गुरुवार, 4 अप्रैल 2019

हिमाचल में सात दिन भाग --1 एक सर्द धुँधली शाम, दर्द के नाम



आज जिया को गए तीन साल पूरे होगए . उसी समय का आधा अधूरा पड़ा यह वृत्तान्त अब दे पा रही हूँ  
(1)
एक सर्द धुँधली शाम, दर्द के नाम
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 तुम्हारे बिना सब कुछ कितना सूना है . 
15 अप्रैल 2016 की रात के बारह बजे जब मैं प्रशान्त के साथ दिल्ली जाने की तैयारी कर रही थी , लोगों का आना जारी था .माँ का त्रयोदशा था और रसोई की सारी व्यवस्था हमारे आँगन में ही थी क्योंकि अन्यत्र व्यवस्था नहीं हो पाई थी , आंगन सब कुछ फैला हुआ था ,ऐसे में प्रशान्त के साथ चलने के प्रस्ताव पर मन में असमंजस होना स्वाभाविक था .दिन के दिन जाना भला कैसे संभव होगा ? चार माह तक तो माँ की पीड़ा उपचार और तमाम तनाव और उलझनों के चलते हम भाई बहिन फुरसत में मिल-बैठकर कोई बात भी नहीं कर पाए हैं दस बारह दिन से आने-जाने वालों के साथ व्यस्तता रही . अब इतनी जल्दी निकल जाना क्या उचित होगा ? क्या परिजनों को अजीब नही लगेगा ? और क्या इसके लिये मैं सहर्ष तैयार हो पा रही हूँ ? अपनी माँ को खोने के बाद क्या इतनी जल्दी सहज हुआ जा सकता है ? .....
काँगड़ा की ओर 
"सहज तो होना पड़ता है मम्मी और होना भी चाहिये." –प्रशान्त ने समझाया . आपने जिया के साथ जो वक्त बिताया वही उनका था वही आपका है .अब आप रोएं हँसें..दुख और उदासी में डूबे रहें या सहज होने के लिये कुछ बदलाव लाएं जिया के लिये अब कोई अर्थ नही रहा . रहा लोगों की दृष्टि की बात तो महत्त्वपूर्ण यह है कि आप क्या सोच रही हैं ?. क्या लोग आपको समझते हैं ?...जिया का पूरा जीवन देखें तो क्या लोगों ने उन्हें समझा ?...जो आपकी संवेदना और भावनाओं को नही समझते उनकी परवाह आपको नही करनी चाहिये ... फिर मम्मी ऐसे कार्यक्रम आसानी से नही बन पाते . एक बार सोचकर देखिये कि हम लोग सिक्किम गए थे तब कैसा लगा था आपको.. उन अनुभवों को याद करो मम्मी . आपको हिमालय में पहुँचकर अच्छा लगेगा. यहाँ रहोगी तो गुजरे समय को याद करोगी .दुख बढ़ेगा ही और तमाम शिकायतें भी .वह मैं नही चाहता . कुछ नहीं आप हमारे साथ चल रही है...."
छोटी बहिन और भाइयों ने भी कहा कि "चली जाओ जीजी ! यहाँ की चिन्ता मत करो . हम सब समेट-सम्हाल लेंगे ." हम चारों भाई—बहिनों के बीच औपचारिकता जैसा कुछ नही . सभी सुलझे विचारों के हैं . परस्पर प्रेम का विश्वास है .
हालाँकि इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि मैं अपनी राय को प्रायः सुनिश्चित व अडिग नहीं रख पाती . किसी परिजन-प्रियजन की राय ,विचार और आग्रह को दृढ़ता के साथ नकार भी नहीं पाती . उस समय माँ के जाने की पीड़ा तो थी पर बहू--बेटे का आग्रह... हिमालय-दर्शन की लालसा भी थी . सिक्किम के सौन्दर्य का रेशमी कुहुक-जाल अभी आँखों से उतरा नहीं था .मन एक बार फिर महान हिमालय की सौन्दर्य व वात्सल्यमयी गोद में लेट जाने को लालायित था .फिर बहुत दिनों बाद मान्या व सुलक्षणा से मिलने , उनके साथ कुछ समय बिताने जैसे कुछ प्रलोभन तो थे ही .
मैंने भी खुद को समझा लिया .देखा जाए तो जन्म से लेकर लगभग बारह-तेरह सालों को छोड़कर सन् 1973(नौवीं कक्षा) से मैं माँ के पास ही तो रही थी .विवाह के बाद भी बुनियादी प्रशिक्षण का एक वर्ष पूरा कर जब जुलाई 1977 में जब द्वितीय वर्ष के लिये स्कूल में पोस्टिंग हुई तो सुयोग से अपने ही गाँव में हुई . वहाँ लगभग सोलह वर्ष (1993 में ग्वालियर आ गई ) हम एक दूसरे का सम्बल बनी रहीं .फिर जब भाई ने ग्वालियर में हमारे बाजू में ही मकान ले लिया तो जिया का आना जाना लगा ही रहा था . अब लगभग चार-पाँच माह तो माँ के बिस्तर के पास ही समय गुजरा था . उनकी शारीरिक और मानसिक पीड़ा को उनके साथ ही भोगा भी . आज उनके सारे कार्यक्रम भी सम्पन्न हो चुके हैं . वे चली गईं . अब किसके लिये रुकना . सात-आठ माह बाद मिले बेटे को निराश करना भी ठीक नहीं .शायद वह भी इसीलिये लेजाने पर जोर दे रहा है कि मैं दुख में डूबी न रहूँ ..ठीक ही कहा गया है कि जो सामने है उसकी चिन्ता करो . फिर पता नहीं इस तरह जाने का मौका कभी मिले न मिले . प्रशान्त और मैं रात को ही दिल्ली निकल गए .
सुलक्षणा और मान्या बैंगलोर से दिल्ली एक दिन पहले ही पहुँच चुकी थीं . सुलक्षणा के साथ सी-डॉट की ही चारुलता भी सपरिवार आई थी जिसमें चारु के पति कार्तिक उनके माता पिता और बेटी अश्विका थी . चारु बहुत व्यवहारकुशल विनम्र और सलौनी युवती है और सुलक्षणा की अच्छी मित्र . मैं और प्रशान्त पहले गुड़गाँव स्थित सी-डॉट के गेस्ट-हाउस पहुँचे जहाँ वे सब रुके थे . 16 अप्रैल का वह दिन काफी गरम था आठ बजे ही धूप काफी तेज और चुभने वाली थी लेकिन पर मन शान्त था .यह मान्या से मिलने का प्रभाव था . सोचा मैंने ठीक किया जो प्रशान्त के साथ चली आई .
नहा-धोकर नाश्ता लेकर आठ बजे एयरपोर्ट की ओर रवाना हुए .साढ़े दस बजे बोर्डिंग थी .जिस समय हवाईजहाज ने उत्तर की ओर उड़ान भरी तो मन अनायास ही दक्षिण की ओर उड़ने लगा . मैं उसे पूरी ऊर्जा लगाकर अपने आसपास .बाहर तैरते बादलों ,नीचे घाटियों-पहाड़ों में लगाती रही पर वह बार बार फिसल कर घर की ओर दौड़ रहा था . अब सब लोग सफाई में लगे होंगे . आने वाले सब जा चुके होंगे . भाई भाभी अब विश्राम की दशा में होंगे . गुड्डी अकेली सुबक रही होगी . वह हममें सबसे छोटी है . पर अब उसे सम्हलना चाहिये . रोने से जिया वापस तो नहीं न आएंगी ..... मैं खुद को समझा रही थी पर जाने क्यों खुद को अनचाहे ही धकेली गई दशा में महसूस कर रही थी . ऐसा अक्सर होता है मेरे साथ कि मैं जाना नही चाहती पर जा रही हूँ .करना नही चाहती पर कर रही हूँ . जैसे वह मैं नही कोई और हो .
लगभग बारह बजे हम लोग काँगड़ा एयरपोर्ट पर उतरे तब मैंने देखा ,चटकती धूप में वहाँ क्यारियों में नए रोपे गए पौधों की पत्तियाँ मुरझाकर लटक गईँ थीं . नई जमीन को वे अभी स्वीकार नही कर पाए थे .उसमें कुछ समय लगेगा . वैसे अक्सर नई जगह नए रास्तों पर मैं उत्साहित रहती हूँ पर जाने क्यों मुझे अपना मन कुछ कुछ पौधों जैसा प्रतीत हो रहा था . उस समय मेरी मनोदशा उस व्यक्ति की हो रही थी जो किसी प्रियजन के साथ उसकी पसन्द का बेहद उबाऊ धारावाहिक देखने विवश हो . प्रशान्त बीच बीच में मुझे देख आश्वस्त होना चाहता था कि मैं ठीक हूँ . मैं मुस्कराकर उसे आश्वस्त कर रही थी . कई घंटों जाने कितने पहाड़ों को पार कर जब 'डलहौजी' पहुँचे तब तक अँधेरा होचुका था . पहाड़ों में जगह जगह रोशनी के गुच्छे लटके दिखाई देने लगे थे . डलहौजी लगभग दो हजार चालीस फीट की ऊँचाई पर बसा पहाड़ी शहर है . सर्पिलाकार रास्ते पर दौड़ती ट्रैवलर ( गाड़ी) शहर के अन्त में सत्यम् होटल पहुँची .उस समय हल्की सी कँपकँपी वाली सर्दी थी .
मैंने महसूस किया कि मैं किसी ऐसी जगह पर अकेली आ गई हूँ जहाँ सब कुछ अनजाना है लोग भाषा भाव ..सब कुछ . डेढ़-मेढ़े अँधेरे पहाड़ी रास्तों की तरह मेरा मन भी अजीब सी जटिलता ,व वीरान अँधेरे से भर गया है . उजाले के साथ-साथ मेरा उत्साह जाने कहाँ विलीन हो गया .
मैं उस समय देवदार के सघन वृक्षों , ऊँचे शिखर व घाटी के बीच बने सत्यम होटल के बढ़िया कमरे में थी पर जैसे एकदम निष्प्राण . मन यादों के कँटीले तारों से लहूलुहान हुआ ग्वालियर के आँगन में भटक रहा था . दिन भर जिस अनुभूति से मैं नजर बचा रही थी ,वह टूटे बाँध की तरह फूट पड़ी . सारी आँतें जैसे बाहर निकलने को बैचैन थीं . महसूस हुआ कि मैंने जिन्दगी के सबसे बड़े सम्बल को खो दिया है .मैं एकदम बेसहारा हो गई हूँ .  माँ की याद मेरे रोम रोम में बर्फ की नदी बनकर बह रही थी .पीड़ा का सैलाब सा उमड़ पड़ा था .उस सैलाब में फँसी मैं बिल्कुल अकेली थी . मन बोरवेल में फँसे बच्चे जैसी हालत में था .अजीब सी घुटन थी. मेरा मन खूब जोर से हुलक हुलककर रो लेने का हो रहा था . जिया को याद करके चीख चीखकर सारा विषाद बहा देना चाहती थी . मुझे समझ में आया कि दुख के आवेग में खुलकर रोना कितना जरूरी है .जो लोग खुलकर रो लेते हैं उनका दर्द आँसुओं के साथ बह जाता है . मैं खुलकर रोना चाहती थी पर नही रो सकती थी . ऐसा करना बच्चों के सामने कमजोर पड़ना था , जो दुख से उबारने मुझे ले आए थे . ..इसलिये कम्बल में मुँह छुपाए मैं लगभग रातभर रोती रही .पछताती रही और खुद पर तरस खाती रही कि कैसे अक्सर अपनी पीड़ा में हमेशा ही अकेली रही हूँ....काश कोई होता जिसके गले लगकर मैं खूब रो सकती .....
इन्सान के जाने के बाद ही संवेदना के सोते फूट पड़ते हैं ..पहले क्यों नहीं ...
मैं इस समय डलहौजी की खूबसूरत वादियों में खुद को ही कोस रही थी कि यहाँ क्यों चली आई . बेटे को प्यार से मना भी कर सकती थी . कितनी छुद्र व लालची हूँ मैं .काश उड़कर ग्वालियर पहुँच पाती और उस आँगन में बहन-भाइयों के गले लगकर चीख चीखकर मनभर रो लेती . कम्बल के अन्दर रुलाई के कारण हिल रही हूँ मैं . ओ माँ ..मैं खुद को कभी माफ नही कर सकूँगी ...
सत्यम होटल के सामने का दृश्य
"मम्मी सर्दी ज्यादा लग रही है ?" प्रशान्त पूछ रहा था .सुलक्षणा मेरे लिये अच्छी गरम चाय लाने का ऑर्डर दे रही थी पर मुझे उनकी आवाज दूर से आती लग रही थी .वे लोग सोगए पर मुझे नींद नहीं आई .उसी रात वहाँ किसी कॉलेज के लड़के-लड़कियों का कैम्प-फायर था .रात भर पीना-पिलाना और अमर्यादित नाचना-गाना होता रहा . यह सब समाज से फिल्मों में आता है या फिल्मों से समाज ग्रहण करता है, पता नहीं पर आज समाज और रुपहले पर्दें में ज्यादा अन्तर नहीं रह गया .अन्तर सिर्फ इतना है कि असल जिन्दगी में रीटेक नहीं होता . 
बाहर रात भर नाच-गाना होता रहा और मैं कल्पनाओं में डूबी अपने आँगन में बैठी आँसू बहाती जिया को बचपन के दिनों से याद करती रही .  
यह सच है कि दुख में मन को बहलाना खुद को धोखा देना है . दर्द को पूरी तरह जिये बिना दर्द से मुक्ति नहीं मिल सकती . ज़मीन के अन्दर चले गए कीड़े मकोड़ों की तरह दुख कुछ समय भले ही विलुप्त हो जाए पर बरसात होते ही दर्द कुलबुलाने लगता है कीड़े मकोड़ों की तरह .मैं इस सच को तीन साल से महसूस कर रही हूँ . 
 बेदम से एहसास और लफ्ज़ों में लाचारी
ठीक नही होती है अपने ग़म से गद्दारी .

जारी........

6 टिप्‍पणियां:

  1. समय की नाव है समय के साथ तैर लेती है।

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  2. कहते हैं कोई व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति आपको जितना सुख देती है उसके ही कारण एक न एक दिन उसी अनुपात में दुःख मिलने ही वाला है. इसीलिए हर तरह के मोह को दुःख कारी बताया गया है. माँ को विनम्र श्रद्धांजलि !

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  3. उनके साथ बिताए पल वो लम्हे कहीं नहीं जाते ... किसी के होते हुए इंसान जीता है और फिर यादों में उन्ही पलों के साथ इंसान फिर जीता है और ऐसा कई कई बार होता है जीवन में ...
    माँ का जाना कई कई बरस तक पहले तो जाना ही नहि लगता फिर धीरे धीरे उसकी यादें संबल बैन जाती हैं ...

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  4. जिया का दर्द असपने जिस तरह जिया है उसका थोड़ा बहुत साक्षी मैं भी रहा हूँ दीदी। और अचानक उनका चला जाना एक ख़ालीपन का एहसास कराता है। आज समझ में आया कि तकलीफ भी हमारे जीवन का अविभाज्य हिस्सा होते हैं और कभी कभी उनका समाप्त हो जाना भी तकलीफदेह होता है।
    एक यात्रा-वृत्तांत का आरम्भ इस तरह एक दुःख के नोट से शुरू होगा, सोच भी नहीं सकता कोई। यह आपकी लेखनी का ही चमत्कार है दीदी!

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