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कुछ माह पहले की बात है जब मैं दिल्ली जा रही थी । वहां से सुबह 9.40 पर बैंगलोर के लिये उडान थी । ग्वालियर से दिल्ली के लिये रात दो बजे गोंडवाना ऐक्सप्रेस में एस-1 में मेरी सीट आरक्षित थी । कुलश्रेष्ठ जी ने मुझे यथास्थान बिठाकर विदा ले ली । गाडी जल्दी ही चल पडी । मैंने सामान किसी तरह जमाया और निर्धारित सीट पर सोये व्यक्ति को जब सीट खाली करने के लिये कहा तो वे --"मैडम यह सीट तो मेरी ही है" कह कर फिर सोगए ।
'बडे अजीब इन्सान हैं । रात के ढाई बजे किसी खाली सीट पर आराम से सोजाएं, इतना तो चलता है पर जब सीट वाला आकर अपनी सीट चाहता है तब तो कायदे से उठ जाना चाहिये न । ' मैंने सोचा और एक बार फिर उन सज्जन को जगाने की कोशिश की । तो उन्होंने चेहरे से चादर हटाते कुछ खीज कर कहा--" आप खामखां परेशान कर रही हैं । यह सीट मेरी ही है । आपका रिजर्वेशन है किस बोगी में ?"
"एस--1 में ।" मैंने भी उसी खीज के साथ कहा । दो-तीन सामानों को लादे मैं वैसे ही काफी परेशान हो रही थी । उस पर महाशय लेटे-लेटे बडी निस्संगता से पूछताछ कर रहे थे ।
"यह एस--4 है "--उन्होंने कहा और फिर खुर्राटे लेने लगे । मुझ पर जैसे घडों पानी पड गया । वास्तव में वे अपनी जगह सही थे । गलती मेरी थी । जल्दी में और वह भी रात में एस-1 या एस-4 ,कुछ सूझा ही नही । हालाँकि पतिदेव ने ऐसा नही माना बोले, कि यह सब रेल वालों की गलती है । बाहर एस-1 ही लिखा था । वरना मैं क्या ऐसी गलती करता ।
सच जो भी हो उस गलती की सजा मेरे लिये उस समय काफी कठोर थी । मैं हैरान होकर असहाय सी चारों ओर देखने लगी । उस समय मैं ऐसी दशा में खडी थी जब कुछ समझ में नही आता कि क्या करें । सब गहरी नींद में थे । एक-दो ,जो जाग गए थे वे मुझे वहां से किसी तरह चलता करना चाह रहे थे । वैसे ही जैसे कोई पसन्दीदा कार्यक्रम के बीच आए किसी अनाहूत व अनावश्यक व्यक्ति को करना चाहता है । पर मैं कैसे जाती । मेरे पास दो बैग और एक स्ट्राली थी । बिलकुल चलने के समय सामान के पीछे घर में खूब बहस होती है कि क्या होगा इतना कुछ लेजाकर । कोई जंगल में जा रही हो क्या । वहाँ सब कुछ मिलता है । काफी कुछ निकाल फेंक भी दिया जाता है पर नजर बचा कर कुछ तो वापस रख ही जाता है । शायद महिलाओं को काफी कुछ समेट कर चलने का चाव होता ही है । खास कर माँओं को । खैर...
इस तरह वे तीनों सामान हल्के तो नही थे पर मैं उन्हें ले जा सकती थी अगर आसानी से रास्ता मिल जाता । लेकिन रास्ता तो पूरी तरह बन्द था । जैसे सडक पर ट्रक पलट जाने से यातायात ठप्प होजाता है । यहाँ तो दूसरे रास्ते का विकल्प भी नही था । लोग पुराने रद्दी कपडों की तरह डिब्बे में ठुसे हुए थे । नीचे पांव रखने को भी जगह न थी । उस पर लगभग पूरी चार बोगियाँ पार कर सीट तक पहुँचना मेरे लिये तो नामुमकिन ही था । उधर लोग मेरे वहाँ खडे होने पर भी आपत्ति कर रहे थे। एक सरदारजी बडी खरखरी सी आवाज में सलाह दे रहे थे---"जब कोई स्टेशन आये तो उतर कर अपने डिब्बे में चली जाना ।"
मैं बडी असहाय सी किंकर्तव्य-विमूढ खडी थी।
तभी एक सज्जन अपनी सीट से उठे, मेरा सामान उठाया और बोले --"चलिये मैडम मैं छोड देता हूँ कहाँ है आपकी सीट ?" मैंने चकित होकर उस भले इन्सान को देखा । लगा जैसे कोई देवदूत मेरी सहायता करने आया है ।
तीन भारी सामानों के साथ उन सज्जन ने मुझे न केवल मेरी सीट तक पहुँचाया बल्कि सीट खाली करवाकर (रात में खाली सीट भला कौन छोडता) मेरा सामान भी रखवाया । मैंने कृतज्ञतावश उन भाई का नाम जानना चाहा ताकि इस सहायता के लिये उन्हें याद रख सकूँ ।
पता चला कि वे जबलपुर के अजहरअली थे । अजमेर जारहे थे । मेरे आभार व्यक्त करने पर वे बडे संकोच से बोले कि ऐसा तो उन्होंने कुछ नहीं किया है ।
लेकिन उस स्थिति में अजहर भाई ने जो मेरे लिये किया वह सचमुच आजीवन याद रखने लायक है । हमेशा की तरह इस बार भी मेरे विश्वास को बल मिला कि प्रेम की तरह ही मानवीयता भी जाति--धर्म तथा अपने-पराए की सीमाओं से ऊपर होती है । जहाँ सिर्फ संवेदना व सहानुभूति होती है ।
वाह...:)
जवाब देंहटाएंठीक इसी तरह की एक अच्छी कहानी मेरे पास भी है...रेल यात्रा से जुडी हुई...कुछ अच्छे लोगों ने कैसे मेरी मदद की थी एक दफे....बहुत जल्द ब्लॉग पर शेयर करता हूँ...
वैसे गलत बोगी में एक बार मैं भी चढ़ चूका हूँ...२००२ की बात है, लखनऊ से पटना की मेरी रिजर्वेसन थी...लेकिन मैं स्टेशन लेट से पहुंचा और जैसे ही प्लेटफोर्म पर आया मैं की गाडी खुल गयी....मैं हड़बड़ी में सामने जेनरल डब्बे में जाकर बैठ गया...और मेरे कपड़ों के वजह से(जो उन दिनों मैं पहना करता था) लोग मुझे शायद किसी दुसरे ग्रह का प्राणी जान रहे होंगे :D फिर जब नज़दीक के दुसरे स्टेशन पर गाडी रुकी(करीब आधे घंटे बाद) तभी जाकर मैं अपने रिजर्वेसन वाले डब्बे में चढ़ पाया! :)
पिताजी रेलवे में थे इसलिए रेलवे और ट्रेन से बहुत गहरा नाता है.. आज भी चलाती ट्रेन को देखकर लगता है कि पापा हाथ हिलाकर आशीर्वाद दे रहे हैं.. एक पूरी दुनिया है रेलगाड़ी में.. समाज की तरह ही अच्छे-बुरे, दोस्त, साथी... नाम में क्या रखा है अज़हर हो या अन्थोनी या अवतार सिंह.. उस विकत परिस्थिति में बस परमात्मा का भेजा कोई दूत था..
जवाब देंहटाएंमैंने भी एक बार इससे विकत परिस्थिति का सामना किया था.. लिंक देने की आदत नहीं..लेकिन पोस्ट का शीर्षक ही था "द ट्रेन".. कभी पढियेगा, आज भी याद करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं..
शिकायत है कि दिल्ली आईं और मुझे बताया भी नहीं!!
सुन्दर संस्मरण.....
जवाब देंहटाएंऐसी बातें हमें इस बेमुरव्वत दुनिया में जीते रहने का हौसला देतीं हैं...
(और गलती रेलवे की ही होगी....पतिदेव लोग कभी गलतियां नहीं करते....)
सादर
अनु
बहुत ही रोचकता से प्रस्तुत किया है आपने ... और बिल्कुल सच भी कहा है
जवाब देंहटाएंप्रेम की तरह ही मानवीयता भी जाति - धर्म तथा अपने-पराये की सीमाओं से ऊपर होती है ...
आभार
इस दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम मिलते है,,,
जवाब देंहटाएंइन्ही लोगो के कारण दुनिया में इंसानियत बची है,,,सुंदर स्मरण ,,,,
RECENT POST...: शहीदों की याद में,,
बाप रे ... आपकी परेशानी में मैं भी बौगी में खडी हो गई
जवाब देंहटाएंमेरा कमेन्ट गायब हो गया दीदी!!
जवाब देंहटाएंअच्छे व्यक्तियों की कमी नहीं है..उन्हें किसी विशेष उपाधि से जोड़ना नहीं होना चाहिये।
जवाब देंहटाएंऐसी घटनाएं मानवीयता और सज्जनता से विश्वास उठने नहीं देती..
जवाब देंहटाएंHumanity is something directly related to heart and goodness, it has nothing to do with cast or religion.... Here it is proved..
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा... अपनी कितनी ही यात्राएं याद आयीं :)
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