कहने में जितनी सुन्दर है समझने में उतनी ही मर्मस्पर्शी है .वे शिकवे शिकायतों का बोझ लादे रहने की पक्षधर नहीं हैं . ‘मुक्ति’ कविता में बड़े प्रभावशाली तरीके से यह बात कही है –“आओ सब /,..करने बैठी हूँ हिसाब/ कब किसने दंश दिया/ किसने किया दगा/.... किसने ताने मारे /सताया किसने /...जब मन छीजा /तब किसका कंधा नहीं था पास/.. फाड़ रही हूँ पन्ना पन्ना /यह इसका /यह उसका./..आओ सब ले जाओ/ अपना अपना /मुक्त हुई मैं /...जाते जाते बन्द कर जाना दरवाजा /.....बहुत सादा सी लगने वाली यह कविता असाधारण है .दरवाजा बन्द करने में एक सुन्दर व्यंजना है . वे नदिया के साथ बहना चाहती हैं ( नदिया कविता ),मुट्ठी में आसमान भर लेना चाहती है ( एक टुकड़ा आसमान) हवाओं में गुम होना चाहतीं हैं खुशबू की तरह ...कहीँ सूफियाना रंग है तो कहीं शाश्वत जीवन-दर्शन .सुख और दुख का स्रोत हम स्वयं हैं ( हम कविता) क्षमताएं हमारे भीतर हैं . कस्तूरी कविता में यही बात है--- “हरसिंगार ,जूही /...महकती है सारी रात/ ....मेरे आँगन में/ ..या तकिये चादर में /...अरे यह खुशबू तो झर रही है /इसी तन-उपवन से/ ..दूर कबीर गा रहे हैं काहे री नलिनी....”

‘ताना-बाना’ में प्रेम और संवेदना के रंग सबसे गहरे हैं . ‘चौबीस-बरस’ और ‘क्यूँ’ कविताओं में प्रेम की वेदना बहुत प्रभावी ढंग से व्यक्त हुई है . रहस्यवाद से रची बसी ‘क्यूँ’ कविता की कुछ पंक्तियाँ देखें—--“.....मैंने कहा था / क्या दोगे मुझे /...तुमने एक लरजता मोरपंख/ रख दिया मेरे होठों पर/ एक धूप बिखेर दी गालों पर /..एक स्पन्दन टाँक दिया वक्ष पर/ एक अर्थ बाँध दिया आँचल में /..तब से तुम्हें पुकार रही हूँ /..तुम कहीं नजर नहीं आते/... या कि हर कहीं नजर आते हो .”.

भाई को याद करते हुए लिखी ‘पतंग’ कविता बरबस ही आँखें सजल कर देती है—

“आज तुम नहीं /पर तुम्हारा स्पर्श हर कहीं है/ तुम्हारी खुशबू हवाओं में /.....तुम्हारी स्मृतियों की डोर आज भी मेरे हाथों में है /पर तुम्हारी पतंग /....कहीं दूर../ बहुत दूर निकल गई है भाई ..”

‘ताना-बाना’ का फलक बहुत व्यापक है .उसे कुछ शब्दों में नहीं समेटा जा सकता . उसमें यादें हैं फरियादें हैं , माँ का वात्सल्य है , बेटियों की उड़ानें हैं .शहीदों के लिये भावों के पुष्प हैं ,प्रेम की पीड़ा है , मुक्ति की प्रबल आकांक्षा है . ‘बहुत बिगड़ गई हूँ मैं’ और ‘पाप’ कविता में मुक्ति का सुखद अनुभव पाठकों को भी कुछ पलों के लिये जैसे मुक्त कर देता है . नारी के दमन शोषण की व्यथा-कथा के साथ उसे उठकर संघर्ष करने की प्रेरणा ‘तुम सुन रही हो ? और ‘सभ्य औरतें’ कविताओं में बोल नही रही , चीख रही है . ‘यूँ भी’ कविता अपने अस्तित्त्व को दबाने और उस पर पर प्रश्न लगाने वाली व्यवस्था को सिरे से नकारती है . गान्धारी के माध्यम से ऊषा जी ने व्यभिचारियों ,अत्याचारियों की माताओं को सही ललकारा है .

ऊषा जी की कल्पनाएं और बिम्ब मोहक हैं . कुछ उदाहरण देखें–-(1) “रात में /जुगनुओं को हाथ में लेकर /खुद को साथ लिये /..सात समुद्र तैर कर /धरती को पार कर / दूर चमकते मोती को/ मुट्ठी में बन्द कर लौटना .....”

(2) “सूरज को तकती/ सारे दिन महकती नीलकुँई/ साँझ ढले सूरज के वक्ष पर /...आँख मूँद सोगई ..”

(3) “तारों ने होठों पर /उँगली रख /हवा से कहा /धीरे बहो / उजली चादर ओढ़ अभी अभी/ सोई है सुकुमारी रात ..”

(4) “धूप –सुनहरी लटों को झटक/ पेड़ों से उछली/ खिड़की पर पंजे रख /सोफे पर कूदी /छन्न से पसर गई कार्पेट पर /...ऊधम नहीं ..मैं बरजती हूँ पर वह जीभ चिढ़ा खिलखिलाती है /..शैतान की नानी धूप ..”

(5) “थका-माँदा सूरज/ दिन ढले /टुकड़े टुकड़े /लहरों में डूब गया जब/ सब्र को पीते /सागर के होठ और भी नीले होगए .”

(6) “ हाथ में दिया लिये / जुगनू की सूरत में / गुपचुप / धरती पर आकर.../ किसे ढूँढ़ते हैं ये तारे  / मतवाले /”

ऊषा जी की स्वभावानुरूप ही भाषा कोमल और ताजगी भरी है . कहीं ‘नए नकोर प्रेम की डोर ‘ जैसे खूबसूरत प्रयोग भी हैं .

कुल मिलाकर ऊषा जी की यह पुस्तक अनूठी है . बार बार पढ़ने लायक . आधुनिक चित्रकला में हालांकि मेरी समझ कम है फिर भी इतना तो समझ सकी हूँ कि हर चित्र कविता का ही सुन्दर चित्रांकन हैं . हाँ एक बात विशेष रूप से कही जानी चाहिये कि पुस्तक का कलेवर बेहद खूबसूरत है . आवरण , पृष्ठ ,निर्दोष छपाई ..यह सब उत्कृष्ट है . जिसने कृति को अधिक सुन्दर और आकर्षक बना दिया  है . . शिवना प्रकाशन को इसके लिये बहुत बधाई . और ऊषा जी को तो क्या कहूँ . खुद को भगवान का गढ़ा हुआ डिफेक्टिव पीस कहने वाली डा. ऊषाकिरण को ईश्वर ने खूब तराशा है . बस यही कामना कि वे स्वस्थ रहें और सुन्दर कविताएं कहानियाँ लिखती रहें .

                                                                                     

शुक्रवार, 26 सितंबर 2025

बाली यात्रा---4

बाली यात्रा--3 से आगे

 'गरुड़, विष्णु कुन्चाना पार्क

और सेम्यीनाक बीच'

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चार दिन हरे भरे रिवर सोंग में नदी के मधुर गीत सुनने के बाद 11 अगस्त तक हम लोग समीनियक बीचके पास एक विला में रुके । यह बाली के दक्षिण पश्चिम में एक तटीय क्षेत्र है जो अपने सुदूर फैले मनोरम समुद्रतट , पैलेस ,बाजार तथा अन्य कई विशेषताओं के लिये जाना जाता है । विला रिवर सोंग जैसे मोहक वातावरण में तो नहीं था लेकिन काफी साफ सुन्दर और सुविधायुक्त था । दो भागों में तीन तीन कमरे थे । एक भाग में पत्नी बच्चों सहित मयंक शिवम् और सौरभ थे और दूसरे तीन कमरों में हम माताएं । यहाँ रहते हुए हमने बाली के कुछ और दर्शनीय स्थल देखे ।

गरुड़ विष्णु कुन्चाना पार्क

1-गरुड़ विष्णु कुंचाना पार्क ( kencana का उच्चारण कई जगह केनकाना और केंचना भी है इन्डोनेशियन भाषा में इसका अर्थ है सोना )     बाली की समृद्ध संस्कृति, कला और पौराणिक कथाओं का एक अद्भुत मिश्रण यह पार्क गरुड़ की शानदार प्रतिमा के लिये जाना जाता है जो 122 मीटर ऊँची है ।

यह चित्र गूगल से साभार

आकाश में उड़ान भरते हुए से गरुड़ और उसपर सवार भगवान् विष्णु को दोखकर एक पुलक और रोमांच का अनुभव होता है । यह समान आकार के 754 खण्डों (मॉड्यूल) से बनाई गई है जो अपने आप में विशेष है। दुनिया की ऊँची प्रतिमाओं में मान्य यह प्रतिमा बीस किमी दूर से भी दिखाई देती है । इसे देखे बिना बाली-दर्शन अधूरा है ।  

2-सरस्वती मन्दिर( pura taman kemuda sarswati) उबुद में स्थित सरस्वती मन्दिर जिसे वाटर पैलेस भी कहा जाता है । सुन्दर कमलों से भरे तालाब , फव्वारे और अत्यन्त आकर्षक और कलात्मक शिल्प वाला , कला की देवी सरस्वती को समर्पित यह मन्दिर इन्डोनेशिया का सबसे सुन्दर मन्दिर माना जाता है । 

सरस्वती मन्दिर का ही एक भाग
यहाँ भी अन्दर जाने से पहले टिकिट लेना और  एक सुनिश्चित परिधान पहनना होता है

सरस्वती मन्दिर
वहाँ पाँच पाण्डवों की बहुत ही सुन्दर प्रतिमाएं देखना एक आनन्दमय अनुभव था । उबुद पैलेस सरस्वती मन्दिर आदि स्थानों का कोई न कोई सम्बन्ध मार्कण्डेय ऋषि से रहा है यह कहीं पढ़ा है । इसीलिये बाली में पग पग पर आत्मीयता का अनुभव होता है ।3--उबुद पैलेसबाली की उत्कृष्ट वास्तुकला का शानदार उदाहरण है उबुद पैलेस । यह शाही परिवार का आधिकारिक निवास था । महल के पत्थरों की अद्भुत नक्काशी चकित करने वाली है । अगर पत्थर बोलते तो वैभव और संघर्ष की जाने कितनी रोचक कहानियाँ सुनाते । इतनी सुन्दर अनूठी नक्काशी के कलाकार को ('आई गुस्ती न्यूमन लेम्पाड' --1862 –1978) हदय से नमन है । 


उबुद पैलेस का मुख्य द्वार
यह पैलेस का आकर्षण ही था कि चिलचिलाती धूप में भी देखने की जिज्ञासा बनी हुई थी । वहाँ भी हमने कई फोटो लिये ।  

4-सेमिन्याक बीचबाली जाएं और बीच पर न जाएं ऐसा नहीं हो सकता । खासतौर पर जिन्हें लहरों की बाहों में झूलने का शौक हो । बीच पर जाने से पहले बाँस का बना एक बहुत ही सुन्दर दरवाजा और बाँस से ही बनी लम्बी गैलरी पार करनी होती है । वहाँ सामान देखा जाता है कि कोई प्लास्टिक का या अवांछनीय सामान तो नहीं है । समुद्र-तट को साफ सुथरा रखने के लिये यह बड़ी प्रेरक पहल है। बीच पर उतरने से पहले एक खुला क्लब , स्वीमिंग पूल और रेस्टोरेंट है जहाँ आराम कुर्सियों पर अर्धनग्न लेटे विदेशी पर्यटक , कनफोड़ शोर करते ड्रम के साथ पाश्चात्य संगीत और तली जा रही मछली की गन्ध आपका स्वागत करती है । मेरे जैसे लोगों के लिये एकमात्र यही अप्रिय अनुभव था लेकिन तट पर पहुँचते ही सारी क्लान्ति विलीन होगई । 

सागर की नीलिमा में सुनहरे सितारे टाँकती साँझ धीरे धीरे उतर रही थी । आसमान में चतुर्दशी का बड़ा सा चाँद भी झाँकने लगा तो लहरें जैसे उल्लास से भर गई । और तेजी से उमड़कर मानो वे चाँद को छूना चाहती हों । आसमान में रंगबिरंगी पतंगें लहरों की अधीरता पर मुस्कराती हुई लहरा रहीं थीं



सोमवार, 22 सितंबर 2025

बाली यात्रा--3

बाली यात्रा -2 से आगे 

आइलैण्ड ऑफ गॉड

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आइलैंड ऑफ गॉड यानी ईश्वर का द्वीप, देवभूमि । बाली को दी गई यह उपमा निराधार नहीं है । यह वहाँ जाने वालों को स्वतः ही अनुभव हो जाता है । लगभग साढ़े पाँच हजार वर्ग कि.मी. के इस हिन्दू बहुल ( 87 प्रतिशत से भी अधिक) छोटे से द्वीप में दस हजार से अधिक मन्दिर है जिन्हें 'पुरा' कहा जाता है बल्कि घरों के मन्दिरों को भी गिना जाय तो कुल मन्दिर बीस हजार से अधिक ही होंगे क्योंकि हर घर में मन्दिर हैं और एक घर में भी सबके अलग अलग मन्दिर हैं ।

बाजार में एक छोटा मन्दिर 
मान्यताओं के अनुसार मन्दिरों के स्वरूप भी अलग अलग हैं जैसे पुरा पुसेह (उत्पत्ति ) पुरा दलेम ( जन्म और मृत्यु विषयक) । यहाँ के लोग इस द्वीप को ईश्वर का आशीर्वाद मानते हैं । आध्यात्म ,संस्कृति , आस्था और धार्मिक परम्पराओं और मन्दिरों से अलंकृत भूमि को ईश्वर की भूमि कहना असंगत नहीं है ।

हिन्दू धर्म की स्थापना --श्रुति अनुसार इण्डोनेशिया के जावा सुमात्रा बाली आदि द्वीपों में हिन्दू धर्म का आरम्भ पहली शताब्दी में माना जाता है जो व्यापार के लिये आए भारतीय व्यापारियों द्वारा स्थापित हुआ बाद में जावा के माजापहित साम्राज्य द्वारा और व्यापक हुआ । 13-14 वी शताब्दी में इस्लामधर्म के आगमन और विस्तार से जावा सुमात्रा आदि द्वीपों में हिन्दू धर्म पतन हुआ तो बाली ही एकमात्र द्वीप था जहाँ डांग हयांग निरर्था नाम के पुजारी ने बेरबन के एकेश्वरवादी लोगों से जो हिन्दू धर्म के विरोधी थे ,कड़ा संघर्ष कर हिन्दू धर्म की रक्षा की । तनाह लोट मन्दिर और उलुवातु मन्दिरों का इतिहास यही कहता है ।

वास्तव में बाली को ठीक से समझने और देखने के लिये वहाँ के मन्दिरों का गहन निरीक्षण और इतिहास को समझना आवश्यक है और काफी रोचक भी उसके लिये समय ,और एक लक्ष्य आवश्यक है जो हमारे पास नहीं था इसलिये हम जिन कुछ ही मन्दिरों को देख पाए ,उनके बारे में ने जो जान पाए वही यहाँ लिखा है ।

1-बटुआन मन्दिर या पुरा पुसेह बटुआन –--बाली के तीन प्रसिद्ध मन्दिरों में से एक पुरा बटुआन दसवीं में स्थापित मन्दिर है जो प्राचीन मेगालिथिक पत्थर से निर्मित है। सामान्य अर्थ में मेगालिथिक यानी बड़ा पत्थर । स्थानीय भाषा में भी बटुआन का अर्थ पत्थर ही होता है । इस मन्दिर को बालीनी भाषा में त्रि-कहयांगन ( कहयांगन यानी स्वर्ग की भूमि ) कहा जाता है अर्थात् यह तीन देवों ,ब्रह्मा ,विष्णु और शिव को समर्पित हैं जिन्हें क्रमशः पुरा देसा , पुरा पुसेह और पुरा दलेम कहा जाता है ।

कोरी अगुंग द्वार

केंडी बेंटार द्वार

मन्दिर में जाने से पहले सिर पर एक कैप और कमर से पैरों तक लुंगी जैसी पोशाक पहननी होती है । उनके नाम वहाँ कार्यरत गौरवर्णा बालाओं ने उटुंग और सपत बताए हालाँकि गूगल पर सारोंग और शॉल लिखा है खैर.. मन्दिर का प्रथम द्वार दो कलात्मक किन्तु कटे हुए से विभाजित स्तम्भों (स्थानीय भाषा में केंडी बेंटार) से बना खुला लेकिन भव्य और विशाल था । बाली में हर मन्दिर के बाहरी द्वार का रूप केंडी बेंटार ही देखा । दूसरे शब्दों में कहूँ तो जहाँ भी हमने ऐसा द्वार देखा , वहाँ मन्दिर होने का अनुमान सच्चा पाया। 

उटुंग और सपत

आन्तरिक द्वार कोरी अगुंग यानी छत वाला द्वार बहुत ही सुन्दर था । मन्दिर का शिल्प मोहक और आश्चर्यजनक है । बड़ी बारीकी से पत्थर पर कलात्मक आकृतियाँ उकेरी गई हैं । संरचनाओं पर कालिमा और काई देखकर कुछ निराशा हुई हालाँकि वहाँ पूजा अर्चना जारी है ।

2-तनाह लोट मन्दिर --- तनाह लोट का अर्थ है समुद्र में भूमि ।  तबाहन क्षेत्र के बेरबन गाँव स्थित समुद्र तट पर  उत्तुंग लहरों में तैरता हुआ सा यह मन्दिर जितना मनोरम है उतना ही इसका इतिहास रोचक है । कहा जाता है चौदहवीं शताब्दी में जब जावा आदि द्वीपों में इस्लाम के विस्तार से हिन्दू धर्म का पतन होते देखा तो वहाँ के हिन्दू भी बाली आगए ।

बेरबन के कुछ एकेश्वरवादी लोगों ने हिन्दुत्त्व का विरोध किया तब डांग हयांग निरर्था जिन्हें भगवान डांग हयांग द्विजेन्द्र भी कहा जाता है ,ने हिन्दुओं की रक्षा के लिये एक चट्टान को अपनी शक्ति से समुद्र के अन्दर किया और  मन्दिर का निर्माण करवाया और हिन्दूधर्म की रक्षा की । 

पुरा तनाह लोट 


अपने छोटे से प्रवाल द्वीप की रक्षा के लिए, डांग हयांग निरर्था ने अपनी आध्यात्मिक  शक्ति से एक विषैला समुद्री साँप भी बनाया। 


मन्दिर की रक्षा में साँप

ऐसा माना जाता है कि यह समुद्री साँप
तनाह लोट  की तलहटी में रहता है और मंदिर को घुसपैठियों और दुष्ट लोगों से बचाता है। द्वैपायन ने बताया कि मन्दिर वरुणदेव को समर्पित है । हम देर तक मन्दिर से टकराती लहरों को  देखते रहे मानो वे वरुणदेव का अभिनन्दन कर रही हों ।

शाम को नीली सफेद उत्ताल तरंगों में उतरते सुनहरे सूरज को देखना एक अविस्मरणीय अनुभव रहा ।

3--उलुवातु मन्दिर –--उलु यानी किनारा वातु यानी चट्टान ।  यह सांगहयांग विधीवासा (रुद्रदेव) को समर्पित  है । इसका विस्तार जावानीस ऋषि एम्पू कुतुरन ने किया था । 

समुद्र के किनारे सत्तर मीटर ऊँची चट्टान पर स्थित इस मन्दिर से चारों ओर अकथनीय सौन्दर्य इसे पर्यटकों को बरबस खींच लाता है । यहाँ डांगहयांग निरर्था को मोक्ष प्राप्त हुआ इसलिये भी इस मन्दिर की बहुत मान्यता है । 

केचक नृत्य को देखने जाती अपार भीड़ 
दृश्य मन्दिर से 













यहाँ प्रतिदिन शाम को केचक नृत्यका आयोजन होता है । अपार भीड़ के बीच हमने भी देखा। इसमें बहुत सुन्दर और कलात्मक रूप में सीता हरण का जीवन्त नाट्यमंचन किया जाता है

जारी..... 
मन्दिर में एक प्रतिमा

मंगलवार, 9 सितंबर 2025

बाली यात्रा --2

 बाली --1 से आगे

कल कल निनाद के बीच रिवर सोंग

बाली एयरपोर्ट पर ही बाली की द्वीपीय अनूठी कला और संस्कृति का अनुमान हो जाता है । भवन शिल्प , चित्रकला , भाषा सब कुछ अलग अनूठा ।

एयरपोर्ट पर एक  चित्र


 बोर्ड पर अंग्रेजी में लिखे शब्द पढ़ने की कोशिश की तो कुछ समझ नहीं आया -- 
Kecamatan KutaTuban। असल में इन शब्दों की लिपि तो रोमन है लेकिन भाषा इण्डोनेशियन या बालिनी है । अंग्रेजी का चलन बहुत कम है ,लगभग न के बराबर । केवल पर्यटन से जुड़े लोगों और सामान विक्रेताओं ने अंग्रेजी के कामचलाऊ शब्द सीख लिये हैं ।

बाली एयरपोर्ट का नाम गुस्ती नगुराह राय एयरपोर्ट है । गुस्ती नगुराह राय एक कर्नल और स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने डचों के खिलाफ इण्डोनेशियाई स्वतंत्रता संग्राम में बाली के लिये वीरतापूर्ण भूमिका निभाई थी । उनका पूरा नाम गुस्ती नगुराह राय कैरांगसारी है । इसे देनपसार एय़रपोर्ट भी कहा जाता है । देनपसार बाली की राजधानी होने के साथ ऐतिहासिक ,धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण शहर है।

बाली इण्डोनेशिया का एक बड़ा द्वीपीय प्रान्त है । इण्डोनेशिया शायद दुनिया का सबसे बड़ा द्वीपीय देश है ,जो लगभग सोलह-सत्रह हजार द्वीपों का समूह है इनमें बाली एकमात्र हिन्दू बहुल (लगभग 87 प्रतिशत) प्रान्त है । भारतीय व्यापारियों और विद्वानों के आगमन से जावा सुमात्रा बाली आदि अनेक प्रान्तों में हिन्दूधर्म की स्थापना हुई। प्राचीन और मध्यकाल में यहाँ हिन्दू साम्राज्य का विकास चरम पर था । पहले बाली जावा के महान् माजापहित हिन्दू-बौद्ध साम्राज्य का हिस्सा था पर वहाँ मुस्लिम सुल्तानों के उदय के बाद उसका पतन होता गया और अधिकतर हिन्दू बाली आगए । बाली द्वीप नाम राजा केसरीवर्मा द्वारा सन् 914 ई. में दिया गया जिसका उल्लेख शिलालेखों में मिलता है।
एयरपोर्ट पर ही बढ़िया कॉफी पीने के बाद मयंक ने ड्राइवर को फोन किया । कुछ ही देर में एक हट्टा कट्टा सुन्दर नौजवान मुस्कराता हुआ आया । उसकी आँखें छोटी थी जो हँसने पर लगभग बन्द होजाती थीं। पर बड़ा विनम्र और मृदुभाषी । रास्तेभर टूटी फूटी अंग्रेजी में वह कुछ आवश्यक बातें मयंक को बताता रहा और मैं बाली की सड़कों भवनों और पेड़ों को निहारती रही । सड़क के दोनों तरफ बाँस के सुन्दर कलात्मक 'पेनजोर' (वन्दनवार) जैसे हमारे स्वागत में ही झुके हुए थे । ड्राइवर ने बताया कि ये एक खास फेस्टिवल  गलुंगन पर लगाए जाते हैं । 

पेनजोर 

घटोत्कच
आसमान में अनेक आकृतियों ,तितली चिड़िया , तिलचट्टा, फूल ,कौआ , नाव , हवाईजहाज आदि की विशालकाय पतंगें लहरा रही थीं । बाहर चटकीली धूप थी । वैसे भी तटीय क्षेत्र होने के कारण सर्दी की उम्मीद तो नहीं लेकिन बादलों की  उम्मीद थी । दोनों तरफ मूर्तियों की आकर्षक दुकानें थीं । जिनमें गणेश , लक्ष्मी , सरस्वती ,विष्णु ,शिव, पाँडवों और घटोत्कच की प्रतिमाओं के साथ अनेक अनबूझ सी प्रतिमाएं भी थीं । हर जगह कुछ विशेष प्रकार के भवन द्वार और आकृतियाँ बड़ा कौतूहल जगा रही थीं । मुझे सफर में नींद नहीं आती चाहे ट्रेन हो या प्लेन ..दिन हो या रात । वह सब देख नींद और भूख जाने कहाँ विलुप्त होगईँ थीं । हमारे लिये सब कुछ नया ,अनूठा और आकर्षक था । गाड़ी लगातार चल रही थी । मन में यह सवाल उठने लगा कि आखिर हम गन्तव्य पर कब पहुँचेंगे ।


"बस हम ‘रिवर सोंग रिसॉर्ट पहुँचने ही वाले हैं।" --ड्राइवर ने बताया । आठ नौ दिन कहाँ रुकना है ,कहाँ क्या देखना है , यह सारी योजना और बुकिंग शिवम् ने की थी । मुझे रिसॉर्ट का नाम बड़ा सुन्दर और क्लासिक लगा ।

अन्ततः एक साधारण सी सूनी जगह (रास्ते में मिले साफ सुन्दर स्थानों की तुलना में) हमारी गाड़ी रुकी । यह उबुद टाउन था।

हम इस जगह रुकने वाले हैं !” -मुझे कुछ पुराने से कमरे और आसपास की अव्यवस्थित जगह देख हैरानी हुई तभी एक दुबली पतली सी युवती एक लड़के के साथ आई और हमारे सूटकेस उठा लिये । ड्राइवर ने नियत समय पर शिवम् और सौरभ को लाने की कहकर विदा ली तो मयंक ने उसका नाम पूछा।

द्वैपायन .”—ड्राइवर ने मुस्कराकर कहा तो मुझे सुखद आश्चर्य हुआ । यह तो व्यास जी का नाम था । बाली में रामायण के साथ महाभारत के प्रभाव का यह एक और उदाहरण था ।

हम लोग युवती के पीछे-पीछे घनी झाड़ियों के कुंज बीच नम सीढ़ियों से उतरते यही सोच रहे थे कि आखिर कहाँ ,किस पाताललोक में ठहरने वाले हैं हम । सीढ़ियाँ और ढलान जहाँ खत्म हुई वहाँ एक लकड़ी की लिफ्ट हमें और नीचे ले जाने तैयार थी । रास्ते भर का उत्साह अब हवा निकले गुब्बारे सा हो रहा था । लिफ्ट ढलान पर बिछे लोहे के मजबूत सरियों के सहारे ऊपर से नीचे जाती आती थी । उसमें केवल चार लोग बैठ सकते थे ।

लिफ्ट 
लिफ्ट से उतरकर हम जहाँ प्रविष्ट हुए तो सारी थकान और शिकायत मिट गई ।सघन हरियाली के बीच सीढ़ीनुमा बने रिजॉर्ट नाम रिवर सोंग एकदम सटीक और सार्थक था । नदी का कलनाद जैसे मीठे गीत सुना रहा था । नीचे झाँकने पर चंचल नीलाभ सलिला पूरे वेग से उछलती कूदती रोम रोम में उत्साह भरती दिखाई दे रही थी । कमरे बहुत खूबसूरत और सुविधाजनक थे। एक दूसरे के कमरे में जाने के लिये सीढ़ियाँ थीं । हर कमरे में गैस ऑवन फ्रिज केतली आदि सामान थे । छोटा सा स्वीमिंग-पूल भी । उस समय तेज भूख थी लेकिन काफी देर बाद मिले अधपका सा पुलाव खाकर आशंका हुई कि यहाँ शाकाहारी खाना क्या ऐसा ही मिलेगा लेकिन उस अधेड़ किन्तु दुबली पतली व्यवस्थापिका ने टूटी फूटी अंग्रेजी में ही आश्वस्त किया कि खाना हम जैसा चाहेंगे मिलेगा । उसका नाम शायद वायेन था । बहुत चुस्त और फुर्तीली थी । उसकी बात बात पर फिसलने वाली ,लिपिस्टिक से सजी मुस्कान उसकी अपने और अपने कार्य के प्रति सजगता और जिम्मेदारी को दर्शाती थी। ड्रैगन फ्रूट ,पपीता ,अनानास ,तरबूज आदि फलों और ताजे औरेंज जूस से भोजन की कमी पूरी होगई । मुझे चारों ओर सघन हरियाली और नदी का कलनाद लुभा रहा था ।

हम चार

शिवम् और सौरभ रात दस बजे आए। फिर क्या , कबके बिछड़े हुए हम आज कहाँ जाके मिले..’ –के भाव में सब पुलकित और उल्लास से भरे थे तब भला किसी को सोने की फिक्र होती ! सौरभ की बेटियाँ प्रियांशी रियांशी, और शिवम् की बेटी अमायरा अदम्य से मिलकर खूब चहक रही थीं । बेटा हृधान की अपनी अलग मस्ती ।सबने खूब धमाल मचाया। शिवम्-नेहा ,सौरभ-प्रीति ( कई अन्य मित्र भी) के साथ सिडनी में बड़ा आत्मीयता भरा समय व्यतीत हुआ था । ऐसे रिश्ते कभी फीके नहीं पड़ते ।

सौरभ व शिवम् की मम्मी और हम दो ( मैं और श्वेता की माँ) यों लगभग हमवयस्का चार महिलाओं का भी एक समूह बन गया । उस रात भी मुझे नींद नहीं आई । अगले दिन सबने केवल आराम किया । 

जारी ....बाली --1  

रास्ते में देखते हुए 

 



कृष्ण अर्जुन



बुधवार, 3 सितंबर 2025

बाली यात्रा--1

नीलमणि में जड़ा पन्ना


जब रात ने अपनी चादर समेटनी शुरु की तो कालिमा धीरे-धीरे नीलिमा में बदलने लगी । मैंने विमान की खिड़की से चारों देखा तो आँखें विस्मय से भर उठी । चारों ओर मोहक नीलिमा का असीम विस्तार था । समझ ही नही आ रहा था कि धरती कहाँ ,आसमान कहाँ क्षितिज की कहीं कोई सीमारेखा नहीं । तब क्या हम इतनी ऊँचाई पर हैं कि हमारे आगे पीछे ऊपर नीचे केवल आसमान है
? या किसी ने रात की कालिमा की तर्ज में हर तरफ आसमानी रंग की कूची चला दी है। यह रंग कितना मोहक है ! शायद इसीलिये प्रायः कृष्ण की तस्वीर में यही रंग मिलता है । अगर कोई दूसरा रंग था भी तो कहीं कहीं तैरते छोटे छोटे नटखट बच्चों जैसे बादलों का धवल रंग था । धीरे धीरे जब उजाला और उजला हुआ तो नीचे आसमानी विस्तार में बादलों के बीच कुछ धूमिल सी आकृतियाँ दिखाई दीं ।  दो महासागरों के बीच उत्ताल लहरों में जैसे  हिचकोले खाती नौकाएं हों ,या असीम जलागार में अनेक कछुए सतह पर आकर आराम कर रहे हों । कुछ पलों में नीचे की नीलिमा उर्मिल लगने लगी , छोटी धूमिल आकृतियाँ कुछ गतिशील दिखाई दीं को हृदय पुलक और रोमांच से भर उठा अरे यह तो अगाध विशाल सागर है , अपनी गोद में कितने ही द्वीपों और जहाजों को सहेजे हुए । धरती लाल सुनहरे सूरज का अभिनन्दन कर रही थी । आसमान भी नीचे उतर आया था नन्हे धवल बादलों के साथ , सुनहरी किरणों के साथ । घड़ी में अभी 3.40 हुए थे लेकिन हमारा विमान सुबह की सुनहरी किरणों में चमक रहा था ।

वह 3 अगस्त 2025 की सुबह थी । हमारा विमान बाली की ओर उड़ानें भर रहा था ।


मयंक और श्वेता ने जाने कब इस यात्रा की योजना बना ली थी। हमारे साथ श्वेता की माँ भी थीं । उधर सिडनी से दोनों के मित्र शिवम् और सौरभ भी सपरिवार आ रहे थे । इसलिये यह यात्रा निस्सन्देह बहुत आनन्द व उल्लासमय होने वाली थी । विमान की मेरी यात्राएं यों तो पन्द्रह साल से जारी हैं लेकिन समुद्र के ऊपर उड़ान का यह पहला अवसर था । मैं बेहद उत्साहित थी । लगातार देख रही थी कि उस निस्सीम नीले वैभव में अब लाल सुनहरे हरे पीले रंग शामिल हो रही थे । अगाध नीली जलराशि के बीच धरती का हरीतिमाच्छादित किनारा , किनारे से टकराती लहरों की रुपहली मेखला मोहक तिरंगी तस्वीर बना रही थीं । उत्ताल हिलोरों से आन्देलित सीमाओं में बँधा सागर जंजीरों में बँधे उस विशालकाय हाथी की याद दिला रहा था जो जंजीरें तोड़कर सब कुछ तहस नहस कर डालना चाहता हो । 


विमान अब अपने गन्तव्य के निकट था । धरती का सामीप्य पाकर आँखें खिल उठीं । धरती से दूर पाँव ही नहीं हदय भी खुद को कहीँ टँगा हुआ सा महसूस करता है । आश्वस्ति माँ की गोद में ही मिलती है, प्यारी धरती माँ । विमान से उतरकर मन ही मन धरती को प्रणाम किया । 

अब हम बाली की धरती पर थे । 

विदेश की एक और रोमांचक यात्रा ।      


जारी......     



सोमवार, 19 मई 2025

एक साल--एक पुन: प्रेषित रचना

19 .5 .2011
आज काकाजी (पिताजी) को गए एक साल हो गया । धरती ने भले ही पूरे तीन सौ पेंसठ दिन पार कर लिये है पर मन तो जैसे एक पग भी नही चल पाया है । वह स्मृतियों की दीवार के सहारे खड़ा उस गहरे गड्ढे को देख रहा है जो एक वृक्ष के उखड़ने से हुआ है और जिसके कारण आगे जाने का रास्ता ही बन्द हो गया है । सावन--भादों की झड़ी उसमें एक इंच मिट्टी तक नही डाल पाई है ।
कितनी अजीब बात है कि एक घटना जो दूसरों के स्तर पर हमें सामान्य लगती है अपनी निजी होने पर अति विशिष्ट होजाती है । दूसरों की नजर से देखें तो काकाजी का जाना कोई खास दुखद घटना नही है । पिचहत्तर पार चुके थे । हड्डी टूट जाने के कारण ढाई महीनों से बिस्तर पर थे । उनके बच्चों के बच्चे तक लायक हो चुके हैँ विवाहित होकर माता-पिता बन चुके हैं । पर मुझे अभी तक जाने क्यों लगता है कि कही कुछ ठहर गया है ,कुछ शेष रह गया है । अगर बचपन कही ठहर जाता है तो आदमी आजीवन उसके चलने की प्रतीक्षा में बच्चा ही बना उम्र तमाम कर लेता है । मुझे भी कुछ ऐसा ही लगता है । जैसे जमीन से वंचित गमले में ही पनपता एक वृक्ष बौनसाई बन कर रह जाता है । मैं शायद आज भी उन्ही पगडण्डियों पर खड़ी हूँ जिन पर चलते हुए मैं कभी एक कठोर शिक्षक में अपने पिता की प्रतीक्षा करती हुई फ्राक से चुपचाप आँसू पौंछती रहती थी । काकाजी और मेरे बीच वह कठोरता दीवार बन कर खडी रही । एक उन्मुक्त बेटी की तरह मैं उनसे कभी मिल ही नही पाई । यह मलाल आज भी ज्यों का त्यों है ।
काकाजी के लिये इस शेष रही पीड़ा को शब्दों में ढाल देने के प्रयास में मैं सफल हो सकूँ यही लालसा है । आज एक नया ब्लाग शुरु कर रही हूँ --कथा--कहानी । कोशिश करूँगी कि माह दो माह में एक कहानी तो दी जासके। ये वे पुरानी कहानियाँ होंगी जो आज तक पूरी नही हो सकीं हैं । पहली कहानी काफी कुछ (खासतौर पर शिक्षक वाले प्रसंग केवल उन्ही के हैं )काकाजी से प्रेरित है । यह एक परिपूर्ण और अच्छी कहानी तो नही कही जासकती । लेकिन आप सबके विचार मुझे वहाँ तक शायद कभी पहुँचा सकेंगे ऐसी उम्मीद है । आप सबसे अपेक्षा है कि मेरी कहानियों को अपना कुछ समय अवश्य दें ।
यहां उन कविताओं को पुनः दे रही हूँ जिनके साथ --यह मेरा जहाँ --शुरु हुआ । पढ़कर अपनी राय से मुझे लाभान्वित करें ।

पिता से आखिरी संवाद
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(1)
आज ..अन्ततः,
तुमने अलविदा कह ही दिया ।
मेरे जनक ।
सब कहते हैं.....और ..मैं भी जानती हूँ कि,
अब कभी नहीं मिलोगे दोबारा..
लेकिन आज भी,
जबकि तुम्हारी धुँधली सी बेवस नजरें,
पुरानी सूखी लकड़ी सी दुर्बल बाँहें,
और पपड़ाए होंठ,
बुदबुदाते हुए से अन्तिम विदा लेरहे थे,
मैं थामना चाह रही थी तुम्हें,
कहना चाहती थी कि,
रुको,..काकाजी ,
अभी कुछ और रुको
शेष रह गया है अभी ,
बाहों में भर कर प्यार करना ,
अपनी उस बेटी को ,
जो कभी पगडण्डियों पर चलते हुए,
दौड़-दौड़ कर पीछा किया करती थी,
तुम्हारे साथ रह कर तुम्हारी उँगली थामने..
रास्ता छोटा हो जाता था
तुमसे गिनती सीखते या
सफेद कमलों के बीच तैरती बतखों को देखते
आज भी.....दुलार को तरसती तुम्हारी वही बेटी
अकेली खड़ी है उन्ही सूनी पथरीली राहों पर ।
अभी तक पहली कक्षा में ही,
आ ,ई , सीखती हुई ,
तलाश रही है राह से गुजरने वाले
हर चेहरे में ।
तुम्हारा ही चेहरा ।
भला ऐसे कोई जाता है
अपनी बेटी को,
सुनसान रास्ते में अकेली छोड़ कर ।

(2)
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यूं तो अब भौतिक रूप से,
तुम्हारे होने का अर्थ रह गया था,
साँस लेना भर एक कंकाल का
धुँधलाई सी आँखों में
तिल-तिल कर सूखना था
पीड़ा भरी एक नदी का ।
उतर आना था साँझ का
उदास थके डैनों पर ।
लेकिन अजीब लगता है
फूट पड़ना नर्मदा या कावेरी का
यों थार के मरुस्थल में
पूरे वेग से ।
स्वीकार्य नही है
तुम्हारा जाना
जैसे चले जाना अचानक धूप का
आँगन से, ठिठुरती सर्दी में ।
बहुत अखरता है,
यूँ किसी से कापी छुड़ा लेना
पूरा उत्तर लिखने से पहले ही ।
और बहुत नागवार गुजरता है
छीन लेना गुड़िया , कंगन ,रिबन
किसी बच्ची से
जो खरीदे थे उसने
गाँव की मंगलवारी हाट से ।

सोमवार, 24 मार्च 2025

प्रेम में डूबी स्त्री

क्या तुमने देखी है

एक प्यार में डूबी

एक उम्रदराज स्त्री ?

नहीं ?

तब तुम्हें ज़रूर देखना चाहिये  ,

कि खाली होते दिये में ,

बुझती हुई लौ

कैसे लहक उठती है ,

स्नेह भर जाने पर ,

और नकार देती है 

कोने कोने में फैल गए घुप अँधेरे को .

प्रेम में डूबी एक स्त्री ।

 

जाने कहाँ विलुप्त हो जाता है

अभाव का भाव ।

उम्र का पड़ाव ।

फूटती हैं कलियाँ

लगभग सूख गई,

फिर से हरी होती डाली में ।

घनघोर बादलों और बारिश के

सीले अँधेरे को चीरकर

मुस्कराता है वसन्त

खिल उठती है सुनहरी धूप

गन्धभार से बोझिल जैसे

फागुनी हवा

 

पीड़ा अपमान उपेक्षा

रिश्तों से टपकता खून  

नफरत , द्वेष ,

नैतिक अनैतिक मापदण्ड

गलत पते पर चले आए

पत्र की तरह नकारकर

प्यार में डूबी स्त्री  

देखती हैं जकरेंडा के फूलों में

अपने सपनों के निखरते रंग

रोम रोम बजता जलतरंग .

 

ज़िन्दगी जैसे शुरु हुई है अभी

इन्द्रधनुषी सपनों के साथ ।

नहीं कोई अपेक्षा ।

या भय किसी बन्धन के तिरकने का ।

तिरोहित होजाता भेद का भाव

रंग रूप उम्र और देह से एकदम परे ,

जी उठती है फिर से एक किशोरी

उमड़ती हैं मचलती हैं लहरें

शान्त झील में ।  

 

चहक उठती है सुबह सुबह  

गुलमोहर की टहनियों में

कोई चिड़िया ।

गाती है आत्मा का चरम संगीत

प्रेम तोड़ता नहीं , जोड़ता है परम से    .

मनाती है आनन्द का उत्सव ,

अपने आप में डूबी हुई

एक उम्रदराज स्त्री ,

जब होती है किसी के प्रेम में ,

गाती गुनगुनाती हुई

उम्र की तमाम समस्याओं को

झाड़कर डाल देती है डस्टबिन में ।