रविवार, 14 अप्रैल 2019

हिमाचल में सात दिन भाग --3 धर्मशाला की ओर

भाग--2 से आगे -----
धर्मशाला की ओर
18 अप्रैल  
जिस समय डलहौजी से नीचे उतर रहे थे हमारे साथ सुनहरी रेशमी किरणें भी चीड़ व देवदार की फुनगियों से नीचे उतर रही थीं . उसके बाद हमारे सामने सड़क थी और आजू-बाजू रह रहकर अचानक से गुजर रहे पीले-सफेद फूलों वाले अनाम अजनबी पेड़ थे . धूप का मिज़ाज भी क्रमशः तेज हो रहा था . दोपहर होते होते हम धर्मशाला पहुँच गए .
पढ़ा था कि धर्मशाला हिमाचल प्रदेश की शीतकालीन राजधानी है . यह काँगड़ा जिले का मुख्यालय है. हमारा विश्राम-स्थल मैकलॉडगंज में था . यह काँगड़ा जिले में धर्मशाला का सुन्दर उपनगर है ,जो धौलाधार पहाड़ियों के बीच 2082 मी. ऊँचाई पर स्थित है इसलिये जहाँ धर्मशाला से गुजरते हुए धूप और गर्मी से सामना हुआ ,वहीँ मैकल़ॉडगंज में ठंडक ने हमारा स्वागत किया . वहाँ एक तिब्बती होटल नोरबू-हाउस में हमारा रात्रि विश्राम था .शाम को विशाल बौद्ध-विहार गए वहाँ भगवान बुद्ध की अत्यन्त दर्शनीय विशाल भव्य प्रतिमा है .मठ गजब की शान्ति थी .जगह जगह आध्यात्म-चिन्तन में लीन हर उम्र के सन्यासी दिखाई देते थे .वहाँ जो कुछ लिखा था या चल रहा था मैं समझ नहीं सकी पर जिज्ञासा थी कि पूरे प्रांगण में जिन गोल आकृतियों (प्रेयर-व्हील्स यह नाम मेरी एक मित्र ने बताया) को हम भी, घुमाते हुए चल रहे थे वह क्या है ,उसका क्या महत्त्व है .शायद वह माला फेरने जैसा कुछ हो . जो भी हो धार्मिक अनुशासन हमें इनसे सीखना चाहिये . किसी ने कहा था कि आस्था विश्वास पर टिकी होती है उसमें तर्क व सन्देह का कोई स्थान नहीं होता . वास्तव में यही सच है .सच्ची आस्था ही पत्थर को भगवान बनाती है ,पूजा भजन का आडम्बर नही . आस्था और विश्वास का मार्ग न केवल हमें ईश्वर की ओर उन्मुख करता है , बल्कि हमारे जीवन को भी स्थिर व्यवस्थित व सार्थक बनाता है .
बौद्धमठ में प्रेयर-व्हील्स
नोरबू-हाउस का खाना मेरे गले से नहीं उतरा . न कोई मसाला न स्वाद .पानी में उबली कुछ अनचीन्ही सब्जियाँ ,साथ में कच्चे आटे के गोले जैसा कुछ .कोई सॉस भी था . मोमोज मुझे पसन्द नहीं . मजे की बात यह कि अण्डा वहाँ शाकाहारी भोजन के साथ था .प्रशान्त ने कहा --"मम्मी यह सेहत के लिये निरापद है ." वह ठीक है पर थोड़ा स्वाद तो आना चाहिये न .सो मैंने दूध कॉफी से काम चलाया .पर यह मेरे लिये अच्छा ही रहा . कम खाकर मैं ज्यादा सक्रिय रह सकती हूँ .
अगली सुबह यानी 19 अप्रैल को हमारी गाड़ी पहाड़ की ऊँची गोलाइयों पर घूमती–चढ़ती नड्डी गाँव पहुँची . यहाँ से लगभग पाँच किलोमीटर की ट्रैकिंग भी हमारी यात्रा में शामिल थी .कहते हैं यहाँ सन-पॉइन्ट भी काफी खूबसूरत जगह है लेकिन इतना समय नहीं था हमारे पास .वास्तव में ऐसी हर जगह के लिये अलग समय होना चाहिये .
भाग सू नाग मन्दिर  का अमृतकुण्ड
ट्रैकिंग का अनुभव बड़ा खूबसूरत , रोचक और अविस्मरणीय रहा .हरे भरे ऊँचे वृक्षों वाले सघन वन के बीच चलते बुराँश और दूसरे तरह के सुन्दर फूलों पर मुग्ध होते , जाने अनजाने पेड़-पौधों और पक्षियों को देखते बिना थके ऊबे पहले चढ़ते और फिर काफी नीचे नीचे उतरते हुए हम लोग कब जंगल को पार कर आए बहुत पता नहीं चला . बीच बीड में किसी जानवर से सामना होने की आशंका ने कुछ डराया भी लेकिन साथ में अनुभवी गाइड था इसलिये आशंका ही रही भय तक बात नही पहुँच सकी .कुछ देर बाद हम भागसूनाग मन्दिर पहुँच गए . चारु के माता--पिता ट्रैकिंग नही कर सकते थे इसलिये वे मैकलॉडगंज से सीधे ही वहाँ पहुँच गए .सच कहूँ तो इतना चलने के बाद मिला यह स्थान मुझे केवल धार्मिक दृष्टि से ही महत्त्वपूर्ण लगा . हिमाचल में जहाँ पग पग पर सृष्टि-सौन्दर्य बिखरा पड़ा है उस दृष्टि से यहाँ जाकर कुछ निराश हुआ जा सकता है .
समुद्रतल से1765 मीटर की ऊँचाई पर स्थित यह मन्दिर मुख्य रूप से नागदेवता का है .साथ ही शिव हनुमान गणेश व दुर्गा जी की भी प्रतिमाएं हैं . यहाँ सुन्दर जलाशय और उससे पाँच धाराओं में बहते झरने हैं . इस मन्दिर का निर्माण द्वापर काल में हुआ बताते हैं . इसके निर्माण की वहाँ कथा भी लिखी है जिसके अनुसार भागसू नामक राजा अपनी प्रजा को प्यास और अकाल से बचाने नागों की झील का सारा पानी एक कमण्डल में भर लाया . इससे नाग नाराज होगये . उन्होंने राजा पर हमला कर दिया और परास्त कर दिया . युद्ध के दौरान जल भरा कमण्डल लुढ़क गया उसी जल से यह जलाशय बना जिसे अमृतकुण्ड कहा जाता है .  

जारी......... 

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (16-04-2019) को "तुरुप का पत्ता" (चर्चा अंक-3307) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. एक बार बहुत बहुत साल पहले काँगड़ा तो जाना हुआ था माता के दर्शन के लिए पर धर्मशाला नहीं हंस पाए थे जिसका मलाल हमेशा रहता है माँ में ... सुना है ख़ूबसूरती कि मिसाल है ...

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  3. आपका यात्रा विवरण पढ़कर हिमालय भ्रमण की आकांक्षा तीव्र होती है

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