मयंक के हाथों साकार हुई आस्था |
लगभग दस-ग्यारह दिन की धूमधाम के बाद आज शिव पार्वती के लाड़ले गणपति के उत्सव का समापन हो गया है ..गलियाँ सूनी और शान्त होगई हैं . पर्व और त्यौहार हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग हैं . आस्था व भक्तिभाव के साथ ऐसे आयोजन जीवन की एकरसता को मिटाकर नया उत्साह व ऊर्जा का संचार करते हैं . गणेश तो वैसे भी मोद और मोदक के देव हैं . तो आयोजन भी आनन्द व उल्लासपूर्ण होते हैं ,इसलिये आवश्यक भी हैं . मुझे याद है उन दिनों की है जब मुझे पर्व और त्यौहारों की बड़ी उल्लासमय प्रतीक्षा रहती थी । यह उल्लास बचपन के कारण था या अनूठे उत्सव-आयोजनों के कारण यह पूरी तरह अलग करके तो नही कह सकती लेकिन इसमें कोई सन्देह नही कि उन दिनों हमारे गाँव में हर त्यौहार को मनाने के लिये विशेष तैयारियाँ होतीं थी । चाहे होली हो , दशहरा हो ,कृष्ण-जन्माष्टमी हो या गणेश-उत्सव ।
गणेश-उत्सव के आठ दिनों की झाँकियों की योजना बहुत पहले ही तैयार कर ली जाती थी जिसके निर्माता--निर्देशक ताऊजी ही होते थे । उनके द्वारा तैयार की गई झाँकियाँ अदुभुत हुआ करती थीं । जैसे एक बार उन्होंने कैलाश पर ध्यानमग्न शिव की झाँकी सजाई ।" शिवजी निराधार बैठे ध्यान मग्न हैं ।( ध्यान रहे कि शिव प्रतिमारूप नही बल्कि सजीव हैं । किशोर भैया से छोटे देवेन्द्र को शिव के रूप में इतनी कलात्मकता से सजाया गया कि देखने वाले मंत्र-मुग्ध हुए देखते ही रह गए थे और लगभग बारह वर्ष के देबू भाई का आँखें बन्द कर घंटों तक शान्त व निश्चल बैठे रहना भी कम आश्चर्य नही था ) जटाओं से गंग-धार फूट रही है । उनका धरती से स्पर्श केवल फर्श में गड़े त्रिशूल के द्वारा है,जिसे उन्होंने थाम रखा है । चकित दर्शक आजू-बाजू झाँकते हैं कि आखिर शिवजी अधर में बैठे किस तरह है ।"
हर दिन एक नई और अनूठी झाँकी होती थी । कभी भगवान विष्णु के क्षीरसागर-शयन की कभी माखनचोरी की तो कभी खेत में बीज बोते किसान-दम्पत्ति की ।
आरती व प्रसाद के बाद भजन गाए जाते थे । उन दिनों गाँव में गाँव के ही बहुत अच्छा गाने-बजाने वालों की भजन-मण्डली थी दो-चार लोग बाहर से भी आजाते थे । और श्रोता भी कम रस-मर्मज्ञ नही थे । ताल और मात्राओं की जरा सी गलती पकड़ लेते थे । हम लोग आतुरता से इस त्यौहार की प्रतीक्षा करते थे .
लेकिन जबसे धर्म में राजनीति ने प्रवेश लिया है
ये या तो आयोजन प्रदर्शन और गुटबाजी का हिस्सा बन गए हैं या अमर्यादित मौजमस्ती का
. धर्म के नाम पर नियमों , दायित्त्वबोध और नैतिकता को ताक पर रख दिया जाता है . भजनों
के नाम पर माइक पर पैरोडियाँ बजाना शराब पीना ,हुल्लड़बाजी करना इन आयोजनों का एक खराब
पक्ष है . वास्तव में लाउडस्पीकर का उपयोग जब तक बहुत ज़रूरी न हो ,नहीं होना
चाहिये . आप आराधना इबादत अपने लिये कर रहे हैं दूसरों के लिये नहीं . लेकिन हमारे
यहाँ इस बात का ध्यान रखा ही नहीं जाता . जन्मदिन की पार्टी हो , शादी या फिर
धार्मिक कार्यक्रम हों लाउडस्पीकर पर रात रात भर गीत चलाए जाते हैं . अगर कोई
आपत्ति करे तो ,'खुशी बर्दाश्त नहीं होती' या 'धर्मविरोधी' होने का आरोप लग जाता है . मोहल्ले
में एक महिला ने ,जब मैंने कहा कि गीत बजालो पर धीमी आवाज में , बच्चे पढ़ रहे हैं
सीधा मेरे मुँह पर आपना ज्ञान दे मारा –“थोड़ा धर्म को भी माना करो मैडम ,तुम
बच्चों को क्या सिखाती होगी ..”
मुझे मालूम था कि इससे
बहस का कोई लाभ नहीं ,पर यह अफसोस की बात है कि ऐसे कथित धार्मिकों ने हमारे धर्म
को बदनाम तो कर रखा है .लोगों को समझना होगा कि धार्मिक
आयोजन केवल दिखावे या मौज मस्ती के लिये नहीं होते , नहीं होना चाहिये . देवी दुर्गा
,भगवान शिव, मर्यादा पुरषोत्तम राम , लीलाधर कृष्ण , विघ्नेश्वर भगवान गणेश ...सभी
हमें जीने की राह बताते हैं .आस्था और विश्वास देते हैं . दिखावा या नियम विरुद्ध आचरण
नहीं . रात रात भर ( दिन में भी ) तेज आवाज में गाने बजाना , कार्यक्रमों के लिये रास्तों
का अतिक्रमण करना , शराब पीकर हुल्लड़ करना नियम विरुद्ध आचरण है कोरा दिखावा है .
उन्माद में लोग प्राणों से भी हाथ धो बैठते हैं .अभी हरियाणा और उत्तर प्रदेश में
ऐसा हुआ भी है .
गणपति विसर्जन के समय गाते हैं –गणपति बप्पा मोरया , अगले बरस तू जल्दी आ ..मैं कहती हूँ हे देव अगले बरस आकर अपने भक्तों को समझाना भी कि उत्सव के साथ साथ सामाजिक शान्ति और नियमों का ध्यान भी रखना ज़रूरी है और अपने अनमोल प्राणों का भी .
कितना सही कहा रही हैं आप, विघ्नेश्वर भगवान गणेश हमें जीने की राह बताते हैं .आस्था और विश्वास देते हैं . दिखावा या नियम विरुद्ध आचरण करने को नहीं कहते। यदि पूजा कमेटी में ताऊ जी की तरह कोई सच्चा भक्त भी शामिल हो तो ऐसा हो सकता है
जवाब देंहटाएंबहुत आभार अनीता जी
हटाएंआज उत्सवों के नाम पर जो भोंडा प्रदर्शन हो रहा है उस पर ध्यान इंगित करती शानदार पोस्ट ।
जवाब देंहटाएंउत्सव के साथ साथ सामाजिक शान्ति और नियमों का ध्यान भी रखना ज़रूरी है और अपने अनमोल प्राणों का भी .
बहुत आभार संगीता जी
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना सोमवार 12 सितम्बर ,2022 को
जवाब देंहटाएंपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
गणपति विसर्जन के समय गाते हैं –गणपति बप्पा मोरया , अगले बरस तू जल्दी आ ..मैं कहती हूँ हे देव अगले बरस आकर अपने भक्तों को समझाना भी कि उत्सव के साथ साथ सामाजिक शान्ति और नियमों का ध्यान भी रखना ज़रूरी है और अपने अनमोल प्राणों का भी .... गिरीजा बेहतरीन आवाज ऐसे कई सवाल मन में उठते हैं धार्मिक आयोजनों के नाम पर सिर्फ हल्ला - बोला दिखावा ....उत्तम प्रयास लेखनी में बहुत ताकत होती है .... हम सब को कुछ आडम्बरों के परति समाज में जागरूकता फैलानी आवश्यक है ...
जवाब देंहटाएंआस्था की आड़ में केवल अराजकता का बोलबाला हो गया है। जो खुद नहीं समझेंगे उन्हें गणपति भी शायद समझा नहीं पायेंगे।
जवाब देंहटाएंसच कहा अमृता जी
हटाएंसच में श्रद्धा भी विवेकपूर्ण होनी चाहिए…ऐसी भी क्या श्रद्धा कि अपनी या दूसरे की शान्ति भंग हो या प्राणों पर बन जाए…विचारणीय पोस्ट 👌
जवाब देंहटाएंधर्म मिथ्या आडंबर और प्रदर्शन का विषय रह गया है । अध्यात्म,दर्शन, भक्ति का रूप ही बदल चुका है।
जवाब देंहटाएंबेहद सुंदर संस्मरण साथ में सार्थक संदेश भी।
जी प्रणाम
सादर।
उत्सव के नाम पर अब शोर है ,बढ़िया सच लिखा आपने
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद रंजू जी ,यहाँ आने के लिये और अपने विचार व्यक्त करने के लिये .
हटाएंआप सबका बहुत आभार कि पोस्ट पढ़कर , अपनी प्रतिक्रिया देकर मेरे विचारों को बल दिया .
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सार्थक एवं संदेशप्रद संस्मरण।
जवाब देंहटाएंसच मे ये हौ-हल्ला और फिल्मी गानों की धुन में भजन अपने धर्म और ईश्वर की प्रार्थना का मजाक नहीं तो और क्या है ।