माँ का सुनाया एक अविस्मरणीय संस्मरण
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"उन दिनों स्कूल लगभग आठ घंटे लगता था । सुबह से दोपहर की पाली में और फिर तीन से चार घंटे शाम को "--एक दिन मेरे आग्रह पर माँ ने जब अपने स्कूल के दिनों को याद करते हुए बताया तो बचपन जैसे उनकी आँखों में साकार हो उठा ।
"यह सन् 1946-47 के आसपासकी बात है । तब मध्यप्रदेश को मध्यभारत कहा जाता था । ग्वालियर में सिन्धिया जी का राज था । गाँवों की व्यवस्था जमींदारों के हाथों में थीं ."
वे उल्लास सहित बताने लगीं---
"हमारे गुरुजी पं. छोटेलाल जी थे । पाँच या दस रुपए वेतन मिलता था । कच्ची ,लेकिन लिपी-पुती और एकदम साफ-सुथरी खपरैल( पाटौर) हमारी पाठशाला थी जिसकी दीवारों पर खुद गुरुजी ने ही रंगों से वर्णमाला ,पक्षी फूल फल और पशुओं को अंकित किया था । दिशाओं की सही जानकारी के लिये चारों दीवारों पर दिशाओं के हिसाब से बडे अक्षरों में पूरब,पश्चिम,उत्तर व दक्षिण लिख दिया गया था । वैसे दिशाओं ज्ञान वे एक बडे आसान तरीके से कराते थे कि सुबह के समय जब हमारा मुख सूरज की ओर होता है तब हमारी पीठ पश्चिम की तरफ होती है ,बाँया हाथ उत्तर में और दाँया हाथ दक्षिण की ओर होता है । शाम को ठीक इसके विपरीत होता है यानी मुख पश्चिम की ओर तो पीठ पूरब की ओर...।
झकाझक सफेद कमीज और धोती पहने ,माथे पर रोली का तिलक लगा ,पैरों में खडाऊँ डाले जब पंडित जी शाला में आते थे तो हम सब उनके सम्मान में एक साथ खडे होजाते थे , मानो इतनी देर से हम केवल खड़े होने के लिये ही बैठे थे । लगभग पन्द्रह मिनट ईश-विनय होती और फिर गुरुजी सबके ,कपडों ,बालों दाँतों व नाखूनों का निरीक्षण करते थे । वैसे तो वे हमारे साथ जमीन पर ही बैठ कर बड़े प्रेम से हर चीज समझाते थे लेकिन निर्देश के अनुसार काम न मिलने पर सजा के लिये उनके पास पतली हरी संटी भी रहती थी जो हथेली पर पड़ने से पहले ही सांय की आवाज से मन में दहशत भर देती थी और इसमें सन्देह नही कि वह दहशत समय पर काम पूरा करने में सहायक ही होती थी ।
इसके बाद सबकी पट्टियों व सुलेख की जाँच होती थी । उस समय स्लेट भी नही थी । काठ की बड़ी-बड़ी पट्टियाँ ही स्लेट का काम देतीं तीं जिन्हें कालिख से पोत कर काँच से घिस-घिसकर चमकाना भी एक जरूरी काम था । सरकंडे से खुद अपनी कलम बनानी होती थी । गुरुजी पहले ही सिखा देते थे कि बडे अक्षरों के लिये नोंक कितनी चौड़ी हो और छोटे अक्षरों के लिये कितनी पतली । खड़िया के घोल में कलम डुबाकर पट्टी पर सफाई व सुघड़ता से लिखना होता था वरना गुरूजी की संटी को सक्रिय होने में देर नही लगती थी । साफ सुन्दर और शुद्ध लेखन तब पढाई की पहली की पहली शर्त हुआ करता था ।
सुबह के चार घंटों में केवल हिन्दी, व सामाजिक अध्ययन पढाया जाता था । हिन्दी में व्यंजनों व मात्राओं के उच्चारण पर विशेष ध्यान दिया जाता था । 'श' की जगह 'स' या व'' की जगह 'ब' जैसी गलतियों को वे बिल्कुल बर्दाश्त नही करते थे । मात्राओं के उच्चारण में वे हमारी ही नही अपनी भी दम निकाल लेते थे । 'क' पर 'आ' की मात्रा लगाने पर वे पूरा मुँह खोलकर बुलवाते--"-काssss" । फिर 'इ' की मात्रा पर झटके से रुकते --'कि' । फिर 'ई' की मात्रा पर वही लम्बा स्वर होता --"कीssss" । और इस तरह मात्राओं के गलत होने का सवाल ही नही था । इतिहास को वे कहानी की सुनाते थे और भूगोल को नक्शों, माडलों से या बाहर नदी और मैदान में जाकर, पहाड़ दिखाकर पढ़ाते थे । ग्राफ द्वारा वे भारत का नक्शा इतनी अच्छी तरह बनवाते थे कि न तो कच्छ की खाड़ी में कोई गलती होती न ही पूर्वांचल की सीमाओं में । अन्त में वे इबारत लिखवाते या कोई व्यावहारिक कार्य करवाते जैसे तकली चलाना ,नारियल के खोखले के टुकडों को घिस कर बटन बनाना या गीली मिट्टी से फलों व सब्जियों के माडल व कौड़ियाँ बनाना । सुबह की पाली दोपहर खत्म होजाती थी ।
"और फिर दूसरी पाली ?"
"उन दिनों स्कूल लगभग आठ घंटे लगता था । सुबह से दोपहर की पाली में और फिर तीन से चार घंटे शाम को "--एक दिन मेरे आग्रह पर माँ ने जब अपने स्कूल के दिनों को याद करते हुए बताया तो बचपन जैसे उनकी आँखों में साकार हो उठा ।
"यह सन् 1946-47 के आसपासकी बात है । तब मध्यप्रदेश को मध्यभारत कहा जाता था । ग्वालियर में सिन्धिया जी का राज था । गाँवों की व्यवस्था जमींदारों के हाथों में थीं ."
वे उल्लास सहित बताने लगीं---
"हमारे गुरुजी पं. छोटेलाल जी थे । पाँच या दस रुपए वेतन मिलता था । कच्ची ,लेकिन लिपी-पुती और एकदम साफ-सुथरी खपरैल( पाटौर) हमारी पाठशाला थी जिसकी दीवारों पर खुद गुरुजी ने ही रंगों से वर्णमाला ,पक्षी फूल फल और पशुओं को अंकित किया था । दिशाओं की सही जानकारी के लिये चारों दीवारों पर दिशाओं के हिसाब से बडे अक्षरों में पूरब,पश्चिम,उत्तर व दक्षिण लिख दिया गया था । वैसे दिशाओं ज्ञान वे एक बडे आसान तरीके से कराते थे कि सुबह के समय जब हमारा मुख सूरज की ओर होता है तब हमारी पीठ पश्चिम की तरफ होती है ,बाँया हाथ उत्तर में और दाँया हाथ दक्षिण की ओर होता है । शाम को ठीक इसके विपरीत होता है यानी मुख पश्चिम की ओर तो पीठ पूरब की ओर...।
झकाझक सफेद कमीज और धोती पहने ,माथे पर रोली का तिलक लगा ,पैरों में खडाऊँ डाले जब पंडित जी शाला में आते थे तो हम सब उनके सम्मान में एक साथ खडे होजाते थे , मानो इतनी देर से हम केवल खड़े होने के लिये ही बैठे थे । लगभग पन्द्रह मिनट ईश-विनय होती और फिर गुरुजी सबके ,कपडों ,बालों दाँतों व नाखूनों का निरीक्षण करते थे । वैसे तो वे हमारे साथ जमीन पर ही बैठ कर बड़े प्रेम से हर चीज समझाते थे लेकिन निर्देश के अनुसार काम न मिलने पर सजा के लिये उनके पास पतली हरी संटी भी रहती थी जो हथेली पर पड़ने से पहले ही सांय की आवाज से मन में दहशत भर देती थी और इसमें सन्देह नही कि वह दहशत समय पर काम पूरा करने में सहायक ही होती थी ।
इसके बाद सबकी पट्टियों व सुलेख की जाँच होती थी । उस समय स्लेट भी नही थी । काठ की बड़ी-बड़ी पट्टियाँ ही स्लेट का काम देतीं तीं जिन्हें कालिख से पोत कर काँच से घिस-घिसकर चमकाना भी एक जरूरी काम था । सरकंडे से खुद अपनी कलम बनानी होती थी । गुरुजी पहले ही सिखा देते थे कि बडे अक्षरों के लिये नोंक कितनी चौड़ी हो और छोटे अक्षरों के लिये कितनी पतली । खड़िया के घोल में कलम डुबाकर पट्टी पर सफाई व सुघड़ता से लिखना होता था वरना गुरूजी की संटी को सक्रिय होने में देर नही लगती थी । साफ सुन्दर और शुद्ध लेखन तब पढाई की पहली की पहली शर्त हुआ करता था ।
सुबह के चार घंटों में केवल हिन्दी, व सामाजिक अध्ययन पढाया जाता था । हिन्दी में व्यंजनों व मात्राओं के उच्चारण पर विशेष ध्यान दिया जाता था । 'श' की जगह 'स' या व'' की जगह 'ब' जैसी गलतियों को वे बिल्कुल बर्दाश्त नही करते थे । मात्राओं के उच्चारण में वे हमारी ही नही अपनी भी दम निकाल लेते थे । 'क' पर 'आ' की मात्रा लगाने पर वे पूरा मुँह खोलकर बुलवाते--"-काssss" । फिर 'इ' की मात्रा पर झटके से रुकते --'कि' । फिर 'ई' की मात्रा पर वही लम्बा स्वर होता --"कीssss" । और इस तरह मात्राओं के गलत होने का सवाल ही नही था । इतिहास को वे कहानी की सुनाते थे और भूगोल को नक्शों, माडलों से या बाहर नदी और मैदान में जाकर, पहाड़ दिखाकर पढ़ाते थे । ग्राफ द्वारा वे भारत का नक्शा इतनी अच्छी तरह बनवाते थे कि न तो कच्छ की खाड़ी में कोई गलती होती न ही पूर्वांचल की सीमाओं में । अन्त में वे इबारत लिखवाते या कोई व्यावहारिक कार्य करवाते जैसे तकली चलाना ,नारियल के खोखले के टुकडों को घिस कर बटन बनाना या गीली मिट्टी से फलों व सब्जियों के माडल व कौड़ियाँ बनाना । सुबह की पाली दोपहर खत्म होजाती थी ।
"और फिर दूसरी पाली ?"
ऐसी निराली पाठशाला के बारे में और भी जानने की मेरी उत्कण्ठा बढ़ गई तो माँ भी दुगने उत्साह से बताने लगीं---"दूसरी पाली चार बजे शुरु होजाती थी । बीच में मिले विराम में पंडितजी खाना बनाते--खाते और हम जुट जाते अपनी पट्टियाँ चमकाने में । शाम की पाली होती थी गणित व खेलों की । गिनती ,पहाडे, पाव ,पौना ,ड्यौढा सब कण्ठस्थ करने होते थे और बेसिक सवाल (जोड. बाकी,गुणा,भाग )अधिकतर मौखिक ही होते थे जैसे कि 'सत्रह में क्या जोडें कि पच्चीस होजाएं ?'या कि 'तीन किताबें चौबीस रुपए की तो पाँच किताबों का मूल्य क्या होगा ?' केवल बड़े और कठिन सवाल ही स्लेट या कापी में करने होते थे ।
पी.टी. करवाते समय जब वो कड़क आवाज में सावधान कहते तो लगता कि एक पखेरुओं का झुण्ड साथ पंख फड़फड़ाकर उड़ने तैयार हो । खेलों में खो,खो कबड्डी ,रूमालझपट,कोडामार और कुक्कुट युद्ध जैसे अनेक खेल होते थे । शाम पाँच-छह बजे छुट्टी मिल जाती थी । पंडितजी दिशा-मैदान चले जाते और हम पूरी तरह आजाद ।
रात में भी दो घंटे पंडित जी की पाठशाला चलती थी । तब वे लोग पढ़ते थे जो खेती के कामकाज या गाय-भैंसचराने के कारण दिन में नही पढ़ पाते थे । पंडितजी को वेतन मात्र कामचलाऊ ही मिलता था . प्रसिद्धि की उन्हें कोई लालसा नहीं थी . वे अपने काम को ईश्वर की पूजा का ही एक रूप कहते थे और पूरी लगन व ईमानदारी से करते थे लेकिन उन्होंने जो कमाया उसके आगे रुपया पैसा सब बेकार है .आज भी आदर्श शिक्षक के रूप में उन्हीं का नाम लिया जाता है गाँव में . ...
और कुछ लोग तो.....माँ कुछ रुकीं और मुस्करा कर बहत्तर वर्षीय देवीराम को देखा जो अचानक हमारे वार्तालाप को सुनकर आ खडे हुए थे । वे माँ के सहपाठी रहे थे । उन्हें देखकर माँ पुलक के साथ बोलीं---"-हाँ मैं कह रही थी कि उनके कुछ शिष्य तो आज भी उनके नाम से थरथराते हैं । क्यों देवी भैया !"
देवीराम आदर ,लज्जा व बचपन की यादों की मिठास से भर उठे । माँ कहने लगीं---"देवी भैया कक्षा के सबसे फिसड्डी छात्र थे । इन्हें कई बार समझाने पर भी कुछ याद नही होता था । कभी सबक पूरा करके नही लाते थे । बस कभी 'पंडी इक्की जाऊँ ?'तो कभी 'दुक्की जाऊँ' रटते रहते थे । ( इक्की, दुक्की का प्रयोग क्रमशः पेशाब जाने व शौच जाने के लिये होता था ) इतना कहते कहते माँ की हँसी फूट पडी । मैंने देखा उनके चेहरे की झुर्रियाँ कहीं गायब होगईं हैं ।
"तब सबक याद न करने पर तुम्हारी कितनी पिटाई होती थी भैया । याद है ?"
"सब याद है, बाईसाब ,सब याद है ।"-- देवीराम जैसे किसी स्वप्न संसार की सैर कर रहे थे----"वे क्या दिन थे ! अब कहाँ वैसी पढाई और कहाँ वैसा सनेह ! वह तो मार भी अच्छी थी । उसी मार के कारण मुझ जैसा निखट्टू भी उँगलियों पर हिसाब करना सीख गया था । और सारे सबक तो मुझे ऐसे रट गए कि आज तक नही भूला । आज भी पूरा याद है । "
"कौनसे सबक ?"---मेरी जिज्ञासा जागी ।
"अरे हाँ पुस्तक के पाठ, इबारत और कठिन शब्द लिखते-पढते हम सबको याद भी होजाते थे । केवल देवीराम भैया को ही याद नही होते थे । पर एक दिन इन्होंने सारे सबक एक साथ गुरूजी को सुना दिये तब हँसते-हँसते उन्होंने इनकी पीठ खूब ठोकी थी और एक दुअन्नी इनाम भी दी थी । तो फिर आज वह सारा कंठस्थ सबक सुना ही दो भैया ।"--माँ ने आग्रह किया । मैंने माँ की बात एक बार और दोहराई । तब बहत्तर साल के देवीराम ने बारह साल के छात्र की तरह सावधान मुद्रा में खडे होकर वह सबक सुनाया--- तीन अच्छरों के शब्द जैसे बतख, महल,नगर...चार अक्षर के शब्द जैसे खटमल, अजगर, ...माला-काला, पानी-नानी, सूप-धूप ,मेला-ठेला-केला ...पीतल का रंग पीला होता है ,नीम कडवा होता है, बतासा मीठा होता है ,सडा फल मत खा, रोज दाँतों में मंजन कर , झूठ मत बोल, लज्जा नारी का भूषण होता है , गिद्ध की निगाह तेज होती है ,बर्र का डंक जहरीला होता है , मच्छर के काटने से मलेरिया होता है ,गन्दा पानी इकट्ठा मत होने दो ,पेड मत काटो ,जीवों पर दया कर, ठठ्ठा मत कर , सुबह घूमना अच्छा होता है , चोरी करना बुरी बात है मीठा खाने से दाँतों में कीडा लगता है ,मिले अच्छर याद कर जैसे--डुग्गी ,घुग्घू, झझ्झर, मच्छर, कंकड , जैसे--गिद्ध, डिब्बा, कुप्पा ...ड्यौढा एकम् ड्यौढा, ड्यौढा दूनी तीन, ड्यौढा तीय साढे चार.....एकन पन्द्रह, दूनी तीस, तिय पैंतालीस ,चौके साठ......
सबक चल रहा था लगातार बिना साँस लिये । पूर्ण विराम तो दूर कहीं अल्प-विराम भी नही । हम सबकी हँसी दबे-दबे ठहाकों में बदल गई थी पर देवीराम पूरी गंभीरता व सजगता के साथ अपना सबक सुनाए जारहे थे मानो किसी छात्र को बीच में ध्यान बंग होजाने पर सबक भूल जाने का डर हो ,भूल जाने पर गुरुजी की नाराजी का डर हो या कि वह भी दिखा देना चाहता हो कि सबक याद करने में वह किसी से कम नही है ।
आज समय और परिवेश के साथ शिक्षक व शिक्षा के अर्थ ही बदल गए हैं
पी.टी. करवाते समय जब वो कड़क आवाज में सावधान कहते तो लगता कि एक पखेरुओं का झुण्ड साथ पंख फड़फड़ाकर उड़ने तैयार हो । खेलों में खो,खो कबड्डी ,रूमालझपट,कोडामार और कुक्कुट युद्ध जैसे अनेक खेल होते थे । शाम पाँच-छह बजे छुट्टी मिल जाती थी । पंडितजी दिशा-मैदान चले जाते और हम पूरी तरह आजाद ।
रात में भी दो घंटे पंडित जी की पाठशाला चलती थी । तब वे लोग पढ़ते थे जो खेती के कामकाज या गाय-भैंसचराने के कारण दिन में नही पढ़ पाते थे । पंडितजी को वेतन मात्र कामचलाऊ ही मिलता था . प्रसिद्धि की उन्हें कोई लालसा नहीं थी . वे अपने काम को ईश्वर की पूजा का ही एक रूप कहते थे और पूरी लगन व ईमानदारी से करते थे लेकिन उन्होंने जो कमाया उसके आगे रुपया पैसा सब बेकार है .आज भी आदर्श शिक्षक के रूप में उन्हीं का नाम लिया जाता है गाँव में . ...
और कुछ लोग तो.....माँ कुछ रुकीं और मुस्करा कर बहत्तर वर्षीय देवीराम को देखा जो अचानक हमारे वार्तालाप को सुनकर आ खडे हुए थे । वे माँ के सहपाठी रहे थे । उन्हें देखकर माँ पुलक के साथ बोलीं---"-हाँ मैं कह रही थी कि उनके कुछ शिष्य तो आज भी उनके नाम से थरथराते हैं । क्यों देवी भैया !"
देवीराम आदर ,लज्जा व बचपन की यादों की मिठास से भर उठे । माँ कहने लगीं---"देवी भैया कक्षा के सबसे फिसड्डी छात्र थे । इन्हें कई बार समझाने पर भी कुछ याद नही होता था । कभी सबक पूरा करके नही लाते थे । बस कभी 'पंडी इक्की जाऊँ ?'तो कभी 'दुक्की जाऊँ' रटते रहते थे । ( इक्की, दुक्की का प्रयोग क्रमशः पेशाब जाने व शौच जाने के लिये होता था ) इतना कहते कहते माँ की हँसी फूट पडी । मैंने देखा उनके चेहरे की झुर्रियाँ कहीं गायब होगईं हैं ।
"तब सबक याद न करने पर तुम्हारी कितनी पिटाई होती थी भैया । याद है ?"
"सब याद है, बाईसाब ,सब याद है ।"-- देवीराम जैसे किसी स्वप्न संसार की सैर कर रहे थे----"वे क्या दिन थे ! अब कहाँ वैसी पढाई और कहाँ वैसा सनेह ! वह तो मार भी अच्छी थी । उसी मार के कारण मुझ जैसा निखट्टू भी उँगलियों पर हिसाब करना सीख गया था । और सारे सबक तो मुझे ऐसे रट गए कि आज तक नही भूला । आज भी पूरा याद है । "
"कौनसे सबक ?"---मेरी जिज्ञासा जागी ।
"अरे हाँ पुस्तक के पाठ, इबारत और कठिन शब्द लिखते-पढते हम सबको याद भी होजाते थे । केवल देवीराम भैया को ही याद नही होते थे । पर एक दिन इन्होंने सारे सबक एक साथ गुरूजी को सुना दिये तब हँसते-हँसते उन्होंने इनकी पीठ खूब ठोकी थी और एक दुअन्नी इनाम भी दी थी । तो फिर आज वह सारा कंठस्थ सबक सुना ही दो भैया ।"--माँ ने आग्रह किया । मैंने माँ की बात एक बार और दोहराई । तब बहत्तर साल के देवीराम ने बारह साल के छात्र की तरह सावधान मुद्रा में खडे होकर वह सबक सुनाया--- तीन अच्छरों के शब्द जैसे बतख, महल,नगर...चार अक्षर के शब्द जैसे खटमल, अजगर, ...माला-काला, पानी-नानी, सूप-धूप ,मेला-ठेला-केला ...पीतल का रंग पीला होता है ,नीम कडवा होता है, बतासा मीठा होता है ,सडा फल मत खा, रोज दाँतों में मंजन कर , झूठ मत बोल, लज्जा नारी का भूषण होता है , गिद्ध की निगाह तेज होती है ,बर्र का डंक जहरीला होता है , मच्छर के काटने से मलेरिया होता है ,गन्दा पानी इकट्ठा मत होने दो ,पेड मत काटो ,जीवों पर दया कर, ठठ्ठा मत कर , सुबह घूमना अच्छा होता है , चोरी करना बुरी बात है मीठा खाने से दाँतों में कीडा लगता है ,मिले अच्छर याद कर जैसे--डुग्गी ,घुग्घू, झझ्झर, मच्छर, कंकड , जैसे--गिद्ध, डिब्बा, कुप्पा ...ड्यौढा एकम् ड्यौढा, ड्यौढा दूनी तीन, ड्यौढा तीय साढे चार.....एकन पन्द्रह, दूनी तीस, तिय पैंतालीस ,चौके साठ......
सबक चल रहा था लगातार बिना साँस लिये । पूर्ण विराम तो दूर कहीं अल्प-विराम भी नही । हम सबकी हँसी दबे-दबे ठहाकों में बदल गई थी पर देवीराम पूरी गंभीरता व सजगता के साथ अपना सबक सुनाए जारहे थे मानो किसी छात्र को बीच में ध्यान बंग होजाने पर सबक भूल जाने का डर हो ,भूल जाने पर गुरुजी की नाराजी का डर हो या कि वह भी दिखा देना चाहता हो कि सबक याद करने में वह किसी से कम नही है ।
आज समय और परिवेश के साथ शिक्षक व शिक्षा के अर्थ ही बदल गए हैं
अत्यंत रोचक संस्मरण
जवाब देंहटाएंसुंदर संस्मरण।
जवाब देंहटाएंवाह !!! संस्मरण पढ़ कर आनंद आ गया ।
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