भाग--1 से आगे) हिमालय का श्रंगार---देवदार
बाहर निकल कर देखा तो
आँखें पलक झपकना भूल गईं . एक तरफ चीड़ देवदार के सघन वृक्षों से ढँके उच्च श्रृंग
और दूसरी ओर हरी भरी घाटी . सुदूर तक फैले सीढियों वाले खेत मानव की कहीं भी अपनी राह बना लेने की उद्यमी प्रवृत्ति की पुष्टि करते हैं तो 'सारा पहाड़ हमारा' के भाव से जहाँ
तहाँ कहीं भी बने सुन्दर मकान प्रकृति की गोद में निर्भय सोये शिशु जैसे लगते हैं . सामने पीरपंजाल की हिमाच्छादित चोटी ,जिस पर सुबह
सुबह सोना बिखर गया लगता था..आसपास खड़े चीड़ के पेड़ों में गहरे हरे पत्तों के बीच तोतिया रंग की कोंपलें अनूठा रंग संयोजन प्रस्तुत कर रही थीं .घन ऊँचे वृक्षों के बीच सर्पाकार लहराती हुई सी सड़क जो आगे जंगल में गुम हुई लग रही थी ... सब कुछ अद्भुत ....
नाश्ता करके हम लोग खजियार के लिये निकले .खजियार
झील और घास के मैदान के लिये खास तौरपर जाना जाता है . इसे भारत का मिनी
स्विटजरलैंड माना जाता है . डलहौजी से खजियार तक का रास्ता जितना मनमोहक है उतना
ही खूबसूरत है खजियार का हरा भरा मैदान . आसमान से बातें करते देवदार के शानदार पेड़ मैदान के
चारों ओर प्रहरी की तरह खड़े हैं .कौतूहल और रोमांच से भर देने वाला देवदार
का मनोहर विशाल वृक्ष यहाँ की सबसे बड़ी सम्पदा है .ऊँचाई को अपना लक्ष्य बनाए हुए
ही मानो यह शाखाओं को पीछे छोड़ आगे ऊँचा निकल जाता है कि शाखाओ ,टहनियो ,तुम आती रहना ,मुझे जरा
जल्दी है .शाखाएं मानो उतनी ऊँचाई तक पहुँचने में असमर्थ नीचे ही अपना आरामगाह बना लेतीं हैं .
मैदान में नकली फूलों के साथ टोकरी में असली खरगोश लिये महिलाओं व बच्चों को फोटो खिंचवाने का आग्रह करते बहुतायत से देखा जा सकता है . यही उनकी जीविका है .
खजियार झील ने अवश्य निराश किया . झील के नाम पर अभी बस पोखर लग रही थी . लम्बी बेतरतीब सी घास ने इसे और अपरूप बना दिया है .सफाई भी नहीं की गई थी.रैपर पॉलीथिन आदि चीजें पर्यटकों की लापरवाही दिखा रही थीं .
शायद वर्षा के बाद यह खजियार झील अपने नाम को सार्थक करती हो .फिर भी डलहौजी आकर खजियार नहीं देखा तो भ्रमण अधूरा ही माना जाएगा . यहाँ घुड़सवारी का बढ़िया आनन्द लिया जा सकता है . प्रशान्त आदि सभी हॉर्स-राइडिंग के लिये गए . चारु की सासु माँ साड़ी पहने थीं ,इस कारण नहीं गईं .कुछ उनका साथ देने और कुछ डर के कारण मैं भी नहीं गई .बच्चों के लिये यहाँ बहुत से आकर्षण हैं .पैराग्लाइडिंग , गुब्बारा ,उछलने-कूदने वाले घर ..मान्या और अश्विका (चारु की बेटी) ने कुछ भी नहीं छोड़ा .
17 अप्रैल
सुबह नींद खुली तो देखा
प्रशान्त व सुलक्षणा बाहर घूमकर आ रहे हैं .
"मम्मी! बाहर देखो कितना
खूबसूरत नजारा है !"--प्रशान्त चहकते हुए बोला .
दोनों बहुत खुश थे . उनकी खुशी देख मुझे अपना दुख में डूबे
रहना उचित नहीं लगा .उठी तैयार हुई .
पर्वत की छाती पर परिश्र्म के शिलालेख |
खजियार |
मैदान में नकली फूलों के साथ टोकरी में असली खरगोश लिये महिलाओं व बच्चों को फोटो खिंचवाने का आग्रह करते बहुतायत से देखा जा सकता है . यही उनकी जीविका है .
खजियार झील ने अवश्य निराश किया . झील के नाम पर अभी बस पोखर लग रही थी . लम्बी बेतरतीब सी घास ने इसे और अपरूप बना दिया है .सफाई भी नहीं की गई थी.रैपर पॉलीथिन आदि चीजें पर्यटकों की लापरवाही दिखा रही थीं .
शायद वर्षा के बाद यह खजियार झील अपने नाम को सार्थक करती हो .फिर भी डलहौजी आकर खजियार नहीं देखा तो भ्रमण अधूरा ही माना जाएगा . यहाँ घुड़सवारी का बढ़िया आनन्द लिया जा सकता है . प्रशान्त आदि सभी हॉर्स-राइडिंग के लिये गए . चारु की सासु माँ साड़ी पहने थीं ,इस कारण नहीं गईं .कुछ उनका साथ देने और कुछ डर के कारण मैं भी नहीं गई .बच्चों के लिये यहाँ बहुत से आकर्षण हैं .पैराग्लाइडिंग , गुब्बारा ,उछलने-कूदने वाले घर ..मान्या और अश्विका (चारु की बेटी) ने कुछ भी नहीं छोड़ा .
खजियार (खज्जर)का नाम
खजीनाग के नाम पर पड़ा है . कहा जाता कि
एक बार शिव-पार्वती यहाँ आए . जब वे जाने लगे तो उनके खजी नाम के एक नाग ने वही रुक जाने की
इच्छा जताई तो शिवजी ने खजी नाग को वहीं छोड़ दिया वहीं छोड़ दिया .और इस तरह इस जगह का नाम खजियार या खज्जर पड़ा .
यहाँ एक सुन्दर मन्दिर भी है . उस दिन वहाँ किसी बच्चे के विवाह की पूजा करने लोग बैंड बाजे के साथ आए . पूजा के बाद मन्दिर के बाहर वे लोग लगभग आधा घंटा नाचे . पहाड़ी नाच को देखना सचमुच एक अनौखा अनुभव था . शान्त-सलिला नदी के मन्थर प्रवाह सा वह नृत्य इतना नयनाभिराम था कि मुझे हमारे यहाँ डीजे के शोर पर नृत्य के नाम पर की जातीं कलाबाजियाँ घटिया लगने लगी .आनन्द में झूमना यही है . मोर की तरह तल्लीन होकर झूमते हुए .सुलक्षणा तो इतनी उत्साहित हुई कि उनके साथ जा मिली .इससे वे महिलाएं भी बड़ी प्रसन्न हुईं .
यहाँ एक सुन्दर मन्दिर भी है . उस दिन वहाँ किसी बच्चे के विवाह की पूजा करने लोग बैंड बाजे के साथ आए . पूजा के बाद मन्दिर के बाहर वे लोग लगभग आधा घंटा नाचे . पहाड़ी नाच को देखना सचमुच एक अनौखा अनुभव था . शान्त-सलिला नदी के मन्थर प्रवाह सा वह नृत्य इतना नयनाभिराम था कि मुझे हमारे यहाँ डीजे के शोर पर नृत्य के नाम पर की जातीं कलाबाजियाँ घटिया लगने लगी .आनन्द में झूमना यही है . मोर की तरह तल्लीन होकर झूमते हुए .सुलक्षणा तो इतनी उत्साहित हुई कि उनके साथ जा मिली .इससे वे महिलाएं भी बड़ी प्रसन्न हुईं .
खजियार से लौटते हुए
पंजपुला गए पर वहाँ झरने के नाम पर पतली सी धारा चल रही थी . गलती हमारी थीं कि जो उस मौसम में झरने के बड़े व तेज प्रवाह की कल्पना की .मेरा विचार है कि अगर झील झरनों का पूरा सौन्दर्य देखना हो तो वहाँ सितम्बर अक्तूबर के समय जाना चाहिये .
जारी......
जारी......
ब्लॉग बुलेटिन टीम और मेरी ओर से आप सब को नव संवत्सर, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा व चैत्र नवरात्रि की हार्दिक मंगलकामनाएँ |
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 06/04/2019 की बुलेटिन, " नव संवत्सर, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा व चैत्र नवरात्रि की हार्दिक मंगलकामनाएँ “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
धन्यवाद
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंमनमोहक यात्रा विवरण !
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (09-04-2019) को "मतदान करो" (चर्चा अंक-3300) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार आदरणीय
हटाएंखजियार के बारे में बहुत सुना है ... अभी तक जाना तो नहि हुआ पर मन में आशा है की एक बार हिमाचल की देव भूमि के भी दर्शन करें ... चित्रों की हरियाली सच में इसे लाजवाब बना रही है ...
जवाब देंहटाएं