गैरों सी हर खुशी रही
हर दर्द रहा खामोश
रहा सुलगता सूने में ही
मन का छप्पर , सच ।
बाहर से तो यह मकान
कुछ शानदार लगता है
कभी झाँकना भीतर
दीवारें हैं जर्जर , सच ।
झूठ बोल कर वो जीते
हम हारे सच कह कर भी
ऐसे हैं हालात कि
जीना है मर मर कर , सच ।
कहने की आजादी
केवल कहने भर की है
एक शब्द पर ही तन जाते
कितने खंजर , सच ।
चार पीढियाँ एक साथ
रहतीं थीं कभी यहाँ
अब दो ही लोगों को
लगता है छोटा घर ,सच ।
कहाँ बचोगे ,कहने, सुनने
और देखने से ।
बेमानी है बनना अब
बापू के बन्दर , सच ।
समझ न आता कहीं कहीं तो
पूरा भाषण भी
कहीं उतर जाते गहरे में
दो ही अक्षर , सच ।
2004
सटीक बात .....सोलह आने सच.
जवाब देंहटाएंसादर
अनु
सटीक रचना
जवाब देंहटाएंइतनी सुन्दर बातें दीदी,
जवाब देंहटाएंऔर शिक्षा अनमोल,
कोई बनावट, झूठ की चादर,
नहीं है, है बस, सच!
इस कविता ने हमें सिखाया,
क्या कुछ खोया हमने,
झूठ तिजोरी में भर रक्खा,
और घूरे में, सच!!
पैंसठ वर्षों में भी देखो,
क्या दिखता बदलाव,
भूख,गरीबी, खून-खराबा,
नंगा है, पर सच!
बस रचना सफल हुई
हटाएंइन दो अक्षरों को समझ पाना और समझा पाना कितना कठिन हो गया है..
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत...क्षमायाचना सहित एक निवेदन - कभी झांकना भीतर, दीवारें जर्जर हैं सच - में "दीवारें हैं जर्जर" नहीं होना चाहिए था? आशा है धृष्टता क्षमा करेंगी..
जवाब देंहटाएंदीपिका जी ,इसमें न तो धृष्टता है न ही इसके लिये क्षमायाचना होनी चाहिये बल्कि यह तो आपका स्नेह है कि आप मेरी हर रचना को बडे ध्यान से पढतीं हैं तथा केवल औपचारिकता के लिये टिप्पणी नहीं करतीं । लेकिन मेरी समझ में नही आया कि जर्जर शब्द क्यों नही होना चाहिये । आप जरा स्पष्ट लिखतीं तो मुझे आसानी होती । यहाँ दीवारों के कमजोर,जीर्ण व टूटी-फूटी होने के अर्थ में जर्जर शब्द का प्रयोग किया गया है । जहाँ तक मुझे ज्ञात है कि शब्द के अर्थ में तो कोई त्रुटि नही है फिर भी आप मुझे अवश्य बताएं । प्रतीक्षा करूँगी ।
हटाएंगिरिजाजी, मैंने शब्द हटाने की नहीं शब्दों का क्रम बदलने की बात की थी यानी "दीवारें जर्जर हैं" की जगह "दीवारें हैं जर्जर", यानी कि जर्जर को हैं के बाद लगाने की बात थी क्योंकि पूरी कविता में वह एक लय है - छप्पर, जर्जर, खंजर - इसलिए जर्जर के बाद हैं लगाने से उस पैरे में उसकी लयात्मकता टूटती है। शब्दों के आपके चयन पर तो मैं सवाल उठा ही नहीं सकती। आशा है, अब स्पष्ट हुआ होगा...
हटाएंशुक्रिया दीपिका जी । दरअसल आपके 'नही' शब्द से यह जिज्ञासा पैदा हुई थी । मैं उसे सही कर रही हूँ ।
हटाएंगहन भाव लिए उत्कृष्ट लेखन ... आभार
जवाब देंहटाएंआजादी कहने को भी कहाँ है !
जवाब देंहटाएंबेहद अच्छी रचना , बधाईयाँ.
जवाब देंहटाएंराजेश शर्मा
आदरणीय राजेश जी ,आपके ब्लाग पर टिप्पणी की कोई जगह न दिखी । आपका ईमेल भी नही है । आपके गीत बहुत ही गहरे व मधुर हैं । मैंने आपको एक दो बार सुन कर ही यह समझ लिया था । संक्षिप्त संवाद में भी आपको यह ब्लाग याद रहा । अच्छा लगा । अपने ब्लाग पर रचनाएं देते रहिये क्योंकि काव्य-गोष्ठियों में अक्सर जाना नही हो पाता ।
हटाएंवाकई आनंद आ गया ...
जवाब देंहटाएं