शुक्रवार, 15 नवंबर 2024

अपना आसमान


14 नवम्बर 2024



आज बाल-दिवस है । दुनियाभर के सभी बच्चों के लिये कामना कि उनका बालपन बना रहे । समय से पहले बड़े न हों । बड़े तो उन्हें आखिर होना ही है पहले बचपन को तो पूरी तरह जी लें ।

मेरे लिये बाल दिवस के साथ मान्या-दिवस भी है । दिनांक के साथ वर्ष लिखना सकारण है क्योंकि आज मान्या ने पूर्ण नागरिक का दर्जा पा लिया है ।  

उसका जन्म जैसे कल की बात है ।

14 नवम्बर 2006 सेंट फिलोमिना हॉस्पिटल .. किसी के आने की आहट सुनने के लिये साँसें जमी हुई सी थीं । एक उमंग और आतुरता से पाँव धरती पर टिक ही नहीं पा रहे थे । एक ओर सुलक्षणा की पीड़ा की कष्टकर अनुभूति थी ,दूसरी ओर प्रतीक्षा की आकुलता । पल पल भारी हो रहा था । तभी एक साँवली सलौनी नव वयस्का परिचारिका प्रकट हुई और मुस्कराते हुए बड़ी मिठास के साथ कहा –--"कॉँग्रेचुलेशन्स ,यू हैव अ हैल्दी बेबी गर्ल ।

सुनकर रोम रोम झंकृत होगया । पहली बार नए रिश्ते बने चाचा चाची पापा मम्मी दादा और मेरे लिये सबसे प्यारी पदवी मिली--दादी । यों तो माँ बनना सबसे प्यारा अनुभव होता है लेकिन जब मैं माँ बनी थी तब (18 भी पूरे नहीं हुए थे ) माँ होने की उतनी समझ और अनुभूति नहीं थी लेकिन दादी बनने के लिये मैं पूरी तरह तैयार थी ।एक नवागन्तुक की प्रतीक्षा थी, उल्लास था । जब मान्या आई तो जीवन में एक कमी पूरी होगई बेटी की ।


बहुत सालों बाद फिर से नन्ही जान को गोद में लेने , उसमें आए हर परिवर्तन को देखने का आनन्द अनौखा था । मान्या को लेकर मैंने अनेक कविताएं लिखी हैं । एक कविता यहाँ है ,जब वह पहली बार स्कूल गई थी --  

स्कूल का पहल  दिन

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मान्या स्कूल चली
गुंजा सी खिली--खिली ।

सजधज दरवाजे पर
ज्यों भोर खड़ी उजली।

बस ढाई साल की है यह
नटखट कमाल की है यह
चंचल है मनमौजी है
अपने खयाल की है यह ।

बस्ता में भर कर सपने
मन में ले जिज्ञासाएं ।
चलती है उँगली पकडे
कल खुद खोजेगी राहें ।

जो पाठ आज सीखेगी
कल हमको सिखलाएगी
खुद अपना गीत रचेगी
अपनी लय में गाएगी । 

मान्या आज अठारह वर्ष की होगई है । अपना गीत खुद रचने और गाने की उम्र , अपना आसमान खोजने की उम्र । अब वह अपना गीत खुद लिख रही है , गा रही है ,  हमें सिखा रही है । उसने अपना आसमान खोज लिया है . अब वह इंजीनियरिंग कॉलेज में बी ई की प्रथम वर्ष की छात्रा है ।

 

बुधवार, 11 सितंबर 2024

एक गीत 11 सितम्बर 1987 का

 (सुश्री महादेवी वर्मा का प्रयाण-दिवस)

देवि  तुम्हारे लिये 

हृदय के सारे गीत

समर्पित हैं । 

भारत की भारती

काव्य-पथ युग-युग

तुमसे तुमसे सुरभित है ।

तुमने करुणा--जल पूरित

जो काव्य--तरंगिनि लहराई

विगलित भावों से जैसे

मरु में हरीतिमा मुस्काई

छू लेता है मर्म

व्यथा से अक्षर-अक्षर गुम्फित है

आज तुम्हारे लिये...।

 

ममता की प्रतिमा

पीयूष बरसातीं रहीं सदा अविरल

'घीसा', 'रामा' 'गिल्लू' 'सोना'

अमर बनाए प्रिय निश्छल

मानव ही क्यों ,

पशु-पक्षी भी कहाँ नेह से वंचित हैं

आज तुम्हारे लिये...।

 

व्यथा--वेदना विष पीकर भी

सदा सुधा बरसाया

नारी की गरिमा--ममता को

शुचि, ,साकार बनाया ।

राह बनाई जो तुमने

शुभ-संकल्पों से सज्जित है

आज तुम्हारे लिये...।

 

चली गई हो देवि

अलौकिक राहों को तुम महकाने

जीवनभर पीडा में जिसको ढूँढा

उस प्रिय को पाने ।

नीर-भरी दुःख की बदली का

जल कण-कण से अर्जित है

आज तुम्हारे लिये..।

 

करुणा जब तक होगी

और हदय में संवेदन होगा

शोभित सम्मानित तुमसे

हिन्दी-साहित्य गगन होगा

श्रद्धा के ये सुमन सजल

हे विमले ,तुमको अर्पित हैं

आज तुम्हारे लिये हदय के

सारे गीत समर्पित हैं ।

 

 

 

 

शनिवार, 24 अगस्त 2024

मैं खुश हूँ



 प्यारे नीम के पेड़

मैं खुश हूँ कि

देख पा रही हूँ तुम्हें

फिर से हरा भरा .

बीत गया बुरे सपने जैसा

वह समय

जब निर्दयता से

चला दी गयी कुल्हाड़ी तुम्हारी हरी भरी शाखों पर .

सारी टहनियाँ ,सारे पत्ते उतार दिये गये

तुम्हारे तने से ,कपड़ों की तरह .

तुम खड़े रह गए निरीह निरुपाय कबन्ध मात्र

सिसक उठीं थीं चिड़ियाँ ,गिलहरियाँ

मेरे हृदय की तरह .

जैसे उजड़ गया मेरा भी

आश्रय पिता के साये जैसा .

 

लेकिन खुश हूँ ,

कि तुम पहले से अधिक

सघन हरीतिमा के साथ लिये फैल रहे हो,

मेरे रोम रोम में उल्लास बनकर .

जैसे हँस रहे हों

कुल्हाड़ी वाले हाथों की नीयत पर

खुश हूँ कि तुम्हारे कोमल

अरुणाभ पल्लव ऊर्जा की चमक लिये

मुस्करा रहे हैं ,

एक उम्मीद जैसे .

कि ठूँठ होजाने पर भी

ज़मीन से जुड़ा एक पेड़

नहीं छोड़ता पल्लवित होना ,

सीख रही हूँ तुमसे मैं भी ऐसा ही कुछ .

खुश हूँ कि ,

आत्मविश्वास से भरी हुई

तुम्हारी घनी टहनियाँ और पत्ते .

रोकने में समर्थ हैं ,

चिलचिलाती कण कण झुलसाती

धूप का आतंक ,

निश्शंक  हवाओं का ज़हर

और कहर साँसों पर .

बहुत खुश हूँ

मेरे नीम के पेड़

कि तुम हो मेरे आँगन में ,

मेरे पिता की तरह

एक गुरु की तरह

और एक माँ की तरह भी .

शनिवार, 13 जुलाई 2024

पलायन

 पलायन

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मैं कभी कभी सोचती हूँ कि

मुझे मिलना चाहिये कभी खुद से भी .

आमतौर पर मैं नहीं मिलती .

रहती हूँ दूर दूर ही .

खुद से मिलकर मुझे

खुशी नही होती जरा भी .

खेद होता है देखकर कि

मैं असल में जी रही हूँ हवाओं में

जबरन हँसती रहती हूँ

सुनकर बेमतलब के चुटकुले .

पाले हूँ खूबसूरती का अहसास

दूसरों के दर्पण में .

इन्तज़ार करती हूँ

बेवज़ह उसका

जिसने आज तक

तारीख तय नहीं की

अपने आने की .

भूली-भटकी सी मैं

वक्त गुज़ारती रहती हूँ

दूर आसमान में

किसी तारे को देखते हुए .

सुना था कभी कि खुद से मिलना

मिलना है जगत-जीवन की सच्चाई से ,

पर मैं घबराती हूँ

एक गहरी अँधेरी सुरंग में जाने से .

मोती पाने की उत्कट लालसा होने के बाबज़ूद

डरती हूँ डूबने से

और मुँह मोड़कर लौट जाती हूँ

खुद के पास आकर

अपने लिये ही परायी मैं

आज तक नहीं मिल सकी हूँ

गले लगकर खुद से  .

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गुरुवार, 6 जून 2024

पुस्तक विमोचन --मनमर्जी का आनन्द भी और संकट भी

फुनगियों पर डेरा से अब आप अपरिचित नहीं होंगे ,ऐसा मैंने मान लिया है फिर भी पुनः बता देती हूँ यह श्वेतवर्णा से सद्यप्रकाशित पुस्तक है जो अर्चना चावजी के विचार और वन्दना अवस्थी की प्रेरणा से साकार हुए समूह गाओ गुनगुनाओ शौक से की सात वर्षीय गतिविधियों का लेखा है . समूह का नाम बेशक गीत गाने गुनगुनाने को ही प्रस्तुत करता है लेकिन उसमें तमाम अन्य गतिविधियाँ ( चित्र ,कविता , गीत ,संस्मरण , पत्र लेखन लघुकथाएं आदि )भी चलती रही है इसलिये यह पुस्तक साधारण नहीं बल्कि विविध कलाओं में विशिष्टता पाई साहित्यकार व ब्लागर सखियों की रचनात्मकता का विशिष्ट उदाहरण है .

अर्चना की इच्छा व ऋता पूजा व सभी विदुषियों के सम्मिलित प्रयास से किताब प्रकाशित तो होगई . सबको भिजवा भी दी गई लेकिन अर्चना और हम सभी के मन में उसके विमोचन की प्रबल चाह अभी शेष थी . विचार तो यह था कि किसी ऐतिहासिक या ऐसी जगह जहाँ सभी जाना चाहें सब पहुँचकर इस कार्य को अंजाम दें पर वह संभव नहीं हो पाया . क्योंकि मैं , ऋता शेखर और अर्चना फिलहाल बैंगलोर में ही हैं इसलिये हमने तय किया कि तीनों ही सबको ऑनलाइन बुलाकर विमोचन सम्पन्न करें . उसके लिये जगह तय करने में एक सप्ताह लगा . तय हुआ कि क्यों न हम किसी पार्क के सुहाने वातावरण में इस कार्य को सम्पन्न करें . इसके लिये कब्बन पार्क को चुना . दिनांक 2 जून 2024 को हम पूरी तैयारी के साथ कब्बन पार्क में पहुँच गईं . रविवार होने के कारण पार्क  में बहुत भीड़ थी . एक बार तो लगा कि हमने जगह चुनने में गलती करदी . लेकिन एक जगह हमने अपना आसन लगा ही लिया . ऋता को ऐसी व्यवस्थाओं में बड़ी महारत हासिल है . विमोचन के लिये सारी आवश्यक वस्तुएं सरस्वती जी की तस्वीर फूल रोली चन्दन आदि ऋता ही लेकर आईँ . तीन बजे समूह की सभी विदुषी सखियाँ ऑनलाइन उपस्थित हुईं . कुछ सखियाँ कारण वश नहीं आ सकीं , निश्चित ही उनकी कमी बहुत अखरी . साढ़े चार बजे तक हम सबने पुस्तक विमोचन के साथ आवश्यक और तय कार्यक्रम के अनुसार अपने अपने विचार व्यक्त किये .पुस्तक विमोचन का यह आयोजन निश्चित ही बड़ा अनौखा व विशिष्ट था . हमारी मनमर्जी का यह एक बेहद खास और आनन्दभरा अनुभव था .


मन में उसी आनन्द को सहेजे लगभग छह बजे ऋताशेखऱ मैट्रो से अपने घर चली गईं . वहाँ से अर्चना का घर बहुत दूर था . आधी दूर तक वह मेरे साथ ही सन सिटी तक आने वाली थी फिर वहां से सरजापुर रोड स्थित घर . मैं टैक्सी बुक करने का प्रयास कर रही थी लेकिन मेरे मोबाइल फोन पर 'डेस्टीनेशन' नहीं आ रहा था .प्रशान्त ने कहा कि मम्मी आप वहीं खड़ी रहें .मैं कैब बुक कर देता हूँ ,लेकिन इस समय थोड़ा समय लग सकता है .ट्रैफिक बहुत ज्यादा है . उसी समय एक सीधा सज्जन दिखने वाला ऑटो-ड्राइवर हमसे चलने का आग्रह करने लगा . हमने उसे टालने के लिये कुछ कम किराया कहा तो वह उसी पर चलने तैयार होगया मानो उसे इसकी बहुत ज़रूरत थी . मालूम नहीं जल्दी निकलने का विचार था या उस ऑटो ड्राइवर का आग्रह या फिर तेज बारिश का खतरा , हमने जल्दी से वह ऑटो ही किराए पर ले लिया . ऑटो कुछ मीटर चला ही था कि प्रशान्त ने टैक्सी बुक करवा दी . लेकिन अब ऑटो से उतरना हमें उस ड्राइवर के साथ नाइन्साफी लगा . अस्तु प्रशान्त को कैब कैंसल करने को कह दिया . आप सोच रहे होंगे कि इतनी सी बात का इतना हंगामा क्यों , तो असल में इसके आगे जो हुआ वह आसानी से भुला दिया जाने वाला प्रसंग नहीं है . यह हमारी मनमर्जी का यह दूसरा उदाहरण था .लेकिन पहले से उलट बड़ा ही खतरनाक . 

प्रशान्त ने घर से चलते समय भी और बीच में भी फोन पर कहा कि जल्दी निकल आना मम्मी  शाम को बहुत तेज बारिश हो सकती है ..हमने इस बात को गंभीरता से नहीं लिया  लेकिन हुआ वही कि एक किमी भी न चले कि बारिश शुरु होगई . बारिश अच्छी लगती है लेकिन घर में ही . बाहर मुझे बहुत डर लगता है . भीगने का नहीं ,बादलों के कर्णविदारक तुमुल घोष और रोष दिखाती बिजली का .ऑटो में बौछारों से बचाव की कोई तैयारी नही थी . यानी हमें एक घंटे का रास्ता बूँदों के प्रहार सहते हुए ही तय करना था . हम इसी चिन्ता में थीं कि ऑटो वाले ने एक एक जगह सी एन जी के लिये ऑटो खड़ा किया और हमारे अधिक से अधिक तीस सेकण्ड बाद ही पीछे बड़ी जोर की आवाज व चीख पुकार सुनाई दी . ऑटो वाले ने घबराकर कहा—"हे वैंकटेश्वरा रक्षा करो। दो तीन तो गए .

भैया आप किसकी बात कर रहे हैं ?”--अर्चना ने पूछा . उसकी बातों से पता चला कि हमारे पीछे लगभग पचास साठ कदम पर खड़ा पेड़ एक ऑटो पर गिर पड़ा था . ऑटो पूरी तरह पिचक गया था . यह सचमुच भयानक था . अगर हम बीस-तीस सेकण्ड लेट होते तो वही हश्र हमारा होता यह सोचकर हृदय जोर से धड़क उठा . उस दर्घटना में लोग जान से नहीं गए होंगे तो गंभीर रूप से घायल ज़रूर हुए होंगे . उन लोगों के बारे में सोचना भी कम दुखद नहीं था .

इसके बाद बारिश बहुत ज्यादा तेज होगई . हमारे कपड़े पूरी तरह भीग गए . तेज हवा पसलियों तक चोट कर रही थी .लेकिन हमें घर पहुँचने की चिन्ता थी . बारिश मूसलाधार थी . सड़क पर पानी बढ़ता जा रहा था .पास से गुजरती कारें हमें सिर तक भिगोने का उपक्रम कर रही थीं . ड्राइवर सचमुच सज्जन था . फोन पर उसका बेटा मना करता रहा –- पापा गाड़ी मत चलाओ .” लेकिन वह गाड़ी को लगातार भगाता रहा . इधर प्रशान्त काफी परेशान था . लेकिन हम गीत गा गाकर जैसे जान बच जाने का जश्न मान रही थीं और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का अनुभव कर रही थीं .साथ ही अपनी तमाम आशंकाओं को परे झाड़ रहीं थीं .

जिस समय हमें सरजापुर क्रॉस वाला ब्रिज दिखा , हमने चैन की साँस ली . अर्चना का घर अभी बहुत दूर था . इसलिये वह मेरे साथ ही कुछ देर के लिये आगई . हमारे कपड़े तरबतर थे ., तुरन्त बदले . सुलक्षणा ने बढ़िया चाय बनाकर दी .

हम निश्चित ही एक बड़े संकट को पार कर आई थीं . तेज बारिश में ऑटो बन्द भी हो सकता था ,तेज हवा में पलट भी सकता था . और ड्राइवर हमें कहीं भी उतारकर भाग  सकता था या चलने से मना कर सकता था .

लेकिन जब कोई काम हम अपनी मर्जी व जिम्मेदारी के साथ करते हैं तब कोई और दोषी नहीं होता . इसलिये कठिनाई सहने और पार पाने की शक्ति भी स्वतः ही आती है . हमने ड्राइवर को धन्यवाद कहा . उसे पूरा उचित किराया दिया . तब तक बारिश का आवेश भी कम होगया .

खैर यह सब छोड़ तस्वीरों से आप भी हमारे आनन्द का अनुभव कर सकते हैं .











 

गुरुवार, 30 मई 2024

अपने हिस्से की धूप

 कल फेसबुक पर अनायास ही एक समाचार सामने आया –

राहुलराज विश्वकर्मा संगीत के क्षेत्र में 2024 के शिखर-सम्मान से सम्मानित .”हृदय पुलक और विस्मय से भर गया. लगन ,अविराम परिश्रम और अभ्यास कहाँ से कहाँ पहुँचा देता है किसी को . एक सीधे सादे ,अपने वज़ूद के लिये संघर्षरत राहुल को आत्मविश्वास के साथ सम्मान लिये देखना कितना सुखद है . 

राहुल विश्वकर्मा ! शासकीय जीवाजीराव उ.मा.वि. में केवल दो वर्ष रहा मेरी कक्षा का छात्र . छात्र सभी प्रिय होते हैं लेकिन कुछ छात्र अपनी जिज्ञासा ,उत्कण्ठा और विनम्रता के कारण सदा के लिये हृदय पर की अमिट छाप छोड़ जाते हैं . राहुल उन्ही में से एक था (है) 

2013 के जुलाई में एक सौम्य और सीधा-सादा छात्र मेरी कक्षा में इस परिचय के साथ प्रविष्ट हुआ कि वह विदिशा के एक गाँव मथुरापुर से यहाँ पढ़ाई के साथ संगीत की शिक्षा लेने के उद्देश्य से आया है एक गीत पर मुख्यमंत्री जी से पुरस्कृत भी हो चुका है. वहाँ के जिलाधिकारी और एक पत्रकार के सहयोग से यहाँ पहुँचा है .मेरे लिये सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात थी उसका संगीत से जुड़ा होना . उन दिनों विद्यालय में मुझे सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधियों का प्रभार मिला हुआ था जिसमें वर्षभर आयोजित होने वाले साहित्य व संगीत विषयक प्रतियोगिताएं, बालरंग, राष्ट्रीय पर्वों पर छात्रों की प्रस्तुतियाँ आदि की तैयारियाँ करवानी रहती थी . लगभग 12 कक्षाओं में गाने वाले छात्रों को चुनना बड़ा श्रमसाध्य था .कई छात्रों को सुर की समझ थी . गा भी लेते थे पर वे सामने नहीं आना चाहते थे .और कई उत्साह के साथ तैयार रहते लेकिन वे सुर नहीं पकड़ पाते थे . गीत आदि तैयार करवाने में बहुत मेहनत और समय लगता था . राहुल के आने से चीजें काफी आसान होगई . वह बड़ा उत्साही और विनम्र था (है) .वह हर कार्यक्रम में भाग लेने उत्साहित रहता था लेकिन मुझे वह कहीँ ठहर गया सा लगता था . जहाँ आगे सीखने की राह या तो बन्द हो जाती है या बहुत छोटी और सीमित होजाती है . शायद पहले ही मंच पर मिली प्रशंसा और मुख्यमंत्री जी द्वारा मिले पुरस्कार का प्रभाव था जिसने उसे एक जगह रोक रखा है .उसकी जिज्ञासा और उत्साह को देखते हुए यह ठहराव ठीक नहीं था . 

हालाँकि मैने संगीत की की कोई शिक्षा नहीं ली है . विद्यालय में मेरी स्थिति , निरस्तपादपे देशे एरण्डोऽपि द्रुमायते। जैसी थी अर्थात् रेगिस्तान में जहाँ वृक्ष नहीं होते एरण्ड को ही वृक्ष मान लिया जाता है .लेकिन मुझे सुर की बारीकियों की समझ तो थी . गाकर बता भी सकती थी . यह बात तो सभी में जन्मजात होती ही है .

स्वतंत्रता दिवस पर गाने के लिये उसने एक काफी सूक्ष्म उतार चढ़ाव वाला देशभक्ति गीत चुना . मैंने पाया कि सुर तो सही हैं लेकिन उसमें उतार चढ़ाव और मोड़़ की बारीकियाँ नहीं हैं ,जो किसी भी गीत को खूबसूरत और कर्णप्रिय बनाती हैं .काफी कोशिश के बाद भी, जैसा मैं चाहती थी, वह नहीं गा पा रहा था . मैंने कुछ खींज के साथ कहा –राहुल सबसे पहले तुम इस गलतफहमी से बाहर आओ कि तुम अच्छा गाते हो .अभी तुम्हें सुधार की बहुत ज़रूरत है .अगर आगे जाना है तो खुद को लगातार अभ्यास के लिये तैयार करो .

तमाम उम्मीदें पालकर आए बच्चे के लिये यह बात काफी कठोर थी , इसे मैं आज भी महसूस करती हूँ लेकिन आगे जाने के लिये वह ज़रूरी था . प्रशंसा के व्यामोह में हम अक्सर उलझकर रह जाते हैं . उस समय मेरी बात सुनकर वह कुछ मायूस दिखा लेकिन बिना किसी हताशा के उसने सुधार व अभ्यास जारी रखा . 

उसकी इस बात से मैं बहुत प्रभावित हुई .यह बात साधारण नहीं थी बल्कि यह उसके उज्ज्वल भविष्य का स्पष्ट संकेत था . वह गीत की रिकार्डिंग सुनता रहा और मुझे गाकर सुनाता रहा .और अन्ततः उसने वह गीत बड़े ही सधे हुए स्वर में गा ही लिया और सबने ,खासतौर पर मैंने बड़े सुकून से सुना . माधव संगीत विद्यालय में वह विधिवत् शिक्षा ले ही रहा था . धीरे धीरे उसकी आवाज में इतना आत्मविश्वास और निखार आ गया कि एक प्रतियोगिता में हमने परिणाम के अन्तिम निर्णय को चुनौती ही दे डाली .  


यह सत्र 2014-15 की बात है . बालरंग की जिलास्तर प्रतियोगिता थी . लेकिन सबसे अच्छा गाने के बाद भी उसे प्रथम स्थान नहीं मिला . संभाग स्तर पर केवल प्रथम को ही जाना था . वह निर्णय गले नहीं उतर रहा था . मैने प्राचार्य से कहा तो वे बोलीं "क्या तुम्हें यकीन है कि निर्णय़ पक्षपात पूर्ण था ?" मैंने कहा --" जी मैडम शत प्रतिशत ."मैडम ने जिलाशिक्षाधिकारी को पत्र लिखा . अच्छा यह हुआ कि उन्होंने हमारी शिकायत पर गौर किया . उन्होंने एक टीम बनाकर पुनः प्रतियोगिता करवाई .उसमें राहुल विजयी रहा और मेरा विश्वास भी . उसने संभाग स्तर पर प्रथम आकर राज्यस्तरीय प्रतियोगिता में भोपाल में भी प्रस्तुति दी थी .  

राहुल के गुणों में मुझे विनम्रता लगन और परिश्रम सबसे अधिक मिले . इन्हीं गुणों ने उसे आज इस मुकाम तक पहुँचाया है .

कहते हैं शिक्षक छात्रों को एक सही दिशा देते हैं .लेकिन मैं कहना चाहती हूँ कि अच्छे छात्रों के कारण ही शिक्षक को अपनी पहचान ,सही सम्मान और सच्चा प्रतिफल मिलता है ..

राहुल ने ग्वालियर माधव संगीत विद्यालय ग्वालियर से अपनी संगीत शिक्षा पूर्ण की. वहाँ उसके गायन में लगातार निखार आता रहा . मेरी कक्षा में ,और स्कूल में भी वह केवल दो वर्ष रहा इसलिये उसके निर्माण या उपलब्धियों में मेरा कोई खास सहयोग नहीं रहा लेकिन वह मानता है कि मेरी नसीहतों ने ही उसे सही राह दी है .मुझे यह एक उपलब्धि जैसा लगता है लेकिन वास्तव में राहुल अभावों से जूझकर , मुश्किलों को परास्त कर अपनी लगन ,परिश्रम और जिज्ञासा के कारण ही यहाँ तक पहुँचा है . इस बात पर मुझे अपनी बाल कहानी मुझे धूप चाहिये .’ याद आती है . जिसमें एक छोटा पौधा किस तरह धूप की चाह में सारे पौधों से ऊपर निकल जाता है . धूप आपको माँगने से नहीं मिलती . कोई देना भी नहीं चाहता अपने हिस्से की धूप खुद हासिल करनी होती है . राहुल ने अपने हिस्से की धूप खुद अर्जित की है. आज वह कितने ही छात्रों को संगीत की शिक्षा दे रहा है . उसे शिखर सम्मान का समाचार पढ़कर हृदय विस्मय ,गर्व और पुलक से भर गया है .

हमेशा खुश रहो राहुल . ऐसी उपलब्धियाँ तुम्हें मिलती रहें . बस याद रखना –

इस पथ का उद्देश्य नहीं है

श्रान्त भवन में टिक रहना

किन्तु पहुँचना उस मंजिल तक

जिसके आगे राह नहीं .  

सस्नेह तुम्हारी दीदी 

 


गुरुवार, 16 मई 2024

बद्रीनाथ धाम यात्रा --अन्तिम भाग


7 मई को श्रीमद्भागवत् का विधिविधान से पारायण हुआ . नव मुकुलित सुमन जैसे प्रियदर्शी कथावाचक शास्त्री श्री आकाश उनियाल जी जितने पौराणिक ग्रन्थों के ज्ञाता हैं उतने ही सरल और विनम्र भी हैं .शाम को वे हमारे साथ सहज बैठकर पुत्रवत् बात करते थे . उर्मिला के विशेष स्नेहभाजन आकाश इन आठ दिनों में मेरे भी उतने ही प्रिय बन गए . उनसे भागवत् कथा विषयक कुछ जिज्ञासाओं का समाधान हुआ . देखा जाय तो आकाश अभी अध्ययन रत हैं लेकिन जिस प्रगल्भता और आत्मविश्वास के साथ उन्होंने कथावाचन किया वह उनके उज्ज्वल और यशस्वी भविष्य का निर्धारण सुनिश्चित करता दिखाई देता है .



सुस्वादु प्रसादी के पश्चात् हम सब एक बार फिर उर्मिला के साथ भगवान् बद्रीविशाल के दर्शन के लिये गए . उर्मिला ने तय किया था कि आयोजन सफलता पूर्वक सम्पन्न होने के बाद ही दर्शन करने जाएंगीं . उर्मिला घुटनों के दर्द से बहुत परेशान रहती हैं लेकिन उसका आत्मविश्वास हर मुश्किल में राह बना देता है . यह भी सच है कि किसन जैसा भाई होना भी एक बड़ी नियामत है जीवन की . मैंने बहिन के लिये इस तरह का समर्पण कहीं किसी भाई में नहीं देखा .बद्रीनाथ धाम में यह आयोजन भाई किसन के बिना सम्भव नहीं था . उनकी पत्नी ऊषा भाभी भी बराबर सहयोग करती रही . सबसे बड़ी बात कि उन्होंने मेरा भी बराबर ध्यान रखा .कड़कड़ाती  सर्द सुबह जबकि रजाई से बाहर निकलने के लिये सोचना पड़ रहा था ,जिस तरह  किसन हमारे लिये गरम पानी और चाय लाते थे मैं कभी नहीं भूल सकती .यह उल्लेख मैं इसलिये कर रही हूँ क्योंकि हम तीसरी मंजिल पर थे और चाय पानी खाना आदि की व्यवस्था नीचे थी .इस प्रवास में केवल यही बात अखर सकती थी अगर भाई किसन और रवि इतना ध्यान न रखते .
किसन भाई कुछ वर्ष मेरे छोटे भाई सन्तोष के सहपाठी रहे थे .वे भी किसी विभाग में इंजीनियर हैं .किसन के अलावा पूरे आयोजन में रवि का भी बड़ा सहयोग रहा .वह कुशल ड्राइवर तो है ही इन्सान भी अच्छा है .विनम्रता और अपनेपन के साथ काम करता रहा .इसके पीछे उर्मिला और किसन की आत्मीयता भी है . इनके बीच रेखा को कैसे भूल सकती हूँ .छोटा कद ,दुबली पतली , विचारों से चालीस की उम्र में ही सत्तर साल जैसी गंभीरता और बड़प्पन . बहुत कम बोलने वाली ,समझ में हमसे भी आगे लेकिन बहिन उर्मिला के लिये पूर्ण समर्पित ..

देवप्रयाग

8 मई को जब हमने उस पावन धाम से विदा ली तब मन में घर लौटने का उल्लास तो था लेकिन एक कसक भी थी कि आठ दिन बीत भी गए ! क्या सचमुच हम ,..खास तौर पर मैं पूरी तरह इन्हें आत्मसात् कर पाई ? हम जाने क्यों वर्त्तमान को छोड़ अतीत या भविष्य की अँधेरी गलियों में कुछ खोजने का उपक्रम करते रहते हैं और खुद से ही अकारण जूझते रहते हैं .वर्त्तमान अनजिया, अनछुआ सा ही गुज़र जाता है फिर अतीत बनकर सालता या आनन्दित करता रहता है . शायद ये आठ दिन भी कहीं भटकते हुए गुज़र गए प्रतीत हो रहे थे .पर आज उन्हीं को याद करते हुए एक प्यारा अनुभव सहेजे हूँ . ये पल हमारी पूँजी जैसे होते हैं .


लौटते हुए हमारे पास समय था इसलिये आराम से ठहरकर पंचप्रयाग (विष्णुप्रयाग नन्दप्रयाग रुद्रप्रयाग , कर्ण प्रयाग और देवप्रयाग) के दर्शन किये . प्रयाग यानी दो या अधिक नदियों का संगम . इस बार भी अनन्त सलिला अलकनन्दा हमारे साथ थी .हम उसकी उँगली थामे चल रहे थे .बीच में गंगा की कोई धारा अलकनन्दा से मिलने आजाती है और वात्सल्यमयी अलकनन्दा दोनों बाहें पसारकर उसे अपने आँचल में समा लेती है .इस प्रकार विष्णुप्रयाग में धौली गंगा , नन्दप्रयाग में नन्दाकिनी नदी,, कर्णप्रयाग में पिंडर नदी रुद्रप्रयाग में मन्दाकिनी नदी मिलकर अलकनन्दा को और समृद्ध बनाती हैं . देवप्रयाग में अपनी चारों बहिनों के साथ अलकनन्दा भागीरथी से मिल जाती है . भागीरथी गंगोत्री से निकलकर आती है इसे गंगा की प्रमुख धारा माना जाता है लेकिन ये छह बहिनें मिलकर गंगा कहलाती हैं व्यक्तिवाद के दायरे से बाहर स्थापित समाजवाद का अनुपम उदाहरण .

पौराणिक कथाओं में गंगा अवतरण भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रसंग है . गंगा जब स्वर्ग से उतरकर धरती पर आने लगी तो प्रवाह बहुत तेज था शिवजी की जटाओं से बहती गंगा का प्रवाह इतना तेज था कि सारी सृष्टि के विनाश का भय था ,

उसे कम करने के लिये शिवजी ने गंगा के उद्दाम वेग को अपनी जटाओं में समा लिया और उसे कई धाराओं में बाँटते हुए उतारा .इस तरह सभी धाराएं गंगा की ही हैं केवल नाम अलग हैं . पंचप्रयागों में विभिन्न धाराएं मिलते हुए देवप्रयाग तक सब मिलकर गंगा हो जाती हैं .

हरिद्वार तक आते आते शाम होगई . सुबह किसन भाई ग्वालियर के लिये निकल गए और हम लोग निकल पड़े गोवर्धन के लिये .

मार्ग के आकर्षण 

गिरिराज गोवर्धन ,..जिसे भगवान श्री कृष्ण ने इन्द्र के कोप से ब्रज की रक्षा हेतु उँगली पर उठा लिया था, उस पर्वत को देखना ,उसकी पैदल परिक्रमा करना मेरा सपना था .जब हम पहुँचे शाम होने लगी थी . पैदल चलने का समय नहीं था . वैसे भी उर्मिला के लिये पैदल चलना बहुत कष्टकर होता .अँधेरा भी होने लगा था लेकिन परिक्रमा तो लगानी ही थी क्योंकि सुबह मुझे अनिवार्यतः ग्वालियर पहुँचना था . (हालाँकि उर्मिला साधु सन्तों व ब्राह्मणों को भोजन कराने हेतु एक दिन और वहाँ रुकने वाली थी) .अस्तु हमने परिक्रमा के लिये टमटम को चुना . 

गिरिराज के आसपास का वातावरण देख मुझे बड़ी निराशा हुई . मेरी कल्पना थी कि बस्ती से कुछ हटकर पर्वत होगा . चारों ओर हरियाली होगी . पैदल चलने के लिये सुन्दर सुरम्य रास्ता होगा .बचपन से ही हमारी चेतना में रचे बसे , और लीलाधारी कृष्ण की लीलाओं के सबसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण-स्थल के बारे में यह कल्पना और अपेक्षा गलत भी नहीं थी लेकिन मकानों की भीड़ में कृष्ण की गरिमा का स्वर्णिम पृष्ठ कहीं गुम हुआ सा लगा .

मेरा पैदल चलने का इरादा तो रास्ता देखकर वैसे ही खत्म होगया ,क्योंकि पैदल चलकर परिक्रमा के लिये समुचित रास्ता है ही नहीं . परिक्रमा के रास्ते में ही सड़क मुख्य सड़क है , मिठाइयों और दूसरी तमाम चीजों की दुकानें हैं , पूरा बाजार है ,बाजार में क्रेताओं की भीड़ है .कहीं कहीं कीचड़ और कचरे के ढेर और गन्दगी भी थी . दूर दूर से आस्था के साथ परिक्रमा करने आए श्रद्धालु वहाँ के लोगों के लिये रोज ही काम के लिये जाते कर्मचारियों की तरह मामूली हैं . उनके साथ ही बाजार की भीड़ ,मोटरसाइकिल ,कार ,और टमटम का सफर भी जारी है .मुझे सबसे सोचनीय स्थिति तो उन आस्थावान यात्रियों की लगी जो उस भीड़ और यातायात के बीच दण्ड लगाते हुए परिक्रमा कर रहे थे . कैसा लगेगा कि एक श्रद्धालु जय गिर्राज जी महाराज बोलता हुआ ब्रज की भूमि को साष्टांग प्रणाम कर रहा है और कोई बगल से कार में या बाइक पर फर्राटे से निकल जाता है . कम से कम मुझे बहुत अखरा . उन लोगों की श्रद्धा ( कोई इसे अन्धविश्वास भी कह सकता है ) को नमन करती हूँ पर साथ ही शासन की लापरवाही पर क्षोभ भी होता है .क्यों अभी तक इस स्थिति में सुधार नहीं किया गया . 

हमने टमटम से परिक्रमा की पर लेकिन मुझे कहीँ पर्वत नहीं दिखा .लोगों के अनुसार पर्वत दिखता तो है पर कुछ ही जगहों से दिखता है .संभव है कि मेरी कल्पना जितना ऊँचा न हो . हमारा परिक्रमा का समय भी उपयुक्त नही था . 

मानसी गंगा आदि स्थलों पर यही विचार बार बार आ रहा था कि केवल 'भगवान का नाम लेने से ,जयकारा लगाने से, उनके धाम पहुँचने मात्र से पुण्य मिल जाता है ', इस जमी हुई धारणा ने हमारे धार्मिक स्थलों को किस तरह आडम्बर का केन्द्र बना दिया है . जहाँ भी देखो न कोई व्यवस्था न सफाई का ध्यान ..खास तौर पर गोवर्द्धन में पण्डों पुजारियों का प्रलोभन चरम पर दिखा .बद्रीनाथ धाम में यह बड़ी प्रेरक और सुखद अनुभूति हुई कि वहाँ आडम्बर या प्रलोभन कहीं नहीं था .नगराज हिमालय के अंचल में अभी आचरण की शुद्धता बनी हुई प्रतीत होती है . यहाँ मन्दिर परिसर में छोटी छोटी मासूम बच्चियाँ चन्दन लिये जिस तरह लोगों को रोक रोककर तिलक लगाने का चेतावनी मिश्रित आग्रह कर रही थीं , उन्हें शिक्षा के महत्त्व से हटकर धूर्त्त व्यावसायिकता और बिना कुछ किये धन कमाने के तरीके सिखाता है . बड़ी निराशा हुई कि इतने महत्त्वपूर्ण तीर्थ में मुझे भक्ति की बजाय आडम्बर और अराजकता ही दिखी . भक्ति का अर्थ केवल दीपक अगरबत्ती जलाकर आरती गाना नहीं होती . वह भक्ति का एक तरीका हो सकता है लेकिन भाव में जब तक कातरता और कृतज्ञता नहीं हैं , समाज के प्रति दायित्त्वबोध नहीं है , भक्ति नहीं आडम्बर है .मुझे परिक्रमा से सन्तुष्टि नहीं हुई . मेरे असन्तोष और दृष्टिकोण से उर्मिला सहमत नहीं थी . वह अपनी जगह सही थी पर मेरा दृष्टिकोण भी गलत नहीं था बस हमारी सोच दो दिशाओं में जा रही थी .

हैरानी यह कि अपनेआप में धार्मिक होने का दंभ पाले कुछ लोगों में न झूठ से परहेज होता है न प्रलोभन या बेईमानी से .उन्हें धार्मिक स्थलों में भी अतिक्रमण करते संकोच नहीं होता ..गिरिराज के आँगन में फैली बस्ती ,उस पावन धाम में व्याप्त अव्यवस्था मुझे यही बता रही थी , जहाँ तक मैंने अनुभव किया . हो सकता है वह सब तात्कालिक हो . यह तो पुनः वहाँ जाने पर ही ज्ञात होगा .फिर भी अतिक्रमण तो स्थायी सत्य है . मेरा विचार है कि प्रशासन को इस पावन गिरिराज परिसर को अतिक्रमण से मुक्त कराना चाहिये . और श्रद्धालुओं के लिये एक अलग यातायात से पृथक सुरक्षित मार्ग बनाना चाहिये .

मुझे अगले दिन सुबह अनिवार्य रूप से ग्वालियर पहुँचना था इसलिये मैंने सुबह उर्मिला से विदा ली .रवि ने शताब्दी के लिये मुझे समय पर मथुरा स्टेशन पहुँचा दिया .वह इस अनूठी अनुपम यात्रा का अन्तिम सोपान था .